अगर पिछली सदी से अब तक जमीन पर कोई सबसे बड़ा नाजायज कब्जा कहा जाएगा तो वो इजराइल का फिलिस्तीनी जमीन पर कब्जा होगा। 1948 में जंग करके इजराइल फिलिस्तीनी जमीन के करीब आधे से ज्यादा हिस्से पर काबिज हो गया। जर्मनी के हिटलर का कहर 60 लाख से ज्यादा यहूदियों पर टूटा था। दुनिया की हमदर्दी उनके साथ थी, सियासत हमदर्दी से ज्यादा आगे का सोचकर चल रही थी। इजराइली उस जंग को आजादी की जंग कहते हैं और फिलिस्तीनी उसे नकबा यानी महाविनाश कहते हैं।
अत्याचार से पीड़ित, भयानक यातना की स्मृतियों से भरे यहूदी लोग कहीं छांव की तलाश में थे और उन्होंने इसके लिए दूसरों के घर उजाड़ दिये। इजराइली सेना ने 13,80,000 फिलिस्तीनी लोगों को अपनी जमीन से खदेड़ दिया। ये फिलिस्तीन की तब की आधी आबादी थी।
फिर 1967 में इजराइल ने जंग जीत कर अपना कब्जा फिर बढ़ाया। इस दौरान फिर ढाई लाख फिलिस्तीन लोग खदेड़े गये। साथ के नक्शे को अगर देखें तो अब वेस्ट बैंक और गाजा में कुल मिलाकर करीब 35-40 लाख फिलिस्तीनी रहते हैं लेकिन उनके पास जमीन का दस प्रतिशत से भी कम हिस्सा बचा है। धर्म और सुविधाओं के नाम पर दुनिया के कोने-कोने से यहूदी लोग इजराइल में जाकर बसे हैं और आज अकेले इजराइल में दुनिया के 41 फीसदी से ज्यादा यहूदी बसे हुए हैं। इजराइल की कुल आबादी का 80 फीसदी सिर्फ यहूदी हैं।
फिलिस्तीन की पूरी जमीन पर 1922 में 11 फीसदी यहूदी थे, जो दूसरे विश्वयुध्द के अंत तक 33 फीसदी हुए और 1948 से 1958 के दस साल के वक्फे में इजराइल की आबादी 8 लाख से 20 लाख हो गई। इनमें से अधिकांश लोग उजाड़ हालात में शरणार्थी बनकर खाली हाथ आए थे। इजराइल ने कानून बनाकर इन यहूदियों को 49 साल के पट्टे पर वही जमीनें जोतने के लिए दीं, जिनसे फिलिस्तीनी अरबों को खदेड़ा था।
इजराइल-फिलिस्तीन का मसला बेहद पेचीदा है। इसके सूत्रों को तलाशें तो फ्रांस और इंग्लैंड के स्वेज नहर से जुड़े स्वार्थ, अमेरिका के पश्चिम एशिया में अपना मजबूत वफादार बनाने की साजिश, धर्म के नाम पर फैलायी जा रही लड़ाई का सैनिक नाभिक, सब कुछ सामने आता है। जो छिप जाती है, वो है बेगुनाह, आत्मसम्मान के साथ जीना चाह रहे फिलिस्तीनी अरबों की चाह। उनकी लाखों लाशें और, जिंदगी और मौत के फर्क को भूल चुकीं करीब तीन पीढ़ियां। आज दुनिया में ताकत के समीकरणों में अमेरिका और इजराइल सबसे निकट के सहयोगी हैं।
अमेरिका के योजना खर्च का एक बड़ा हिस्सा इजराइल को मदद के तौर पर जाता है। अमेरिकी हथियारों का न केवल सबसे बड़ा खरीदार इजराइल है, बल्कि पूरे अरब विश्व में वह अमेरिकी हितों का सबसे बड़ा पहरेदार भी है। इसीलिए इजराइल द्वारा किये गये किसी भी अत्याचार पर या तो अमेरिका चुप रहता है या उसे खुलकर समर्थन देता है।
हाल में गाजा पर हुए इजराइली हमले में करीब 1000 फिलिस्तीनी मारे गये और 10000 से ज्यादा घायल हुए। इजराइल के गाजा पर किये गये हमले पर उसके अमेरिकी मौसेरे भाई ने व्हाइट हाउस से ये बयान दिया कि इजराइल तो महज आत्म रक्षात्मक कार्रवाई कर रहा है। साथ ही अमेरिका ने फिलिस्तीनियों को लुटेरा और आतंकवादी बताया। पिछले आठ वर्षों में इजराइल ने 5000 से ज्यादा फिलिस्तीनियों को लाशों में बदल दिया जबकि इसी दौरान फिलिस्तीनी हमलों में मारे गये इजरायलियों की तादाद बहुत कम है। इजराइल का हाल का हमला गाजा के सबसे भीड़ भरे इलाके में हुआ, जहां बाजार था, गरीबों की तंग घनी आबादी थी और उस वक्त बच्चों का झुंड स्कूल से घर लौट रहा था। यह सन् 2008 का जाता हुआ सप्ताह है जिसमें हम हिंसा को इस वर्ष जमा हुई बेगुनाहों की लाशों के ढेर पर अट्टाहास करता देख रहे हैं।
इस वक्त सिर्फ हिंसा को सेलिब्रेट किया जा रहा है, बगैर ये जाने कि कौन सी हिंसा बचाव की है और कौन सी जुल्म की। इसीलिए हिंदुस्तान में भी आमतौर पर इजराइली हमले की प्रतिक्रिया में ये सुनने को मिल रहा है कि जैसे इजराइल फिलिस्तीनी आतंकवादियों से निपट रहा है, वैसे ही पूरी बेदर्दी से भारत को भी पाकिस्तान से निपटना चाहिए। ये जाने बगैर कि इजराइल द्वारा की गई कार्रवाई आतंकवाद के खिलाफ कार्रवाई नहीं, बल्कि खुद आतंकवादी कार्रवाई है। मुंबई पर हुए आतंकी हमले के हरे घाव में उन्मादियों को सबसे अच्छा मौका मिला है कि वो पूरे झूठ से ज्यादा खतरनाक आधे-अधूरे विकृत सच फैलाकर जुल्मी का नकाब मजलूम को और मजलूम का नकाब जुल्मी को पहना सकें।
अपनी ही जमीन पर कीड़े-मकोड़ों से बदतर जिंदगी जीने को अभिशप्त फिलिस्तीनी लोग लंबे वक्त तक अहिंसा व बातचीत के सहारे विश्व मंचों पर अपनी आवाज उठाते रहे। याद हो कि फिलिस्तीनी मुक्ति संगठन के नेता यासेर अराफात को उनकी फौजी पोशाक के बावजूद शांति का अग्रदूत माना जाता है और कोट-पेंट-टाई पहने रीगन-बुश-क्लिंटन या एरियल शेरोन सारी दुनिया में सबसे ज्यादा अमानवीयताओं व आतंकवाद को फैलाने वालों के तौर पर कुख्यात हैं।
हिंदुस्तान और फिलिस्तीन का रिश्ता नया नहीं है। महात्मा गांधी ने फिलिस्तीनियों पर ढहाये गये अत्याचारों की निंदा की थी। नेहरू फिलिस्तीन मुक्ति के पक्ष में थे। आजादी के भी पहले, 1947 में ही नेहरू ने निर्विवाद स्वर में पहले एशियाई संबंध सम्मेलन में कहा था - ''फिलिस्तीन बिना शक अरबों का देश है और उन्हें विश्वास में लिए बगैर कोई कदम नहीं उठाया जाना चाहिए।
यहूदियों की अपना देश होने की चाहत का शिकार फिलिस्तीनियों को हर्गिज नहीं बनाया जाना चाहिए।' भारत ही वो पहला देश था जिसने अराफात को बिना किसी देश का अध्यक्ष होते हुए भी राष्टाध्यक्ष का दर्जा दिया और पीएलओ को दिल्ली में अपना दूतावास खोलने की अनुमति दी।
अमेरिका की मदद से पूरे मध्य पूर्व में लठैती करते इस देश इजराईल और उसके आतंक और करतूतों के शिकारों में देखा जाए तो...सद्दाम से लेकर....गद्दाफी तक हैं....और इन दोनों लठैतों का अगला निशाना अब सीरिया और ईरान है...यह पूरा विश्व देख और समझ रहा है....मगर जहाँ ईरान ने सद्दाम का और उसके बाद ईराक का हश्र देख लिए है....तो ऐसे में अब इजराइल की दाळ शायद गलने वाली नहीं है...!!