गुरुवार, 24 मार्च 2011

valentine day + cricket = बाज़ार की बल्ले बल्ले, शेष खेल जूते तल्ले !


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भारतीय प्रचार माध्यम-टीवी समाचार चैनल और समाचार पत्र-पूरी तरह से बाज़ार प्रबंधकों को इशारे पर चलते हैं इस बात का पता सन् 2011 के वेलेंटाईन डे पर चल गया। भारत में कथित रूप से विश्व कप क्रिकेट प्रतियोगिता होने वाली है। कथित रूप से इसलिये कहा कि विश्व के पांच ताकतवर देशों में से केवल एक इसमें खेल रहा है। राजनीति, खेल, व्यापार तथा सांस्कृतिक रूप से पूरे विश्व में अपनी ताकत दिखाने वाले यह पांच देश हैं, अमेरिका, चीन, ब्रिटेन, सोवियत संघ तथा फ्रांस हैं जिसमें केवल ब्रिटेन की टीम इंग्लैंड के नाम से आती है। प्रसंगवश इस टीम की स्थिति बता दें। इस टंीम का नाम था एम. सी.सी. और यह इसी नाम से भारत आती थी पर कहा इसे इंग्लैंड की टीम जाता था। बीसीसीआई की टीम थी जो भारत के नाम से खेलती थी। एम.सी.सी. का का मतलब था मैनचेस्टर क्रिकेट क्लब और जिसका मुख्यालय लार्डस में था। बीसीसीआई का मतलब था भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड-सीधे कहें तो यह भी एक तरह का क्लब है क्योंकि खेलों की दृष्टि से ओलम्पिक तथा एशियाड में भारत की तरफ से प्रतिनिधित्व करने वाले ओलम्पिक संघ से इसका कभी कोई वास्ता नहीं रहा।
आर्थिक रूप से सक्षम होने के कारण भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड ने ऐसा जलवा पेला कि सभी उसकी राह पर चल पड़े। कहीं क्लब तो कहीं एसासिएशन शब्द जोड़कर क्रिकेट के नियंत्रण का दावा करने वाली संस्थाऐं अपने अपने देशों की प्रतिनिधि दिखने लगीं। क्रिकेट के अंतराष्ट्रीय गठजोड़ या गिरोह का परिणाम यह हुआ कि इसे कालांतर में भारतीय बाज़ार की शक्ति से संपन्न सौदागरों ने सभी संस्थाओं पर अपना नियंत्रण कर लिया।
खेल तो पैसा रहा है किक्रेट तो बस चल रहा है।
पिछले कई बरसों से भारतीय प्रचार माध्यम वेलेटाईन डे पर जमकर धांसू प्रचार करते हैं ताकि देश के युवा लोग भूलें नहीं और धनपतियों के बने बार, होटल, मॉल तथा फिल्म प्रदर्शन केंद्र गुलजार रहें। वेलेंटाईन डे के समर्थक नारीवादी बुद्धिजीवी और धर्म समर्थक विद्वानों की बहसें इंटरनेट, टीवी समाचार चैनलो और समाचार पत्रों के दिखाई देती हैं। ऐसे में एक बात ही समझ में आती है कि वेलेंटाईन डे के विरोधी और समर्थक कहीं फिक्सिंग डिस्कशन-प्रायोजित पूर्वनिर्धारित बहस-तो नहीं कर रहे। अगर टीवी चैनल और समाचार पत्र वेलेटाईन डे का प्रचार न करें तो शायद ही कोई याद रख पाये। एक बार तो यह लगता है कि प्रचार माध्यम चर्चा इसकी चचा करें और फिर भी युवा वर्ग न सुनें तो यह संभव है पर अगर विरोधी इस अवसर पर लट्ठमार दिवस या धर्म स्मरण दिवस का आयोजन करें तो फिर इसकी याद न आये इसकी संभावना कम ही है। इस बार भी हमें वेलंेटाईन डे की याद नहंी रही वह तो टीवी चैनल वालों ने किसी समूह का लट्ठमार या डंडा दिवस मनाये जाने का समाचार दिया तब पता लगा कि आज वेलेंटाईन डे है।
हालांकि कल के एक समाचार में टीवी चैनलों और अखबारों ने अपने तरीके से याद दिलाया था। एक समाचार था जहां एक युवा लड़के ने अपनी गोली मार ली क्योंकि उसकी प्रेमिका की मौत होने की खबर उसे मिल गयी। इस मौत के पीछे प्रेमिका के परिवार वाले जिम्मेदार माने जा रहे हैं और घटना के बाद अपने घर से फरार हैं। ऐसी एक दो घटनायें और भी आयीं और सभी के साथ यही बताया कि वेलेंटाईन डे से पूर्व प्रेम का कत्ल हो गया। मतलब हमारे समाचार पत्र और टीवी चैनलों को विद्वान यह मानते हैं कि यह यौन संबंध से जुड़ा प्रेम दिवस ही है। बाज़ार ने प्रचार प्रबंधकों की मति हर ली है और व्यक्तिगत परिलब्धियों की बहुता ने उनके सारे भाषाई गणित बिगाड़ दिये हैं। न उनको हिन्दी का पता है और अंग्रेजी का तो भगवान ही मालिक है।
यह इष्ट या शुभेच्छु दिवस है-एक हिन्दी विद्वान ने बताया था। वह विद्वान है संदेह नहीं पर लिपिक नुमा लेखन करने के बावजूद वह साहित्य के रचयिता नहीं है। कहीं उनके पास अंग्रेजी शब्दों का हिन्दी अनुवाद करने वाला कोई प्रमाणिक कोष है जिसका उन्होंने गहन अध्ययन किया है। हिन्दी के सामाजिक कार्यक्रमों में उनकी गतिविधियों पर हमारी भी दृष्टि रही है।
एक दिन हमसे उन्होंने कहा-‘हिन्दी में बेहूदे व्यंग्य लिखकर अपने आपको बहुत बड़ा साहित्यकार समझते हो, जरा बताओ कि वेलेंटाईन डे का मतलब क्या है?’
हमने उनसे कृत्रिम क्रोध में कहा-‘हम क्या जानें? लेखक हिन्दी के हैं न कि अंग्रेजी के! फिर यह फालतु विषय लेकर हमारे सामने लेकर आप आये कैसे? एकाध व्यंग्य कहीं आप पर लिख दिया तो फिर यह मत कहना कि ऐसा या वैसा कर दिया।’
ऐसा कहकर हमने जोखिम मोल लिया था क्योंकि उन पर व्यंग्य लिखने का मतलब था कि एक फ्लाप व्यंग्य रचना लिखकर बदनाम होना। बहरहाल वह डर गये और हंसते हुए बोले-‘भई, व्यंग्य मत लिखना हम तो आपकी जानकारी बढ़ाने के लिये बता रहे हैं कि वेलेंटाईन डे का मतलब है ‘शुभेच्छु दिवस’।’’
हम प्रसन्न हो गये। बहरहाल वह हमसे वरिष्ठ थे और उन्होंने आठ साल पहले बताया था कि यह केवल लड़के लड़की के प्रेम तक सीमित नहीं हैं। इस पर आप अपने किसी भी इष्ट का अभिनंदन या अभिवादन कर उसे मिल सकते हैं। मिलकर पार्टी वगैरह कर सकते हैं।
उस समय प्रचार माध्यमों की ऐसी हालत नहीं थी पर जब लगातार इसका व्यवसायिक उपयोग देखा तब चिंतन की कीड़ा कुलबुलाने लगा। यह प्रचार माध्यम ही है जो तमाम तरह की कहानियों से खालीपीली जोड़ देते हैं। जिस प्रेमिका की हत्या हुई और प्रेमी ने आत्महत्या की उसकी प्रेमकथा की शुरुआत भी पिछले वेलेंटाईन डे पर होना बताया। अब इसका प्रमाण ढूंढने कौन जायेगा? क्रिकेट की तरह वेलेंटाईन डे पर भी सब चलता है
बहरहाल इस बार बाज़ार की जान विश्वकप क्रिकेट टूर्नामेंट में अटकी है और प्रचार माध्यम बीसीसीआई की उसमें भाग लेने वाली टीम के सदस्यों को देश का महानायक बनाने पर तुले हैं। संतों के हाथ में बल्ला पकड़ाकर उनको टीम इंडिया को शुभकामनायें दिलवा रहे हैं। शायद इसलिये उसने वेलंटाईन डे के लिये उनको समय कम मिला। बहरहाल फिर भी कुछ घटनाओं को उससे जोड़कर उन्होंने अपना बाज़ार के प्रति कर्तव्य तो निभाया।
यह मेरे व्यक्तिगत विचार हैं, किसी की भावनाएं आहत हुयी हो तो क्षमा प्रार्थी हूँ ......

बुधवार, 23 मार्च 2011

अपने डाटा के लिए देनी होगी फिरौती ?

डिजिटल क्रांति की एक विशेषता यह है कि वह बहुत सूक्ष्म तरीके से भाषा का औपनिवेशीकरण करती है। तकनीक ने शब्दों का अपहरण कर उन्हें नए अर्थ दे दिए हैं। मिसाल के तौर पर फेसबुक पर ‘फ्रेंड’ शब्द किसी भी रिश्ते के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है। इसी तरह पहले परिंदे ‘ट्वीट’ करते थे, अब मनुष्य भी ट्विटिंग करने लगे हैं। एक और शब्द है ‘क्लाउड’। इसका संबंध मौसम या बारिश से नहीं, बल्कि उस ऑनलाइन डाटा से है, जिसका इस्तेमाल हम अपने कंप्यूटर को ओवरलोड होने से बचाने के लिए करते हैं। म्यूजिक, फोटो, डॉक्यूमेंट, हर चीज क्लाउड पर स्टोर की जाती है। क्लाउड को दुनिया में कहीं से भी एक्सेस किया जा सकता है और अब तो मोबाइल फोन पर भी इसका उपयोग संभव है। लेकिन इसका एक नुकसान भी है।

इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि हमारे तमाम डाटा नष्ट नहीं हो जाएंगे। यहां तक कि हमारे डाटा का अपहरण कर उन्हें छुड़ाने के लिए फिरौती भी मांगी जा सकती है। ऑनलाइन सेवाएं मुहैया कराने वाली कंपनियों के व्यावसायिक मानक बहुत अस्थिर किस्म के होते हैं। अगर हमारे मूल्यवान दस्तावेज सहसा नष्ट हो जाएं तो हम किस प्रणाली के तहत उनके लिए दावा करेंगे? हम देख सकते हैं कि स्थायी दस्तावेज या ‘हार्ड कॉपी’ की जरूरत अब कम होती जा रही है। एक ऐसी पीढ़ी उभरी है, जो अपने दस्तावेजों को ऑनलाइन रखना ही पसंद करती है। लेकिन क्या इस तरह ‘क्लाउड्स’ के भरोसे सब कुछ छोड़ा जा सकता है ? 

देखिये इस डिजिटल क्रांति में और क्या क्या देखने को मिलने वाला है......!!

(साभार)

मंगलवार, 22 मार्च 2011

अमेरिका की दोहरी नीति ~~~~~

लीबिया पर अमेरिका, ब्रिटेन, और फ्रांस द्वारा किये जा रहे हमलों से यह साफ़ ज़ाहिर हो जाता है, की यह तीनो देश सिर्फ गद्दाफी के पीछे पड़े हैं, उनका यह कहना है की गद्दाफी की सेना ने निर्दोष नागरिकों को मारा है, और हम लीबियाई नागरिकों की हिफाज़त कर रहे हैं,  मगर क्या उनको येमन, बहरीन में नागरिकों के क़त्ल-ए-आम नज़र नहीं आ रहे ?
                               संयुक्त राष्ट्र की स्वीकृति और अस्वीकृति को आज कौनसा यूरोपियन देश मानता है, इराक युद्ध के समय से अब तक यह संस्था इन देशो की कठपुतली बनी हुई है,  हाँ यह ख़ुशी की बात है की भारत ने अपना विरोध जल्द प्रकट कर दिया है, मगर शेष विश्व की प्रतिक्रिया, खासकर अरब देशों की, बड़ी शर्मसार कर देने वाली है I  किसी ने सही कहा है ~~~जिसकी लाठी, उसकी भैंस ~~~~!!

सोमवार, 21 मार्च 2011

अन्ना हजारे v /s बाबा रामदेव......

  भारत की जनता की मानसिकता की असल पहचान और उनकी नब्ज़ की सही पकड़ शायद बाबा रामदेव, आचार्य रजनीश, श्री श्री रविशंकर और आसाराम जी बापू के पास ही है, न की अन्ना हजारे, स्वामी अग्निवेश, टी.एन. शेषण और  किरण बेदी के पास नहीं है, तभी तो आज यह सब सच्चे देशभक्त और ईमानदार लोग अपने विचार और उद्देश्यों को साकार नहीं कर पा रहे, यहाँ तक की किरण बेदी जैसी icon  को अपनी बेटी को शिमला के कॉलेज में admission दिलाने के लिए कानूनी लड़ाई लड़ना पड़ी थी, अन्ना हजारे को सिर्फ आमरण अनशन से ही न्याय मिलता है, यह ज़मीन से जुड़े ईमानदार और देशभक्त लोग हैं, जिनके हाथ में  यदि देश की बागडोर आ जाये तो शायद कल देश के राजनीतिक नक्शे का हाल ही दूसरा हो.
मगर  क्योंकि हम न जाने क्यों आज २१ वीं सदी में भी इन मायावी चोलाधारी बाबाओं से सम्मोहित हैं, चाहे वोह बाबा रामदेव हों, आसाराम जी हों, श्री श्री हों, हम इनका अन्धनुकरण करे जा रहे हैं, और इनको मालामाल किये जा रहे हैं, कोई द्वीप खरीद रहा है, कोई हेलोकोप्टेर्स में घूम रहा है, कोई आर्ट्स ऑफ़ लिविंग के नाम पर लोगों को भ्रमित कर रहा है, क्या आर्ट्स ऑफ़ लिविंग की ज़रुरत केवल धनाड्य वर्ग को ही है, बाकी 60 % जनता को क्या आर्ट्स ऑफ़ लिविंग की कोई ज़रुरत नहीं है ?
                                        हमारी इस भ्रमित, लाचार और सम्मोहित मानसिकता का खामियाजा यह गिनती के समर्पित देशभक्त भुगत रहे हैं ! और यही कारण हैं की यह बाबा लोग आज बहुसंख्यक हो रहे हैं, और यह समर्पित देशभक्त अल्पसंख्यक होते जा रहे हैं, आज हमारे देश को इन बाबाओं से कही ज्यादा किरण बेदी, अन्ना हजारे, स्वामी अग्निवेश जैसे लोगों की बहुत आवश्यकता है, मगर मुझे नहीं लगता की ऐसा हो जायेगा, क्योंकि जो लोग इन बाबाओं को सर पर बिठा रहे हैं, वोह देश का कम प्रतिशत हैं, और जो देश  का अधिकांश प्रतिशत हैं उन को अपनी दो वक़्त की रोटी, और महीना चलाने की ज्यादा फ़िक्र है, न जाने कब हम जागेंगे और देश जागेगा !!

रविवार, 20 मार्च 2011

अमेरिका की दादागिरी,

अमेरिका की दादागिरी,
                                 जैसे इराक पर झपट्टा मारा था, ठीक वैसे ही अब लीबिया का नंबर लग गया है, पहले सद्दाम हुसैन ने बुश को मोका दिया था,  वैसे ही यूरोपियन देशों की आँख की किरकिरी बने गद्दाफी ने अपने नागरिकों पर हमला करके, अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस को भी वैसा ही मोका दे दिया है, जब की ठीक येही स्तिथि येमेन और बहरीन में भी है, बहरीन में तो सउदी सेनाएं विद्रोह को कुचलने के लिए भी पहुँच गयीं हैं, मगर वहां का  अमेरिका को कुछ भी नहीं दिख रहा,  उसे तो बस गद्दाफी और तेल दिख रहा है,  इस पूरे परिद्रश्य में पूरी ग़लती गद्दाफी की ही मानी जाएगी, समझदारी होती तो होस्नी मुबारक की तरह धन दोलत ले कर खाड़ी देश चला जाता,  मगर अब शायद मर कर ही निकलेगा. विनाशकाले विपरीत बुध्धि !!