गुरुवार, 22 नवंबर 2018

Women Empowerment की ख़िज़ाँ में 'बहार' हैं कुछ मिसालें ! ========================================

शैक्षणिक और आर्थिक यानी तालीम और आत्मनिर्भरता के मामले में हमारी आधी आबादी (मुस्लिम औरतों) की हालत किसी से छुपी नहीं है, जब भी इस मुद्दे पर विचार विमर्श होता है, अगर मगर किन्तु परन्तु और कुतर्कों की बाढ़ आ जाती है !

मुस्लिम समाज में औरतों की तालीम का प्रतिशत डरावना है, आंकड़ों को पेश न करते हुए यही बात सामने रखने की कोशिश है कि बदलाव आ तो रहा है मगर इस डरावने प्रतिशत को देखते हुए बहुत ही कम रफ़्तार है, शैक्षणिक और आर्थिक (आत्मनिर्भरता) के मोर्चे पर मुस्लिम औरतों को अभी और बड़ी जंग लड़नी है !

बेटियों को दीनी तालीम के साथ दुनियावी तालीम से आरास्ता करना ज़रूरी है, उन्हें शैक्षणिक मोर्चे पर इतना मज़बूत करना है कि वो आगे जाकर किसी भी विपरीत परिस्थितियों में उसका डटकर मुक़ाबला कर सके, तालीम होगी तो बेटियां आर्थिक आत्मनिर्भरता के मोर्चे पर भी मज़बूतो होंगी !

अपने इर्द गिर्द और समाज में सोशल मीडिया में जब इस बदलाव की आहट सुनता हूँ तो ख़ुशी होती है, ऐसी ही एक मिसाल नज़र आयी फेसबुक पर दोस्त बनी असम राज्य की रहने वाली बहन डॉक्टर नील बहार बेगम के तौर पर, जब वो कोटा शहर में मेडिकल कोचिंग ले रही अपनी बिटिया से मिलने आईं और मुझे मेसेज कर इसकी इत्तिला दी, जब उनसे मिला तो पता लगा कि एक मुस्लिम औरत का शिक्षित होना और आर्थिक मोर्चे पर आत्मनिर्भर होना कितना ज़रूर है !

डॉक्टर नील बहार बेगम सहित सात बहने हैं, बचपन से ही उनके वाल्दैन ने उन्हें पढ़ाने के लिए किसी तरह की कोई कमी नहीं रखी, खास तौर पर उनकी वालिदा ने अपनी सातों बेटियों को पढ़ाने के लिए हमेशा से हौंसला दिया, और इस मामले में सातों बेटियों ने उनकी उम्मीदें पूरी कीं, सातों बहनें ग्रेजुएट हैं !

डॉक्टर नील बहार बेगम एक वेटनरी डॉक्टर हैं, उनका खुद का क्लिनिक है और साथ में ही डेरी फार्म भी है, जिसे वो अपने वेटनरी डॉक्टर शौहर के साथ मिलकर संभालती हैं, मैं यहाँ उनका ज़िक्र इसलिए ख़ास तौर पर कर रहा हूँ कि उन्होंने इस साल चार पांच महीने जो जद्दो जहद की है वो किसी आम औरत के बस की बात नहीं, इस बुरे वक़्त में उनकी तालीम और आत्मनिर्भरता ही उनके काम आई !

नील बहार बेगम के शौहर का 19 मढ़ 2018 को दरभंगा में रात दो बजे भयंकर कार एक्सीडेंट हुआ था,जिसमें वो गंभीर रूप से घायल हो गए थे, कार ड्राइवर उन्हें घायल हालत में छोड़कर भाग गया था, वो कार में ही फंसे रहे, हाई वे के आस पास वाले लोगों ने उनके एक लाख से ज़्यादा रूपये लूट लिए, मोबाइल छीन लिए मगर मदद नहीं की !

असम से दरभंगा जाकर अपने शौहर को संभाला और वहां से उनकी अस्थाई चिकित्सा कराकर असम लेकर आईं, जहाँ उनके चार ऑपरेशन हुए, इसी दौरान उन्होंने हॉस्टल में रहकर पढाई कर रही अपनी छोटी बेटी को गौहाटी जाकर संभाला, कोटा आकर अपनी दूसरी बेटी के कोचिंग एडमिशन की मालूमात की, एक वक़्त ऐसा आया कि जिस वक़्त वो कोटा में अपनी बिटिया का एडमिशन करा रही थीं उस वक़्त उनके शौहर को ऑपरेशन थिएटर में ले जाया रहा था !

कोटा (राजस्थान) में विमान सेवा नहीं होने की वजह से डॉक्टर नील बहार बेगम हवाई जहाज़ द्वारा आसाम से जयपुर आती हैं उसके बाद ट्रैन का सफर कर कोटा आती हैं, और अपनी बिटिया को संभाल कर उसी रुट से वापस अपने शहर जाती हैं !

दो बेटियों की मां डॉक्टर नील बहार बेगम के साथ फोटो में खड़ी हैं वो उनकी छोटी बहन जासमीन बहार हैं और सरकारी विभाग में शिक्षिका हैं, वो अपनी बहन के लिए एक हौंसला भी हैं, सात बहनों में पांच बहने जॉब में हैं, दो बहनें हाउस वाइफ हैं, डॉक्टर नील बहार बेगम के अलावा चारों बहने अध्यापन के क्षेत्र में हैं ! 

जब नील बहार बेगम के सामने आईं कठिन परिस्थितियाँ पर और उनके हौंसले पर नज़र डालते हैं तो समझ आता है कि इस बुरे वक़्त में उनकी तालीम और आत्मनिर्भरता ही काम आयी, जबकि इससे पहले वो कभी अकेले न बिहार गयीं थीं ना ही हवाई जहाज़ से सफर कर कोटा आईं थीं, इन पिछले चार महीने उन्होंने न सिर्फ अपने शौहर को संभाला बल्कि उन्हें बिहार से लेकर आसाम लेकर आईं, उनके चार ऑपरेशन कराये, अपना क्लिनिक संभाला, अपना डेरी फार्म संभाला, बच्चों की तालीम और एडमिशन वगैरह का काम संभाला, आर्थिक स्त्रोतों को जारी रखा, किसी तरह की आर्थिक परेशानी नहीं आने दी !

कहानी बहुत लम्बी हो चली है, निष्कर्ष यही है कि मुस्लिम महिलाएं अगर तालीम और आत्मनिर्भरता के क्षेत्र में आगे बढ़ती हैं तो वो मौक़ा आने पर किसी भी तरह की विपरीत परिस्थतियों को डटकर सामना कर सकती हैं, मर्दों के साथ कंधे से कन्धा मिलाकर चल सकती हैं !

डॉक्टर नील बहार बेगम के साथ बीती ये घटनाएं और उनका संघर्ष सही मायनों में Women Empowerment का जीता जागता उदाहरण है, और साथ में ये उन लोगों के मुंह पर भी तमाचा है जिन्हे Women Empowerment के नाम पर उबकाइयां आती हैं, महिला सशक्तिकरण के नाम पर अंडर गारमेंट बेचती अधनंगी औरतें याद आती हैं या फिर नालियों में पड़े भ्रूण नज़र आते हैं या फिर सनी लेओनी याद आती है मगर उन्हें ये याद नहीं आता कि मशहूर मैगज़ीन Forbes ने 2016 में अपनी '13th annual World’s 100 Most Powerful Women' की लिस्ट जारी की थी उन 100 शक्तिशाली औरतों में 6 मुस्लिम औरतों ने अपनी बा-वक़ार मौजूदगी दर्ज कराई थी !

मैंने इस लेख का शीर्षक नील बहार बेगम के नाम पर "Women Empowerment की ख़िज़ाँ में 'बहार' हैं कुछ मिसालें !" ही दिया है, बहन डॉक्टर नील बहार बेगम के संघर्ष और हिम्मत को सलाम, दुआ करता हूँ कि उनकी बिटिया भी पढ़ लिख कर डॉक्टर बने, अपने वाल्दैन के सपने पूरे करे और मुश्किलों से डटकर मुक़ाबला करने वाली अपनी मां जैसी मिसाल बने !!

बुधवार, 15 अगस्त 2018

मिलिए पूर्व RBI गवर्नर रघुराम राजन के गुरु रहे प्रोफ़ेसर आलोक सागर से !!


उलझे हुए बढे बाल, बढ़ी हुई दाढ़ी, हाथ में एक झोला और पैरों में टायर की बनी चप्पल.... यह हुलिया आईआईटी दिल्ली के एक प्रोफेसर आलोक सागर का है, जो गरीब आदिवासियों को जिंदगी बदलने का तरीका सिखाने उनके बीच अपनी पहचान छुपाकर रह रहे हैं !  आलोक RBI गवर्नर रहे रघुराम राजन सहित कई जानी-मानी हस्तियों को अमरीका में पढ़ा भी चुके हैं !

हाल ही में उनका नाम खबरों में तब छाया जब इंटेलिजेंस ने उनसे संदिग्ध व्यक्ति समझ अपनी पहचान बताने को कहा, जब प्रोफेसर आलोक सागर ने अपने बारे में बतया तो बस फिर क्या था उनकी हाई एजुकेशन और इस तरह की लाइफस्टाइल को देखकर तो इंटेलिजेंस के लोग भी हैरान रह गए, और फिर ये खबर पूरे देश में आग की तरह फ़ैल गयी !


उनका दिल्ली से अमेरिका तक का सफर :
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प्रोफेसर आलोक सागर का जन्म 20 जनवरी 1950 को दिल्ली में हुआ. आईआईटी दिल्ली में इलेक्ट्रॉनिक इंजीनियरिंग की !

1977 में अमेरिका के हृयूस्टन यूनिवर्सिटी टेक्सास से शोध डिग्री ली !
टेक्सास यूनिवर्सिटी से डेंटल ब्रांच में पोस्ट डाक्टरेट और समाजशास्त्र विभाग !
डलहौजी यूनिवर्सिटी, कनाडा में फैलोशिप भी की !


पढ़ाई पूरी करने के बाद आईआईटी दिल्ली में प्रोफेसर बन गए, यहां मन नहीं लगा तो नौकरी छोड़ दी, इस बीच वे यूपी, मप्र, महाराष्ट्र में रहे. आलोक सागर के भाई-बहनों के पास भी उच्च डिग्रियां है !

कई भाषाओं का ज्ञान :
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आलोक सागर के पिता सीमा व उत्पाद शुल्क विभाग में कार्यरत थे. एक छोटा भाई अंबुज सागर आईआईटी दिल्ली में प्रोफेसर है, एक बहन अमेरिका कनाडा में तो एक बहन जेएनयू में कार्यरत थी, सागर बहुभाषी है और कई विदेशी भाषाओं के साथ ही वे आदिवासियों से उन्हीं की भाषा में बात करते हैं !

25 सालों से रह रहे हैं आदिवासियों के बीच :
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आलोक सागर 25 सालों से आदिवासियों के बीच रह रहे हैं, उनका पहनावा भी आदिवासियों की तरह ही है, उनके बारे में किसी को जानकारी भी नहीं होती अगर बीते दिनों घोड़ाडोंगरी उपचुनाव में उनके खिलाफ कुछ लोगों द्वारा बाहरी व्यक्ति के तौर पर शिकायत नहीं की गई होती, पुलिस से शिकायत के बाद जांच पड़ताल के लिए उन्हें थाने बुलाया गया था. तब पता चला कि यह व्यक्ति कोई सामान्य ग्रामीण नहीं बल्कि एक पूर्व उच्च शिक्षित प्रोफेसर हैं !


26 साल पहले डिग्रियां संदूक में बंद कर दीं :
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आलोक सागर ने 1990 से अपनी तमाम डिग्रियां संदूक में बंदकर रख दी थीं, बैतूल जिले में वे सालों से आदिवासियों के साथ सादगी भरा जीवन बीता रहे हैं, वे आदिवासियों के सामाजिक, आर्थिक और अधिकारों की लड़ाई लड़ते हैं, इसके अलावा गांव में फलदार पौधे लगाते हैं !

अब हजारों फलदार पौधे लगाकर आदिवासियों में गरीबी से लड़ने की उम्मीद जगा रहे हैं, उन्होंने ग्रामीणों के साथ मिलकर चीकू, लीची, अंजीर, नीबू, चकोतरा, मौसंबी, किन्नू, संतरा, रीठा, मुनगा, आम, महुआ, आचार, जामुन, काजू, कटहल, सीताफल के सैकड़ों पेड़ लगाए हैं !

साइकिल से घूमते हैं और बच्चों को पढ़ाते हैं :
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प्रोफ़ेसर आलोक आज भी साइकिल से पूरे गांव में घूमते हैं, आदिवासी बच्चों को पढ़ाना और पौधों की देखरेख करना उनकी दिनचर्या में शामिल है, कोचमहू आने के पहले वे उत्तरप्रदेश के बांदा, जमशेदपुर, सिंह भूमि, होशंगाबाद के रसूलिया, केसला में भी रहे हैं. इसके बाद 1990 से वे कोचमहू गांव में आए और यहीं बस गए !

अंतर्राष्ट्रीय स्तर के इस प्रतिभाशाली व्यक्ति ने अपना सब कुछ त्याग कर ज़मीनी तौर पर गांवों और आदिवासियों के बीच रहकर उनके जीवन स्तर और जीवन यापन के सुधार के लिए अपने आपको झोंक रखा है, वो भी बिना किसी सरकारी मदद और सहायता के, ये निस्वार्थ सेवा भाव उन्हें और महान बनाता है !


मेरे लिए प्रोफ़ेसर आलोक सागर एक सुपर हीरो हैं उनके त्याग उनकी सेवा के लिए उनको दिल से लाखों सलाम !! 🙏 🙏

गुरुवार, 22 मार्च 2018

क्रिकेट टीम को टीम इंडिया नहीं बल्कि टीम BCCI कहिये !!


मैं क्रिकेट नहीं देखता, कभी बीस साल पहले थोड़ा देख लिया करता था, तब भी क्रिकेट देखने की वजह मेरा पसंदीदा खिलाड़ी विवियन रिचर्डस था, क्रिकेट न देखने की बड़ी वजह ये है कि जिसे आप टीम इंडिया कहते हैं वो क़ानूनी तौर‌ पर टीम BCCI है, भारत देश की टीम नहीं है !

BCCI ने आरम्भ से अपने आपको बड़ी चतुराई से किसी भी सरकारी नियंत्रण से मुक्त रखा है, जबकि BCCI करोड़ों रुपयों की मनोरंजन कर में छूट सरकार से ही लेती है, इसके अलावा लीज़ पर ज़मीनें, और दूसरी और BCCI  इनकम टेक्स, कस्टम ड्यूटी और अन्य कई प्रकार की छूट सरकार से ही लेती है, और हर छोटे बड़े खेल आयोजन पर सुरक्षा और अन्य नागरिक सुविधाओं की ज़िम्मेदार भी सरकार ही उठाती आयी है !

https://www.indiatoday.in/magazine/india/story/20130610-how-indian-cricket-is-controlled-bcci-srinivasan-meiyappan-763934-1999-11-30

BCCI बोले तो राजनेताओं और पूंजीपतियों जैसे मगरमच्छों के गठबंधन से खड़ा किया गया स्वायत्त बोर्ड, जो न भारत सरकार के खेल मंत्रालय के अधीन है, ना भारतीय खेल अधिनियम के ना भारतीय ओलंपिक संघ से और ना ही आरटीआई के दायरे में आता है !



BCCI को कोई अधिकार नहीं है कि वो एक स्वायत्त बोर्ड द्वारा चयनित टीम को टीम इंडिया का नाम दे :-
https://www.thehindubusinessline.com/2004/10/01/stories/2004100103330400.htm 

यही एक ऐसा खेल है जिसमें भारत के खेल मंत्रालय की कोई भूमिका नहीं होती, भारतीय ओलंपिक संघ से कोई मतलब नहीं होता, पर भारत सरकार से छूट और सुविधाएं सारी ली जाती हैं, यहां तक कि स्टेडियम से लेकर टिकट पर टैक्स तक की करोड़ों की रकम BCCI हर मैच में चाट जाती है !


इसी BCCI ने क्रिकेट को बेचने के लिए इसे टीम इंडिया का नाम देकर इस को राष्ट्रवाद से जोड़ा, और उसके बाद इसके IPL T-20 जैसे वर्जन लाकर जमकर बेचा और तगड़ा मुनाफा कूटा !

जब भी BCCI को 'टीम इंडिया' शब्द प्रयोग करने से रोकने, भारतीय खेल अधिनियम और आरटीआई के अंतर्गत लाने की बात उठती है तो संसद में मौजूद सियासी घाघ जो BCCI में पदों पर बैठकर मलाई खा रहे हैं, फौरन विरोध करने एकजुट हो जाते हैं !

राजनेताओं और पूंजीपतियों के गठबंधन से खड़े किए गए आॅटोनोमस बोर्ड BCCI द्वारा खड़ी की गई टीम को मैं कभी टीम इंडिया नहीं कहूंगा !

एक इसी लिए मैंने टीम BCCI के मैच देखना बंद कर दिये हैं, जब 'टीम इंडिया' खेलेगी तो देखूंगा ज़रूर, तब तक देशद्रोही ही सही !!

बुधवार, 21 मार्च 2018

तालीम के लिए जद्दो जहद की एक मिसाल !!


CNN में छपी इस खबर ने वैश्विक जगत का ध्यान अपनी ओर खींचा है, अपनी गोदी में 2 महीने के बच्चे को लिए फर्श पर बैठ कर परीक्षा दे रही औरत का ये फोटो अफ़्ग़ानिस्तान के डाकुण्डी प्रान्त का है, और ये सोशल मीडिया पर कल से हज़ारों की संख्या में शेयर हो रहा है, 25 साल की जहां ताब नाम की ये महिला सोशल साइंस विषय की प्रवेश परीक्षा के लिए यूनिवर्सिटी सेंटर पर फर्श पर बैठकर एग्जाम दे रही है, जबकि बाक़ी परीक्षार्थी मेज़ कुर्सियों पर बैठकर परीक्षा दे रहे हैं, और जहां ताब के बराबर एग्जामिनर भी कुर्सी पर बैठी हैं !
ताब जहाँ का दो माह का बच्चा भी है, जिसे वो अकेला घर नहीं छोड़ सकती थी, अत: वो उसे अपने साथ परीक्षा केंद्र ले आयी, परीक्षा के दौरान जब बच्चा रोने लगा तो जहां ताब अपनी कुर्सी छोड़ कर फर्श पर बैठ गयी और बच्चे को गोदी में लेकर चुप कराती रही और साथ में परीक्षा भी देती रही !
इस परीक्षा को देने के लिए ताब जहां आठ घंटे का सफर कर परीक्षा केंद्र तक पहुंची थी !
ये दृश्य इतना दिल को छू लेने वाला था कि यूनिवर्सिटी के लेक्चरर इरफ़ान ने इस फोटो को क्लिक कर फेसबुक पर अपलोड कर दिया, देखते ही देखते ये फोटो फेसबुक के साथ कई सोशल मीडिया साइट्स पर भी वायरल हो गया, हालाँकि इरफ़ान ने बाद में फेसबुक से अपनी वो पोस्ट डिलीट कर दी, मगर ताब जहाँ के ये फोटो सोशल मीडिया के साथ दुनिया के अखबारों और मीडिया में सुर्खियां बटोर रहे हैं !
CNN पर इस खबर को यहाँ पढ़ सकते हैं :-

इरफ़ान के अनुसार ताब जहाँ इस प्रवेश परीक्षा में पास हो गयी है, और वो अब अपनी उच्च शिक्षा के लिए यूनिवर्सिटी में पढ़ना चाहती है, मगर दुःख की बात ये है कि वो बहुत ही गरीब परिवार से आती है, और उसका पति किसान है तथा गरीब भी है, जबकि यूनिवर्सिटी फीस 10,000 से 12,000 अफगानी रुपयों में यानी $143 से $172 के बराबर है, जो वो वहां नहीं कर सकते, ताब जहाँ यूनिवर्सिटी प्रशासन से आग्रह कर रही है कि वो उसकी फीस में रियायत दे दें ताकि पढाई का उसका सपना पूरा हो सके !

इसी बीच ताब जहाँ की कहानी विश्व भर में वायरल होने के बाद एक ब्रिटिश आर्गेनाईजेशन और अफ़ग़ान यूथ एसोसिएशन ने मिलकर ताब जहाँ की आगे पढ़ाई के लिए फण्ड रेज़िंग कैंपेन चलाया है, जिसका नाम दिया गया है 'GoFundMe' !
ख़ुशी और राहत की बात ये है कि ताब जहाँ के लिए चलाये जा रही 'GoFundMe' मुहिम के तहत अभी तक 1125 पाउंड्स जमा हो चुके हैं, जबकि इस मुहिम का टारगेट है 5000 पाउंड्स !!
ट्वीटर पर ताब जहाँ के लिए लोग जुट गए हैं, और #JahanTaab हैशटैग ट्रेंड करने लगा है :-

'GoFundMe' मुहिम को आप इस लिंक पर जाकर देख सकते हैं, और मदद भी कर सकते हैं :-

इस मुहीम को शुरू करने वाले कहते हैं कि अपने दो महीने के बच्चे को गोद में लिए तालीम के लिए जद्दो जहद करती इस ताब जहाँ को अपने ख्वाब पूरे करने में कोई रुकावट नहीं आना चाहिए, इसके लिए हम ताब जहाँ की फीस के लिए मुहीम चला रहे हैं, साथ ही मुहीम से जुड़े लोग अफ़्ग़ानिस्तान के क्लब्स, यूनिवर्सिटीज और संस्थाओं से भी इस मुहीम को कामयाब बनाने के लिए आगे आने का आग्रह कर रहे हैं !
दुनिया में किसी को तालीम घर के दरवाज़े पर मिल जाती है, ऑनलाइन पढ़ सकते हैं, और ताब जहाँ जैसी कुछ ऐसी भी हैं जिन्हे तालीम के लिए हर क़दम पर जद्दो जहद करना पड़ती है !!
ताब जहाँ के इस जज़्बे को दिल से सलाम, और दुआ करता हूँ कि अल्लाह उसे अपने मक़सद में कामयाबी अता फरमाए, उसके ख्वाब पूरे हों !

मंगलवार, 20 मार्च 2018

जानिये 'स्टॉकहोम सिंड्रोम' के बारे में !!


भारत का तो मुझे ज़्यादा मालूम नहीं, लेकिन पाकिस्तान में मुर्गी का गोश्त बेचने वाले हर कसाई की दुकान पर एक बड़ा सा लोहे का पिंजड़ा पड़ा रहता है, ये पिंजड़ा इतना भारी होता है कि चुराना भी मुश्किल होता है !

सुबह-सुबह मुर्गियों से भरा एक ट्रक आता है और खाली पिंजड़ा ऊपर तक भर जाता है. और फिर कसाई का हाथ इस पिंजड़े में आता है जाता है, जाता है आता है !

वो अपनी मर्ज़ी की मुर्गी नंगे हाथ से पकड़कर बाहर निकालता है !

एक भी मुर्गी उसके हाथ पर चोंच नहीं मारती, बस डरकर सहम जाती हैं और फिर शायद ये सोचकर नॉर्मल हो जाती है कि हो सकता है हमारी बारी न आए !

लेकिन फिर हर शाम को पिंजड़ा खाली होता और सुबह फिर भर जाता है !

कुछ लोग बंदी बनने के बावजूद भी विरोध करना पसंद नहीं करते, बल्कि कई को तो बंदी बनाने वाले से प्यार हो जाता है !
पढ़े-लिखे लोग इसे स्टॉकहोम सिंड्रोम कहते हैं. पर मुझे लगता है कि ये सिंड्रोम सबसे ज़्यादा हमारे देशों में ही पाया जाता है !
(वुसतुल्लाह खान साहब के इसी ब्लॉग से) :-
https://www.bbc.com/hindi/international-38790379

अब आगे जानिये इस 'स्टॉकहोम सिंड्रोम' के बारे में :-
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'स्टॉकहोम सिंड्रोम' नाम मिला था 23 अगस्त 1973 की एक घटना की वजह से !

उस दिन स्वीडन में एक बैंक डकैती हुई थी, दो लोग मशीन गन ले के घुसे थे, घुसते ही बोले कि पार्टी तो अभी शुरू हुई है. बैंक के लोग डर गए, फिर सोचे कि ये लोग चले जायेंगे कुछ देर में, पर हुआ कुछ ऐसा कि मामला 6 दिन खिंच गया, 23 अगस्त से लेकर 28 अगस्त तक, बैंक के स्टाफ बैंक के ही वॉल्ट में बंधुआ बने बैठे थे, और डकैत पुलिस से मोलाई कर रहे थे !

बाहर लोग चिंतित थे कि अन्दर के स्टाफ कितने दर्द में होंगे. क्या सोच रहे होंगे, पर जब स्टाफ बाहर आये तो उनके मन में कोई गुस्सा नहीं था !

बल्कि उलटे डकैतों से उनको बड़ी सहानुभूति हो गई थी. इतनी कि एक स्टाफ ने तो एक डकैत से सगाई कर ली, एक दूसरे स्टाफ ने चंदा लगाकर फंड बनवाया. ताकि डकैतों का केस लड़ा जा सके !

इसके लक्षण किडनैपिंग के अलावा दूसरी बातों में भी देखे जाते हैं. जैसे इंजीनियरिंग के छात्रों में. जब आप पूछेंगे कि रैगिंग कैसी लगती थी ? तो बोलेंगे कि सर, बड़ा मजा आता है, सीनियर लोगों ने जिंदगी जीना सिखा दिया ! जबकि सच्चाई ये थी कि उनको कई बार नंगा कर पीटा भी जाता था !

फिर ये लक्षण रिश्तों में भी देखे जाते हैं, कई जगह हम लोग ये देखते हैं कि पति-पत्नी में मार मची हुई है, हम सोचते हैं कि ये लोग एक-दूसरे से अलग क्यों नहीं हो जाते. क्योंकि कुछ भी जाए, दोनों साथ ही रहते हैं !

इस सिंड्रोम के चलते लोगों को अपने abusers (कष्ट देने वाले) से ही लगाव हो जाता है ! यह एक सुनियोजित ब्रेन वाशिंग रणनीति भी कही जाती है !

और यही लक्षण अब राजनीति में भी परिलिक्षित होते नज़र आने लगे हैं, कभी गैस तो कभी पेट्रोल तो कभी डीज़ल की कीमतें बढ़ती हैं, कभी टैक्स बढ़ता है, तो कभी रेल किराए बढ़ते हैं लोग महंगाई, भुखमरी, नोटबंदी, बेरोज़गारी, साम्प्रदायिकता, किसानों की आत्म हत्याएं और बढ़ती असहिष्णुता के कष्ट उठाने के बावजूद लोग सरकार के गुण गाते नज़र आते हैं !!

'स्टॉकहोम सिंड्रोम' के बारे में विस्तार से यहाँ पढ़ सकते हैं :-
http://www.bbc.com/news/magazine-22447726

सोमवार, 19 मार्च 2018

'वो' मुसलमान और 'हम' मुसलमान !!


शायद ही कोई होगा जिसने ये ख़बर नहीं पढ़ी होगी कि यूरोप और अमरीका में इस्लाम तेज़ी से फ़ैल रहा है, और इस्लाम ही एक ऐसा मज़हब है जिसे लोग सबसे ज़्यादा अपना रहे हैं, 2010 में अमरीका में हुई धार्मिक संगणना के आंकड़ों के अनुसार अमरीका में सबसे तेज़ी से फैलने वाला मज़हब इस्लाम है :-
http://www.nydailynews.com/news/national/number-muslims-u-s-doubles-9-11-article-1.1071895
और सबसे ख़ास बात ये कि 9 /11 हमलों के बाद इसमें काफी तेज़ी आयी है !
यही कुछ हाल यूरोप का भी है, पीयू रिसर्च के आंकड़ों के अनुसार यूरोप में भी इस्लाम तेज़ी से फ़ैल रहा है, यूरोपियन यूनियन जिसमें (नॉर्वे और स्विट्ज़रलेंड भी आता है) के देशों में मोटे तौर पर इनका प्रतिशत 3.8% से बढ़कर 4.9% पहुँच गया है :-
यह सब बदलाव और तेज़ी 9 /11 हमलों के बाद ही हुई है, आज अमरीका में ही मुसलमनो की तादाद 9 /11 हमलों के बाद से दोगुनी है :-

इसके पीछे की वजहों पर नज़र डालेंगे तो कई फैक्टर्स नज़र आएंगे, 9 /11 हमलों के बाद अमरीका और यूरोप में मुसलमानो के खिलाफ नफरत का पहाड़ टूट पड़ा, सैंकड़ों गिरफ्तारियां हुईं, इनके खिलाफ नस्लीय हिंसा हुई, मस्जिदें जलाई गयीं, और इस्लामोफोबिया का क़हर पूरे अमरीका और यूरोप के मुसलमानो पर टूट पड़ा !

यहाँ बात इस्लामोफोबिया की आयी है तो इस पर भी रुक कर नज़र डाल लीजिये, इस लफ्ज़ को पैदा करने वाले और इसे शातिराना ढंग से दुनिया भर में फ़ैलाने के पीछे कई दक्षिणपंथी अमरीकी, इज़राईली और नव नाज़ी ग्रुप्स काम कर रहे हैं !
सेंटर फॉर अमेरिकन प्रॅाग्रेस द्वारा जारी एक रिपोर्ट के मुताबिक अमेरिका में मुसलमानों का ख़ौफ़ फैलाने के लिए चलाये गये दस साल लंबे अभियान के पीछे एक छोटा सा समूह है जिसमें एक दूसरे से ताल्‍लुक रखने वाले कुछ संस्‍थान, ‘थिंक टैंक’, बुद्धिजीवी और ‘ब्‍लॉगर’ शामिल हैं !
‘फीयर, इंक: द रूट ऑफ द इस्‍लामोफोबिया नेटवर्क इन अमेरिका’ शीर्षक वाली 130 पन्‍नों की रिपोर्ट में सात सस्‍थाओं की शिनाख्‍़त की गई है जिन्‍होंने चुपचाप 4 करोड़ 20 लाख डालर ऐसे व्‍यक्‍तियों और संगठनों को दिये जिन्‍होंने वर्ष 2001 से 2009 के बीच मुसलमानों के खिलाफ इस्लामोफोबिया मु‍हिम चलाई !
इनमें ऐसी वित्‍तपोषी संस्‍थायें शामिल हैं जो लंबे समय से अमेरिका में चरम दक्षिणपंथ से जुड़ी हुई हैं और कई यहूदी पारिवारिक संस्‍‍थायें भी शामिल हैं जिन्‍होंने इज़राइल में दक्षिणपंथी और उपनिवेशी समूहोंका समर्थन किया है, इनमें से ‘फीयर, इंक' की रिपोर्ट के अनुसार मुख्य कुछ इस तरह से हैं :-
Some of these foundations and wealthy donors also provide direct funding to anti-Islam grassroots groups. According to our extensive analysis, here are the top seven contributors to promoting Islamophobia in our country:
1 Donors Capital Fund.
2 Richard Mellon Scaife foundations.
3 Lynde and Harry Bradley Foundation.
4 Newton D. & Rochelle F. Becker foundations and charitable trust.
5 Russell Berrie Foundation.
6 Anchorage Charitable Fund and William Rosenwald Family Fund.
7 Fairbrook Foundation.
इस कुटिल षड्यंत्र ‘फीयर, इंक' के बारे में विस्तार से आप यहाँ पढ़ सकते हैं :-
और यहाँ भी पढ़ सकते हैं :-
इस कुटिल इस्लामोफोबिया मुहिम को ऑक्सीजन तब मिली जब अमरीका में 9 /11 हमला हुआ, अमरीका सहित यूरोप में मुसलमानों के खिलाफ नफरत और हिंसा का बाज़ार गर्म हो गया, इस 'इस्लामोफोबिया मुहिम' के पीछे काम कर रहे लोगों ने इसे खूब भुनाया !
इनकी इस मुहिम को झटका तब लगा जब 2011 में नॉर्वे में आंद्रे ब्रेविक ने ऐसे ही इस्लामॉफ़ोबिक ग्रुप्स की नफरत से प्रेरित होकर 79 बेक़ुसूर लोगों को मौत की घाट उतार दिया :-
अमरीका और यूरोप सहित कई देशों में आंतरिक तौर पर इस तरह के मुस्लिम विरोधी, आब्रजक विरोधी, नस्ली हिंसा फ़ैलाने वाले दक्षिणपंथी संगठनों पर रोक और लगाम लगाने की कोशिशें की जाने लगीं !
अब वापस आते हैं अमरीका और यूरोप में तेज़ी से फैलते इस्लाम और इसकी वजहों के बारे में, 9 /11 हमलों के बाद जब दुनिया भर में मुसलमानो के खिलाफ नफरत का बाज़ार गर्म था, तब वहां के मुसलमानों ने बहुत सब्र और तहम्मुल से काम लिया, ऐसी हज़ारों कहानियां हैं जिसमें मुसलमानो ने उस मुश्किल दौर में इस नफरती लहर से सलीक़े से टक्कर ली !
उन्होंने वहां के लोगों के गुस्से और नाराज़गी को समझा, उनके साथ उस दुःख की घडी में खड़े हुए, नफरत को दरकिनार करते हुए दीन पर क़ायम रहकर उन्हें अम्नो अमान का पाठ पढ़ाया, अपने आमाल से उन्हें दिखाया कि जो इस्लाम की भ्रांतियां वो मुसलमानो के खिलाफ दिमाग में लिए घूम रहे हैं वो सही इस्लाम नहीं है सही इस्लाम हमसे सीखिये !
9 /11 के हमले के बाद भी अमरीका और यूरोप में कई और आतंकी हमले हुए, और वहां के मुसलमान हर बार वहां के लोगों के निशाने पर आये, मगर मुसलमानो ने हार नहीं मानी, वो हर बार इस नफरत की काट करने मिलकर एकजुट होकर हर मुल्क में एक साथ खड़े हुए, अपने खिलाफ लोगों के दिलों से इस्लाम के बारे में गलतफहमियां दूर कीं !
कहीं भी ले लीजिये, चाहे अमरीका हो, ऑस्ट्रेलिया हो, ब्रिटैन हो, स्पेन हो, फ़्रांस हो, जर्मनी हो, कहीं भी इस तरह की इस्लामॉफ़ोबिक लहर उठी है तो वहां के मुसलमानों ने इसे असल इस्लाम से ही ध्वस्त किया है !
ब्रिटैन के मुसलमानो को ही लीजिये, ब्रिटेन में करीब 30 लाख मुसलमान हैं जो देश की कुल जनसंख्या का 5% है, वहां की मुस्लिम कौंसिल ऑफ़ ब्रिटेन ने 2015 में 20 मस्जिदों को लेकर #VisitMyMosque 'मेरी मस्जिद में तशरीफ़ लाईये' अभियान शुरू किया था, और तब से ये लगातार जारी है, अब इस अभियान में ब्रिटेन की 200 से ज़्यादा मस्जिदें शामिल हो गयीं हैं, इस मुहिम के बारे में आप इस लिंक पर देख सकते हैं :-

यहाँ भी पढ़ सकते हैं :-
इस 'Visit My Mosque' मुहिम का मक़सद है इस्लामी नज़रिये से ही 'इस्लामोफोबिया' की काट, जितनी मस्जिदें हिस्सा लेती हैं उन सब में एक दिन 'ओपन डे' रखा जाता है, इस दिन मस्जिदों के दरवाज़े सभी के लिए खुल जाते हैं, मस्जिद में आने वाले लोगों के लिए चाय नाश्ते का इंतेज़ाम रहता है, उन्हें नमाज़ और उसके तरीकों के बारे में बताया जाता है, मस्जिद का दौरा कराया जाता है, साथ ही इस्लाम के लिए उनके दिल में बसी दुर्भावनाओं और भ्रांतियों पर खुलकर चर्चा होती है और उनको दूर किया जाता है !
'Visit My Mosque' मुहिम ब्रिटेन में सभी वर्गों का ज़बरदस्त समर्थन मिल रहा है, इससे आप अंदाज़ा लगा सकते हैं कि मुसलमान चाहें तो अपने आमाल और नज़रिये से किसी भी गैर मुस्लिम को इस्लाम की सही तस्वीर पेश कर सकता है !
पोस्ट काफी लम्बी हो गयी है, इसका मक़सद या निचोड़ यहाँ आखरी दो पैराग्राफ में सामने रखने की कोशिश करता हूँ, सबसे ज्यादा मुस्लिम आबादी वाले देशों की सूची में भारत अभी इंडोनेशिया के बाद दूसरे नंबर पर है, अमरीका और यूरोप के मुसलमानो और भारत के मुसलमानो के बीच अगर तुलनात्मक तौर पर देखें तो वहां के मुक़ाबले यहाँ गैर मुस्लिमों द्वारा इस्लाम क़ुबूल करने वालों की तादाद अभी भी उनके मुक़ाबले कुछ भी नहीं है, इसकी वजहों पर ग़ौर कीजिये !
हम पाएंगे कि जहाँ वो लोग गैर मुस्लिमों के लिए मस्जिदों के दरवाज़े खोल रहे हैं, इस्लाम की सही तालीम गैर मुस्लिमों तक पहुंचा रहे हैं, वहीँ भारत के मुसलमान मस्जिदों के दरवाज़े फ़िरक़ों के हिसाब से खोल और बंद कर रहे हैं, मस्जिदों की दीवारों पर बोर्ड लटका रहे हैं कि फलां फ़िरक़े वालों के लिए मस्जिद खुली है, और फलां के लिए बंद है !

सोशल मीडिया को ही लीजिये, यहाँ हम मुसलमानों ने क्या कमी रखी है ? सियासी नज़रिये में फ़र्क़ होते ही एक मुसलमान दूसरे मुसलमान को मुनाफ़िक़, नास्तिक जैसे तमगे दे जाता है, फ़िरक़े बाज़ी, मसलक बाजी मुसलमानो का आम शुगल हो गया है, जुलाहे, सय्यद, पठान मुद्दों पर ही आपस में एक दूसरे पर थूक रहे हैं और गैर मुस्लिम इस तमाशे को देखकर न सिर्फ हंस रहे हैं बल्कि हमारे कारनामों के ज़रिये पेश किये जा रहे इस्लाम के प्रति अपना नजरिया भी बना रहे हैं, ऐसे में कौन इस्लाम क़ुबूल करेगा ??

मान लीजिए कर भी लिया तो कल को उससे मस्जिद में घुसने से पहले फ़िरक़ा पूछा जायेगा, वो मस्जिदों के दरवाज़ों पर लगे उन नोटिस बोर्ड्स को पढ़कर हैरान रह जायेगा जिसमें फलां फ़िरक़े की एंट्री है और फलां फ़िरक़े की नहीं, यही फ़र्क़ है 'उन' मुसलमानों में और 'हम' मुसलमानों में !!
इस्लाम अपने आप में न सिर्फ एक मज़हब है बल्कि जीवन यापन का मुकम्मल तरीक़ा भी है, इस्लाम को गैर मुस्लिम उनके पहनावे, दाढ़ी, टोपी या बुर्क़े से नहीं समझते बल्कि मुसलमान के आमाल से पहचानते हैं जो कि इस्लाम की रूह ही है !
इस्लाम में अमल को ही अहमियत दी गयी है, अगर आपके पास इल्म है और अमल नहीं तो बेकार है, और दुनिया से इंसान अपने साथ अपने आमाल ही लेकर जाता है !
उम्मीद है मेरी इस लम्बी पोस्ट का मक़सद आप तक पहुँच गया होगा, तो आज से तय कर लीजिये कि हम अपने आमाल से गैर मुसलिमों को कौनसा इस्लाम पेश करना चाहते हैं !!

शनिवार, 17 मार्च 2018

विश्व में अधिकांश देश सोशल मीडिया पर हेट स्पीच के खिलाफ तत्पर, मगर भारत ??



अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए सोशल मीडिया विश्व में बहुत बड़ी भूमिका निभा रहा है, हर साल सोशल मीडिया पर लाखों करोड़ों लोग इस मंच से जुड़ते हैं, मगर जहाँ ये मंच लोगों को कनेक्ट करने में अहम् भूमिका निभाने के लिए रोल अदा कर रहा है, वहीँ विश्व में पिछले सालों में इसका दुरूपयोग करने के मामलों में बड़ी तेज़ी से वृद्धि हुई है !

विश्व में सोशल मीडिया के प्रसार के साथ घृणा और हिंसा के प्रसार में भी उसका इस्तेमाल होने लगा है, कई देश इस दुरूपयोग से चिंतित हैं और इसके खिलाफ तत्परता से संज्ञान ले रहे हैं, दुनिया के दूसरे देशों की तरह जर्मनी भी सोशल मीडिया पर नफरत फैलाने वालों से तंग है, और इसके खिलाफ कड़े क़दम उठाना शुरू भी कर दिए हैं !


इसी के चलते जर्मनी की धुर दक्षिणपंथी महिला सांसद को नए साल की पूर्व संध्या पर सोशल मीडिया पर मुस्लिम विरोधी भड़काऊ टिप्पणी करने पर पुलिस जांच का सामना करना पड़ रहा है !

ऐसे नफरती गैंग के लोगों को काबू करने के लिए जर्मनी में पहली जनवरी से एक नया कानून लागू किया गया, इस कानून के मुताबिक सोशल मीडिया वेबसाइटों ने अगर रिपोर्ट करने के बाद भी 24 घंटे के भीतर हेट स्पीच वाली सामग्री को नहीं हटाया तो उन पर पांच करोड़ यूरो (यानि 380 करोड़ रुपए) का जुर्माना लग सकता है :-
http://www.bbc.com/news/technology-42510868

इसी क़ानून के डर के चलते ट्विटर ने झटपट कई मुस्लिम विरोधी और प्रवासी विरोधी ट्वीट हटा दिए थे !

जर्मनी की इस पहल के बाद फ़्रांस के राष्ट्रपति इमानुअल मेक्रोन ने भी सोशल मीडिया के दुरूपयोग और ऑनलाइन फेक न्यूज़ के खिलाफ कड़े क़दम उठाये हैं :-
http://en.rfi.fr/france/20180104-new-media-law-france-target-fake-news-and-social-media-meddling 


ब्रिटैन ने भी फेसबुक के साथ मिलकर सोशल मीडिया पर पांव फैला रहे नफरती गैंग्स और उनके घृणित एजेंडों पर लगाम लगाने की पहल की है और Britain First जैसे दक्षिणपंथी संगठन और उसके पदाधिकारियों के अकाउंट ससपेंड कर दिए हैं :-
https://www.aljazeera.com/news/2018/03/anti-islam-britain-group-banned-facebook-180314134502964.html


13 मार्च 2018 को अल-जज़ीरा ने ही खबर दी थी UN फैक्ट फाइंडिंग टीम ने कहा है कि म्यांमार में रोहिंग्या मुसलमानो के क़त्ले आम में फेसबुक ने बड़ा रोल अदा किया है :-
https://www.aljazeera.com/news/2018/03/facebook-role-rohingya-genocide-180313161609822.html 

श्रीलंका में अतिवादी बौद्धों और मुसलमानो के बीच हुए दंगों में भी इसी फेसबुक ने रोल अदा किया था, श्रीलंकन पुलिस ने बताया था कि सोशल मीडिया ने इस हिंसा को बढ़ने में अहम् रोल अदा किया था, इसी के चलते वहां सोशल मीडिया पर रोक लगा दी गयी थी जिसे सोशल मीडिया साइट्स के आश्वासन के चलते एक हफ्ते बाद उठाया गया :-
http://www.business-standard.com/article/international/sri-lanka-lifts-ban-on-facebook-after-assurance-from-social-media-giant-118031500791_1.html 

अरब देशों में वैसे भी सोशल मीडिया पर दुष्प्रचार, हेट स्पीच और हिंसक पोस्ट्स के खिलाफ कड़े क़ानून हैं, अभी मार्च 2017 की ही बात है कि दुबई में मालाबार गोल्ड एंड डायमंड में कार्यरत एक भारतीय को दुष्प्रचार करने ट्रॉलिंग करने के आरोप में गिरफ्तार कर उस पर 250,000 दिरहम का जुर्माना लगा कर भारत डिपोर्ट कर दिया गया था :-
http://www.qatarday.com/news/international/-deportation-dh250000-fine-for-facebook-abuse/47629 


कई देशों के कई उदाहरण है, जहाँ सोशल मीडिया पर हेट स्पीच, दुष्प्रचार, धार्मिक नफरत फ़ैलाने से तंग आकर कड़े क़ानून और सज़ाएं दी जा रही हैं, मगर भारत में इसका उल्टा हो रहा है, सोशल मीडिया पर नफरती गैंग्स को आशीर्वादों, और फॉलोविंग से नवाज़ा जा रहा है !

भारत में सोशल मीडिया का दुरूपयोग, इस मंच से नफरत, साम्प्रदायिकता फ़ैलाने, दुष्प्रचार करने, अफवाहें फ़ैलाने के लिए खुल कर इस्तेमाल हो रहा है, मुज़फ्फरनगर दंगा किसे याद नहीं है, एक फेक वीडियो को वायरल कर पूरे यूपी को दंगों की आग में झोंक दिया गया था :-
https://www.hindustantimes.com/india/muzaffarnagar-riots-fake-video-spreads-hate-on-social-media/story-WEOKBAcCOQcRb7X9Wb28qL.html


इसके अलावा भी हज़ारों उदाहरण हैं, जहाँ इस मंच के ज़रिये झूठ, साम्प्रदायिकता, दुष्प्रचार, नेताओं के चरित्र पर झूठे लांछन, फ़र्ज़ी और फोटोशॉप खबरे  समाज और सौहार्द को तोड़ने हिंसा फैलाई गयी है, और ये क्रम जारी है !

सबेस दुखद बात ये है कि कई मामलों में खुद सत्ता पर क़ाबिज़ सियासी दल और उनके आईटी सेल इसमें भूमिका निभाते पाए गए, सोशल मीडिया पर नकेल या दुरूपयोग के लिए बने क़ानून का इस्तेमाल सत्ता में बैठे लोग, राजनैतिक प्रतिद्वंदियों और विरोधियों को डराने, दमन करने के लिए इस्तेमाल करते हैं !


अब भी अगर विश्व में अन्य देशों की तरह भारत में सोशल मीडिया के इस निरंकुश दुरूपयोग पर नकेल नहीं कसी गयी तो लोगों को आपस में जोड़ने के लिए बना ये मंच लोगों को तोड़ने, समाज, सौहार्द, सद्भाव, और लोकतंत्र के लिए बड़ा खतरा बनकर खड़ा हो जायेगा, तब तक देर हो चुकी होगी !!