बुधवार, 15 फ़रवरी 2012

अमेरिकी, इजराइली अतिवाद और प्रतिबन्ध पर ईरान का तमाचा ~~!!

वुडरो विल्सन ने एक बार कहा था, ‘जिस देश पर प्रतिबन्ध लगा दिए जाएँ, या उस का बहिष्कार कर दिया जाए, वो जल्द ही आत्मसमर्पण कर देता है. इस सस्ते, शांतिपूर्ण, शांत और घातक उपाय को अपनाओ तो बल प्रयोग की जरूरत ही नहीं पड़ेगी. यह एक भयानक उपाय है. जिस देश पर प्रतिबन्ध लगाया जाता है..या जिस देश का बहिष्कार किया जाता है, उसके बाहर किसी की जान नहीं जाती, मगर मेरे विचार से इससे देश पर इतना दबाव पड़ता है, कि कोई भी आधुनिक राष्ट्र इसका मुकाबला नहीं कर सकता.’ दशकों बाद इसके जवाब में गैबॉन के पूर्व राष्ट्रपति उमर बॉन्गो ने प्रतिबंध का विरोध करते हुए कहा था, ‘... यह बात समझना जरूरी है कि जब अमेरिका, यूरोप या संयुक्त राष्ट्र किसी सरकार पर प्रतिबंध लगाते हैं तो आमतौर पर लाखों लोगों को सीधे तौर पर सजा झेलनी पड़ती है.’ समय के साथ प्रतिबंध लगाने के कारणों में पूरी तरह परिवर्तन आ चुका है और अब यह ज्यादातर अपने हितों और सामरिक लाभ के लिए इस्तेमाल किया जाता है....!



.आतंकवादी संगठनों को संरक्षण देने और ओसामा बिन लादेन को शरण देने की वजह से पाकिस्तान का नाम पूरी दुनिया में बदनाम है. लेकिन किसी भी तरह का प्रतिबंध इन दोनों देशों पर नहीं लगाया गया. इसकी क्या वजह है? क्योंकि वे अमेरिकी आदेशों का अक्षरश: पालन करते रहे हैं! ठीक यही बात तालिबान के साथ भी है, जिसे अमेरिका ने ही पैदा किया है..      .इराक और अफगानिस्तान को बर्बाद करने के बाद, ईरान की तेल संपदा पर कब्जे करने के लिए अमेरिका पूरी कोशिश कर रहा है. आखिरकार, सभी ओपेक देश उसके नियंत्रण में हैं, सिवाय ईरान के. लेकिन ओबामा का यह कदम आसान नहीं होगा, क्योंकि राजनीतिक और आर्थिक तौर पर ईरान, अपनी तरह के तमाम अन्य देशों की तुलना में ज्यादा कुछ झेल सकने की क्षमता रखता है. अपनी संप्रभुता की रक्षा के लिए, आत्मसम्मान के प्रति ईरान के समर्पण, अकेले लडऩे के साहस और नाटो की ताकत की परवाह न कर आज उसने परमाणु औद्ध्योगिकी में सक्षमता हासिल कर पूरे विश्व में तहलका मचा दिया है...और ईरान ने अमेरिका और इजराइल के अतिवाद, दुष्प्रचार  और प्रतिबन्ध को एक करार तमाचा मारा है....जिसको दोनों अतिवादी देश काफी देर तक सहलाते रहेंगे....!!

इजराइली आतंकवाद....और तबाह बर्बाद फिलस्तीन....!!

अगर पिछली सदी से अब तक जमीन पर कोई सबसे बड़ा नाजायज कब्जा कहा जाएगा तो वो इजराइल का फिलिस्तीनी जमीन पर कब्जा होगा। 1948 में जंग करके इजराइल फिलिस्तीनी जमीन के करीब आधे से ज्यादा हिस्से पर काबिज हो गया। जर्मनी के हिटलर का कहर 60 लाख से ज्यादा यहूदियों पर टूटा था। दुनिया की हमदर्दी उनके साथ थी, सियासत हमदर्दी से ज्यादा आगे का सोचकर चल रही थी। इजराइली उस जंग को आजादी की जंग कहते हैं और फिलिस्तीनी उसे नकबा यानी महाविनाश कहते हैं।

अत्याचार से पीड़ित, भयानक यातना की स्मृतियों से भरे यहूदी लोग कहीं छांव की तलाश में थे और उन्होंने इसके लिए दूसरों के घर उजाड़ दिये। इजराइली सेना ने 13,80,000 फिलिस्तीनी लोगों को अपनी जमीन से खदेड़ दिया। ये फिलिस्तीन की तब की आधी आबादी थी।
फिर 1967 में इजराइल ने जंग जीत कर अपना कब्जा फिर बढ़ाया। इस दौरान फिर ढाई लाख फिलिस्तीन लोग खदेड़े गये। साथ के नक्शे को अगर देखें तो अब वेस्ट बैंक और गाजा में कुल मिलाकर करीब 35-40 लाख फिलिस्तीनी रहते हैं लेकिन उनके पास जमीन का दस प्रतिशत से भी कम हिस्सा बचा है। धर्म और सुविधाओं के नाम पर दुनिया के कोने-कोने से यहूदी लोग इजराइल में जाकर बसे हैं और आज अकेले इजराइल में दुनिया के 41 फीसदी से ज्यादा यहूदी बसे हुए हैं। इजराइल की कुल आबादी का 80 फीसदी सिर्फ यहूदी हैं।

फिलिस्तीन की पूरी जमीन पर 1922 में 11 फीसदी यहूदी थे, जो दूसरे विश्वयुध्द के अंत तक 33 फीसदी हुए और 1948 से 1958 के दस साल के वक्फे में इजराइल की आबादी 8 लाख से 20 लाख हो गई। इनमें से अधिकांश लोग उजाड़ हालात में शरणार्थी बनकर खाली हाथ आए थे। इजराइल ने कानून बनाकर इन यहूदियों को 49 साल के पट्टे पर वही जमीनें जोतने के लिए दीं, जिनसे फिलिस्तीनी अरबों को खदेड़ा था।

इजराइल-फिलिस्तीन का मसला बेहद पेचीदा है। इसके सूत्रों को तलाशें तो फ्रांस और इंग्लैंड के स्वेज नहर से जुड़े स्वार्थ, अमेरिका के पश्चिम एशिया में अपना मजबूत वफादार बनाने की साजिश, धर्म के नाम पर फैलायी जा रही लड़ाई का सैनिक नाभिक, सब कुछ सामने आता है। जो छिप जाती है, वो है बेगुनाह, आत्मसम्मान के साथ जीना चाह रहे फिलिस्तीनी अरबों की चाह। उनकी लाखों लाशें और, जिंदगी और मौत के फर्क को भूल चुकीं करीब तीन पीढ़ियां। आज दुनिया में ताकत के समीकरणों में अमेरिका और इजराइल सबसे निकट के सहयोगी हैं।

अमेरिका के योजना खर्च का एक बड़ा हिस्सा इजराइल को मदद के तौर पर जाता है। अमेरिकी हथियारों का न केवल सबसे बड़ा खरीदार इजराइल है, बल्कि पूरे अरब विश्व में वह अमेरिकी हितों का सबसे बड़ा पहरेदार भी है। इसीलिए इजराइल द्वारा किये गये किसी भी अत्याचार पर या तो अमेरिका चुप रहता है या उसे खुलकर समर्थन देता है।

हाल में गाजा पर हुए इजराइली हमले में करीब 1000 फिलिस्तीनी मारे गये और 10000 से ज्यादा घायल हुए। इजराइल के गाजा पर किये गये हमले पर उसके अमेरिकी मौसेरे भाई ने व्हाइट हाउस से ये बयान दिया कि इजराइल तो महज आत्म रक्षात्मक कार्रवाई कर रहा है। साथ ही अमेरिका ने फिलिस्तीनियों को लुटेरा और आतंकवादी बताया। पिछले आठ वर्षों में इजराइल ने 5000 से ज्यादा फिलिस्तीनियों को लाशों में बदल दिया जबकि इसी दौरान फिलिस्तीनी हमलों में मारे गये इजरायलियों की तादाद बहुत कम है। इजराइल का हाल का हमला गाजा के सबसे भीड़ भरे इलाके में हुआ, जहां बाजार था, गरीबों की तंग घनी आबादी थी और उस वक्त बच्चों का झुंड स्कूल से घर लौट रहा था। यह सन् 2008 का जाता हुआ सप्ताह है जिसमें हम हिंसा को इस वर्ष जमा हुई बेगुनाहों की लाशों के ढेर पर अट्टाहास करता देख रहे हैं।

इस वक्त सिर्फ हिंसा को सेलिब्रेट किया जा रहा है, बगैर ये जाने कि कौन सी हिंसा बचाव की है और कौन सी जुल्म की। इसीलिए हिंदुस्तान में भी आमतौर पर इजराइली हमले की प्रतिक्रिया में ये सुनने को मिल रहा है कि जैसे इजराइल फिलिस्तीनी आतंकवादियों से निपट रहा है, वैसे ही पूरी बेदर्दी से भारत को भी पाकिस्तान से निपटना चाहिए। ये जाने बगैर कि इजराइल द्वारा की गई कार्रवाई आतंकवाद के खिलाफ कार्रवाई नहीं, बल्कि खुद आतंकवादी कार्रवाई है। मुंबई पर हुए आतंकी हमले के हरे घाव में उन्मादियों को सबसे अच्छा मौका मिला है कि वो पूरे झूठ से ज्यादा खतरनाक आधे-अधूरे विकृत सच फैलाकर जुल्मी का नकाब मजलूम को और मजलूम का नकाब जुल्मी को पहना सकें।

अपनी ही जमीन पर कीड़े-मकोड़ों से बदतर जिंदगी जीने को अभिशप्त फिलिस्तीनी लोग लंबे वक्त तक अहिंसा व बातचीत के सहारे विश्व मंचों पर अपनी आवाज उठाते रहे। याद हो कि फिलिस्तीनी मुक्ति संगठन के नेता यासेर अराफात को उनकी फौजी पोशाक के बावजूद शांति का अग्रदूत माना जाता है और कोट-पेंट-टाई पहने रीगन-बुश-क्लिंटन या एरियल शेरोन सारी दुनिया में सबसे ज्यादा अमानवीयताओं व आतंकवाद को फैलाने वालों के तौर पर कुख्यात हैं।

हिंदुस्तान और फिलिस्तीन का रिश्ता नया नहीं है। महात्मा गांधी ने फिलिस्तीनियों पर ढहाये गये अत्याचारों की निंदा की थी। नेहरू फिलिस्तीन मुक्ति के पक्ष में थे। आजादी के भी पहले, 1947 में ही नेहरू ने निर्विवाद स्वर में पहले एशियाई संबंध सम्मेलन में कहा था - ''फिलिस्तीन बिना शक अरबों का देश है और उन्हें विश्वास में लिए बगैर कोई कदम नहीं उठाया जाना चाहिए।


यहूदियों की अपना देश होने की चाहत का शिकार फिलिस्तीनियों को हर्गिज नहीं बनाया जाना चाहिए।' भारत ही वो पहला देश था जिसने अराफात को बिना किसी देश का अध्यक्ष होते हुए भी राष्टाध्यक्ष का दर्जा दिया और पीएलओ को दिल्ली में अपना दूतावास खोलने की अनुमति दी।

अमेरिका की मदद से पूरे मध्य पूर्व में लठैती करते इस देश इजराईल और उसके आतंक और करतूतों के शिकारों में देखा जाए तो...सद्दाम से लेकर....गद्दाफी तक हैं....और इन दोनों लठैतों का अगला निशाना अब सीरिया और ईरान है...यह पूरा विश्व देख और समझ रहा है....मगर जहाँ ईरान ने सद्दाम का और उसके बाद ईराक का हश्र देख लिए है....तो ऐसे में अब इजराइल की दाळ शायद गलने वाली नहीं है...!!

आंदोलनों और अनशनो में अपार धन की रेलम पेल ~~~क्या है असली खेल~~~~~??

बाबा रामदेव के  रामलीला मैदान के फाइव स्टार अनशन के इंतजाम पर कुल  18 करोड़ रुपए खर्च हुए थे .. बाबा ने सिर्फ मैदान के भाड़े पर करीब सवा 2 करोड़ रुपए खर्च किए थे । ठीक इधर अन्ना हजारे के मुंबई अनशन का हश्र है...यहाँ उनके अनशन के लिए एमएमआरडीए मैदान के लिए 3.5 लाख रुपए प्रति दिन के किराए और 17 लाख रूपये अग्रिम पर बुक कराया था...भले ही बाद में कुछ कमी बेशी हुई हो.....यह केवल उनके मुंबई स्थित  एमएमआरडीए मैदान वाले अनशन का ही खर्चा है...(इसके पहले के  अनशन और  तामझाम  अलग हैं.)..और यह तो मूल खर्चा है...जो कि सामने है....इसके अतिरिक्त ऐसे बड़े ताम झाम में और भी सैंकड़ों प्रकार के खर्चे आते हैं...इसमें टेंट से लेकर...पानी बिजली...बसों कि व्यवस्था सहित और भी कई मद ऐसे हैं...जो कि ऐसे विशाल आयोजनों में बहुत ही ज़रूरी होते हैं...उनका खर्चा भी काफी बड़ा होता है...अब चाहे मोदी का सद्भावना उपवास हो...जिसमें तीन दिनों के इस सद्भावना उपवास में 60 करोड़ से अधिक का खर्च बैठा था...जिस हॉल में यह उपवास आयोजित किया गया था उसका किराया पांच लाख रुपये प्रतिदिन था ..10 से 12 हजार पुलिसकर्मी, 4 त्‍वरित कार्रवाई दल, 2 चेतक कमांडो टीम, 9 एसआरपीएफ कमांडो, 10 आईपीएस अधिकारी, एसपी स्तर के 20 अधिकारी सद्भावना उपवास स्थल पर बैठे गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी की सुरक्षा में तैनात किये गए थे. इसके अलावा 50 सीसीटीवी कैमरे, 35 छोटे कैमरे, ग्राउंड में 10 वॉच टावर, 2000 कार पार्किंग वीआईपी के लिए, दो से चार हजार कारें, आठ से 10 हजार बाइक और 1500 भारी वाहन जीएमडीसी ग्राउंड में बनाए गए थे. मेडिकल टीम में 10-15 फिजिशियन, एनेसेथेसिस्‍ट, कार्डियोलॉजिस्‍ट, टेक्‍नीशियन, मोबाइल आईसीयू चौबीसों घंटे तैनात. 10 प्‍लाज्‍मा टीवी, पांच एलईडी टीवी और कई बड़ी स्‍क्रीन ताकि नरेंद्र मोदी लोगों को करीब से दिखाई देते रहें..!

हैरान है देश की जनता....कि .गाँधी के देश में गाँधी के अस्त्र ...अनशन और उपवास को इन हाई प्रोफाइल आन्दोलनकारियों और अनशन कारियों ने किस रूप में परिवर्तित कर दिया..है , यह सारा देश और देश की जनता देख देख कर हैरान है, लाखों ..करोड़ों रुपयों की यह रेलम पेल क्यों ? क्या बिना पैसे या इतने बड़े ताम झाम के बिना अनशन और उपवास नहीं हो सकता...विरोध नहीं हो सकता...?  यह आधुनिक और डिज़ाईनर अनशनकारी और आन्दोलनकारी... इन करोड़ों ..लाखों रुपयों को पानी की तरह क्यों बहा रहे हैं...? इन करोड़ों ..लाखों रुपयों का स्त्रोत क्या है....?  यह कैसे अनशन, कैसे आन्दोलन और कैसे उपवास हैं...?  गाँधी जी ने तो कभी ऐसा नहीं किया था...!यह विरोध की अभिव्यक्ति का कौनसा नया प्रकार उभर कर सामने आ रहा है....? और अब जिस प्रकार के यह ताम झाम वाले अनशन, उपवास और आन्दोलन और एकएक चकाचौंध भरे शो की तरह धूम धडाके के साथ..एक TRP और दर्शकों से भरे मैदान के साथ शुरू तो होते हैं...मगर जल्दी ही अपना आधार भी खो बैठते हैं....इसके पीछे जो मूल कारण हैं....उन से यह आन्दोलनकारी, अनशनकारी, और उपवास करने वाले भी भली भाँती पर्रिचित हैं...फिर भी उन कारणों का निवारण नहीं कर रहे हैं.....? यह और भी अचरज की बात है....मगर इससे एक हानि यह हो रही है...की आम जनता में इन आंदोलनों, उपवासों और अनशनो की पृष्ठभूमि, उद्देह्श्य, आधार और नीयत पर संदेह बढ़ता ही जा रहा है...क्योंकि यह सब बीच रास्ते में दम तोड़ते नज़र आये हैं....और दूसरी हानि भविष्य में यदि कोई सार्थक और नेकनीयत से आन्दोलन करने आगे आएगा...तो उसके लिए हर बार की तरह जनता बाहर निकलने में बहुत संकोच करेगी....जो की इस गाँधी के इस अस्त्र और शानदार परिपाटी के लिए और साथ ही लोकतान्त्रिक व्यवस्था की शुद्धिकरण के लिए बहुत ही नुकसानदेह साबित होगा.....!!

चुनावी चौसर पर टीम अन्ना क्या हो रही है ...बेअसर ....??

लखनऊ में इंडिया अगेंस्ट करप्शन के संयोजक अखिलेश सक्सेना टीम अन्ना के दिशा निर्देशों के तहत जनता का घोषणा पत्र बांट रहे है और अब तक सौ से ज्यादा लोगों तक वे पहुँच चुके है । लखनऊ में नौ विधान सभा क्षेत्र है और हर क्षेत्र में तीन से साढ़े तीन लाख मतदाता है जो सभी क्षेत्र मिलाकर पच्चीस लाख से ऊपर बैठता है। ऐसे में इस मुहिम की रफ़्तार से किसी तरह का असर चुनाव पर पड़ेगा यह नहीं लगता । अन्ना आन्दोलन के दौरान सबसे ज्यादा फोकस उत्तर प्रदेश पर था और टीम अन्ना लोकपाल बिल को लेकर कांग्रेस को लगातार धमकाती रही कि लोकपाल पास नहीं हुआ तो कांग्रेस का सफाया कर देने के लिए खुद अन्ना हजारे उत्तर प्रदेश का दौरा करंगे । कांग्रेस को हराने के साथ ही कई तरह के कार्यक्रम जो जेपी आंदोलन के थे उन्हें भी लागू करने की बात कही गई थी


लखनऊ में दो गुट है ,एक गुट हिसार वाली लाइन यानी "कांग्रेस को हराओं" पर चल रहा है तो दूसरा गुट मतदाताओं को जागरूक करने में जुटा है जो काम मतदाता मंच कई दशकों से कर रहा है और उसका कोई असर कभी पड़ा नहीं । अन्ना आंदोलन के नेता अखिलेश सक्सेना से इस बारे में पूछने पर उनका जवाब था -हम मतदाताओं को जागरूक करेंगे ,किसे वोट दें है यह तो उन्हें ही तय करना होगा । यह पूछने पर कि अगर आपका जनता घोषणा पत्र किसी क्षेत्र में तीन चार उम्मीदवारों ने मान लिया तो किसे वोट देने को कहेंगे ,इसपर जवाब था -यह सब जनता को तय करना है । राजनैतिक टीकाकार सीएम शुक्ल ने कहा -टीम अन्ना तो बुरी तरह फंसी हुई है और इतनी भ्रमित है कि उसे कुछ सूझ ही नहीं रहा, हिसार में कांग्रेस का विरोध  बड़ी गलती थी जिसके चलते आंदोलन पर राजनैतिक होने  का जो ठप्पा लगा उसका नतीजा सामने है । आज इस आंदोलन के लोगों के सामने न कोई दिशा है और न कोई कार्यक्रम ,साथ ही उल जलूल बयान देकर आए दिन  अन्ना या कोई न कोई टीम का सदस्य फंसता जा रहा है जिसका असर कार्यकर्ताओं पर पड़ रहा है ।
ऐसे में देखना होगा कि टीम अन्ना अपने पर लगे इस गहरे राजनीतिक दाग को कैसे साफ़ करती है,  और इस  चुनावी चौसर पर  क्या जौहर दिखला सकती है...वैसे भी  उम्मीद पर तो पूरी दुनिया ही कायम है......!!

कौनसे 121 करोड़ लोगों की आवाज़ हैं आप~~~??

मारी आबादी के नए आंकड़े अभी-अभी आए हैं. एक अरब 121 करोड़ यानी लगभग सवा अरब. इस सवा अरब लोगों में से  केवल एक लाख लोग भी अन्ना या बाबा के लिए जंतर मंतर या इंडिया गेट पर इकट्ठे नहीं हो पाए हैं...और मुंबई में तो सारे अनुमान ही औंधे मुँह गिर पड़े... जब की इन्टरनेट और सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर इन्होने और इनकी पीठ थपथपाने वालों ने एडी छोटी का जोर एक साल से लगा रखा है...उस पर यह हाल....फिर भी यह दोनों ही मसीहा यह दावा करते हैं की हम 121 करोड़ लोगों की आवाज़ हैं...... !



मिस्र की आबादी से तुलना करके देखें, वहाँ की कुल आबादी है आठ करोड़ से भी कम. यानी अपने आंध्र प्रदेश की आबादी से भी कम.लेकिन, वहाँ तहरीर चौक पर एकबारगी लाखों-लाखों लोग इकट्ठे होते रहे. उन्हें वहाँ इकट्ठा करने के लिए किसी नेता की ज़रुरत नहीं पड़ी. वे ख़ुद वहाँ आए और शिद्दत से आये...क्योंकि उन्हें लगा क्योंकि परिवर्तन उनकी अपनी ज़रुरत है...ब्रिटेन के एक पत्रकार ने अचरज से लोगों से पूछा कि दिल्ली में ही एक करोड़ से ज़्यादा लोग रहते हैं और जितने लोग इकट्ठे हो रहे हैं वो तो बहुत ज़्यादा नहीं है, तो क्या अभी लोगों को भ्रष्टाचार अपना मुद्दा नहीं लगता ?  या जनता को लगने लगा है की यह सब एक प्रायोजित राजनैतिक आन्दोलन हैं...? या फिर कहीं न कहीं लोगों को इन आंदोलनों के मसीहाओं की नीयत पर संदेह होने लगा है..?? कहीं न कहीं...कोई तो बात है.......!!

यह वो तहरीर चौक नहीं है ~~~!!

मिस्र की राजधानी काहिरा का अब तक नामालूम सा एक चौक जो देखते ही देखते दुनिया भर की मुक्तिकामी और तरक्कीपसंद जनता के सपनों और संघर्ष का पहले प्रतीक, और फिर मील-पत्थर बन गया. ऐसे कि तहरीर चौक से उठती आवाजों का जब जवाब आया तो तमाम सरहदों और उनके अन्दर रहने वाले हुक्मरानों की हिफाजत को खड़ी फौजों को रौंद के आया....इस आन्दोलन में कुल 45 निहत्थे नागरिकों की जाने जा चुकी हैं...और 500 से अधिक गंभीर रूप से घायल हो चुके हैं... यह संघर्ष वहां की जनता ने तानाशाही से मुक्ति और लोकतंत्र की स्थापना के लिए किया था..जिससे  की मिश्री जनता एक वर्ष होने के पश्चात भी  वंचित है...कई देशों में इस आन्दोलन से सनसनी फैली...और विश्व पटल पर एक अदृश्य सी लहर ने उथल पुथल मचा डाली थी....!

फिर अचानक एक दिन भारत में ....काहिरा का तहरीर चौक बरास्ते टीवी चैनल्स दिल्ली के जंतर मंतर से होता हुआ हमारे बेडरूमों में उतर आया. चाहे काहिरा में उमड़ती लाखों की भीड़ के सामने जंतर मंतर के चंद हजार लोग किसी गिनती में न हों, बावजूद इस सच के कि काहिरा में कम से कम तानाशाही के अंत की ख्वाहिश लिए अपनी जान दांव पर लगा कर सड़कों पर उतर आई भीड़ के सामने भारत में पुलिस से कोई खतरा ना होने की आश्वस्ति पाकर ही घर से निकले इन लोगों का तहरीर चौक के संघर्षों से दूर दूर तक कोई साझा न हो. अपने को तहरीर चौक कहने वाला, और इलेक्ट्रानिक मीडिया के अन्दर अपने कारिंदों से कहलवाने पर आमादा यह कुछ अजब सा तहरीर चौक था......  अरब देशों में इकठ्ठा होती भीड़ों पर गोलियां चलाती फौजों के बरअक्स इस भीड़ में बिसलेरी और बिस्कुट बाँटते लोग थे, वहां शहीद हो रहे मिश्री लोगों के सामने यहाँ सिर्फ स्वास्थ्य के इजाजत देने तक अनशन की घोषणा करते लोग थे. .....उस तहरीर और इस तहरीर में फर्क सिर्फ इतना भर नहीं था. यहाँ तो फर्क बुनियादी मूल्यों का, मान्यताओं का भी था. उन तहरीर चौकों में तानाशाहों के खिलाफ सारे अवाम की गुलाम इच्छाओं के कैद से बाहर आने की छटपटाहटें थीं .. वहां दिलों में उबल रहा गुस्सा न केवल सरकारों बल्कि सरकारी शह पर जमाने से जनता को लूट रही कंपनियों को भी मार भगाने पर आमादा था और ठीक उलट यहाँ के तहरीर चौक के तो प्रायोजक ही एनजीओ और कार्पोरेशंस थे. !


वहां की लड़ाई सबके हक और हुकूक की थी और यहाँ संविधानिक प्राविधानों की वजह से कुछ शोषित लोगों के आगे बढ़ आने से सदियों से सत्ता पर काबिज लोगों के माथे पर बन रही चिंता की लकीरें थीं. वहाँ तानाशाहों के मिजाज से चलते शासन के खिलाफ एक लोकतांत्रिक संविधान बनाने के सपने थे और यहाँ बाबासाहेब के बनाए संविधान को खारिज करने की जिद थी. ..वहां एक तानाशाह को भगा कर सामूहिक प्रतिनिधित्व वाला स्वतंत्र समाज हासिल कर पाने की जद्दोजहद थी और यहाँ एक व्यक्ति को संसद और संविधान से भी ऊपर खड़ा कर देने की हुंकारें थीं. या यूँ कह लें, कि वहां लड़ाई जम्हूरियत हासिल करने की थी और यहाँ उसे जमींदोज करने की थी..और इस आन्दोलन की आड़ में सिर्फ सत्ता परिवर्तन ही मूल उद्देश्य था...राजनैतिक हाथ  इस आन्दोलन की पीठ पर पीठ थपथपाए जा रहे थे...!

बात साफ़ है, कि इस तहरीर चौक पर लिखी जा रही तहरीरें उस तहरीर चौक की इबारतों से न केवल अलहदा हैं बल्कि उनसे मुख्तलिफ भी हैं. अब समझना यह है कि 'हमारे' तहरीर चौक पे ये अजब तहरीरें कौन और क्यों लिख रहा है ?  समझना इसलिए कि फिर लड़ना भी पड़ेगा, असली तहरीर चौक की विरासत बचानी भी पड़ेगी...!!

आओ दुष्प्रचार करें~~~~!!

पिछले दिनों फेसबुक पर किसी मित्र की पोस्ट पढ़ी थी...उसमें उन्होंने लिखा था...कि आकाश पी सी टेबलेट (Laptop)को हर एक विद्यार्थी तक पहुँचाने कि योजना भी एक कांग्रेसी चाल है...इससे नवयुवक पोर्न की और आकर्षित होंगे...और पथभ्रष्ट हो कर देशप्रेम से विमुख हो जायेंगे..कितनी अजीब बात है...क्या आकाश पी सी टेबलेट को नवयुवक या विद्यार्थियों को सिर्फ इसी काम के लिए दिया जा रहा है.....या क्या लोग जो कि पहले से इन्टरनेट, लेपटाप या ऐसे पी सी टेबलेट प्रयोग कर रहे हैं...वो सब ऐसा ही कर रहे हैं...यह कैसी सोच है...? मुझे याद है..जब राजीव गाँधी ने कम्प्युटर क्रान्ति के लिए बीड़ा उठाया था...तब भाजपा ने पूरा देश सर पर उठा लिया था...कम्प्युटर के विरोध में ज़बरदस्त दुष्प्रचार किया था...लोगों को मूर्ख बनाया गया था...आज वही कम्प्युटर है...और वही सूचना क्रान्ति ...जिसकी बदौलत प्रचार और दुष्प्रचार दोनों हो रहे हैं...  मैंने   एक और पोस्ट देखी थी जिसमें पिछले 30 सालों में सोने के भावों में होने वाली वृद्धि के लिए कांग्रेस और सोनिया गाँधी को ज़िम्मेदार ठहराया गया था...कितनी वाहियात बात है...क्या सोना सिर्फ भारत में ही महंगा हुआ है...और देशों में तो शायद  दस हज़ार रूपये तोला ही बिक रहा है...क्या इन दुश्प्रचारियों को यह नहीं पता कि सोने का मूल्य अंतर्राष्ट्रीय विषय है...न कि राष्ट्रिय...  हर बात के लिए सरकार को या कांग्रेस को कोसना एक फैशन सा बन गया है...कल को किसी गूजर भाई की भैंस पानी से निकलने से मना करदे तो क्या इसके ज़िम्मेदार कपिल सिब्बल होंगे...?या किसी की पत्नी मायके जा कर बैठ जाए तो क्या इसके ज़िम्मेदार दिग्विजय सिंह होंगे ? कल को जुम्मन मियाँ की आँखों में मोतिया बिन्द हो जाए तो क्या इसका दोष सोनिया गाँधी को दिया जाएगा....? मांगी लाल की सुबह स्कूटर स्टार्ट होने से मना कर दे तो क्या इसके ज़िम्मेदार राहुल गाँधी ही होंगे ?
सरकार की कमियाँ और मुद्दों को उठाने का अधिकार सभी देशवासियों को है...जन सहभागिता से लोकतंत्र का शुद्धिकरण ही होता है...मगर दुष्प्रचार अलग बात है...और तर्कपूर्ण व समीक्षात्मक रूप से कमियां और गलतियाँ बताना अलग होता है...इन्टरनेट और सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर यह एक फैशन बन गया है...और काफी लोग अपने को दूसरे से बढ़कर देशप्रेमी बताने के चक्कर में बे सर पैर के तर्क और दुष्प्रचार कर अपनी पीठ ठोंक रहे हैं....जय हो....!!

जनलोकपाल आन्दोलन को तहरीर चौक का पायजामा मत पहनाइये ~~~!!

अन्ना के अनशन को जनक्रांति बताने वाले चपल रिपोर्टरों की यह मजबूरी समझिए कि उन्हें टीआरपी रेस में टिके रहने के लिए घटना का चरम प्रस्तुत करना ही होगा. वे जनक्रांति से आगे का कोई शब्द जानते होते तो अन्ना के अनशन के लिए वह प्रयोग करते. यह तो भला हो कि जनक्रांति के ऊपर का कोई शब्द उनके पल्ले नहीं पड़ा नहीं तो टेलीवीजन मीडिया इसे वह भी बना देता. लेकिन जिस जन की उपस्थिति को क्रांति बताई जा रही थी वह जन शहरी मध्य वर्ग या फिर उस मध्य वर्ग का पिछलग्गू जमातें थी. उनका वहां होना जहां अन्ना हजारे का अनशन चल रहा था यह सिर्फ और सिर्फ टेलीवीजन मीडिया की मौजूदगी की वजह से था. मसलन, अन्ना की जीत के जश्न में जिस इंडिया गेट पर जश्न मनाया जा रहा था वहां न तो उतने लोग थे जितना दावा किया जा रहा था और न ही सेलिब्रेशन जैसा कोई माहौल. हुड़दंग का आलम था और उस हुड़दंग में टेलीवीजन पर दिख जाने की होड़. टेलीवीजन पर दिखते ही फोन किसी परिचित को लग जाता और इधर से पूछा जाता कि "आज तक पर अभी थोड़ी देर पहले मैं आ रहा था. तुमने देखा क्या?" रात सवा नौ बजे तक इसी तरह सेलिब्रेशन चलता रहा. सवा नौ बजे के करीब पुलिस ने कहा टेलीवीजन चैनल्स को कहा लाइट्स आफ. और कमाल देखिए सवा दस बजे वहां से सारा सेलिब्रेशन गायब हो चुका था. कारण साफ़ है....बिना टीवी के अन्ना की जीत का जश्न घण्टे भर भी नहीं टिक सका. आन्दोलन के नाम पर टी वी कैमरों की चमक की चाशनी छलका कर..जनता को एक बार घेरा जा सकता है...दो बार घेरा जा सकता है...मगर बार बार जनता को आवाज़ लगा कर आन्दोलन का मजमा नहीं लगा सकते...यह बात अन्ना के मुंबई अनशन से एक दम साफ़ हो गयी है...और टीम अन्ना के भी होश इस विफलता से उड़े हुए हैं...यहाँ मीडिया के कैमरे...और लाईट के साथ एनजीओवादी मेनेजमेंट की भी सारी तिकड़में धरी की धरी रह गयी थी.... रही सही कसर मुंबई हाई कोर्ट ने पूरी कर डाली थी...!


जो लोग यह समझते हैं कि यह अन्ना का अनशन था और उसे मीडिया  ने रिपोर्ट किया, उन्हें अपने वाक्य को अब शायद दुरुस्त कर लेना चाहिए. यह मीडिया का अनशन था जिसमें नायक की भूमिका अन्ना हजारे ने निभाई. स्टेड लगाने से लेकर जनक्रांति घोषित कर देने तक सारा आयोजन टेलीवीजन मीडिया और कुछ एनजीओवादी कर्मठ कार्यकर्ताओं की देन थी. जैसे एक दशक पहले कुछ आतंकवादियों ने गन की नोक पर भारतीय संसद को गिरवी बनाने की कोशिश की थी, कुछ कुछ वैसी ही कोशिश इस बार न्यूज मीडिया ने अपने गनमाइक से की. अन्ना को आगे करके भारतीय मीडिया ने पंद्रह दिनों तक अपनी टीआरपी को संभाले रखा. फायदे के इस अर्थशास्त्र में रास्ते में जो कोई आया टेलीवीजन ने उसके सिर कलम कर दिये. टेलीवीजन ने राजघाट से कत्लेआम का जो यह सिलसिला शुरू किया था वह इंडिया गेट पर आकर खत्म हुआ...यह  मीडिया और अन्ना कि जुगलबंदी और एनजीओवादी मेनेजमेंट का एक  उदाहरण है...जिसको तहरीर चौक जैसी आलीशान क्रान्ति का पायजामा पहनने की विफल कोशिश भी इस बाजारवादी और टीआरपी मोहित मीडिया ने की थी...!!

सिविल सोसाइटी और मीडिया का मायाजाल....!!


सारा का सारा देश (जो की टीवी ग्रस्त है) पलकों में तीलियां फंसाए अपलक अपने अपने टीवी सेटों से चिपका बैठा था. सब के सब अचानक से भारतीय हो गए थे... राष्ट्रभक्ति और खेल भावना से भरे हुए. टीम इंडिया का खेल देखने में लोग यों जुटे कि टीआरपी के सारे रिकॉर्ड ध्वस्त हो गए. इसी वर्ल्डकप विद इंडिया वैडिंग का रिसेप्शन शुरू हुआ पांच अप्रैल को, जंतर-मंतर पर. एक बुजुर्ग व्यक्ति गांधी टोपी और धवल वस्त्रों में सफेद चादर वाले मंच पर आसीन हो गए. इनके बगल में एक भगवा वस्त्रधारी स्वामी जी, एक मैग्सेसे प्राप्त पूर्व प्रशासनिक अधिकारी और कुछ सामाजिक कार्यों के दक्ष मैनेजर. पीछे भारत माता का तिरंगा ध्वज वाला फोटो ...जो अब पूरा ही गायब हो चुका है, . खैर, अनशन का आगाज़ हुआ. अन्ना हजारे तकिया लेकर बैठ गए. 
वैसे अन्ना जैसे कई बैठते हैं इस जगह पर. साल भर होते हैं प्रदर्शन, सत्याग्रह, धरने, रैलियां. ये धरने-प्रदर्शन अपनी नीयत और सवालों को लेकर ज़्यादा ईमानदार होते हैं. पर इसबार बात जन लोकपाल बिल की थी. अन्ना की मंडली का मानना है कि जन लोकपाल बिल आते ही भ्रष्टाचार इस देश से ऐसे गायब हो जाएगा जैसे डिटॉल साबुन से गंदगी. ..बाबा रामदेव के दिशा निर्देशन में पहले ही जन लोकपाल बिल का खाका बन चुका था. अब इसे सरकार को सौंपना था. सरकार इसे माने और वैसे ही माने जैसे कि अन्ना मंडली चाहती है, इसके लिए सीधा रास्ता तो कोई संभव नहीं था सो बात तय हुई अनशन की. ...सवाल उठा कि अनशन पर कौन बैठे... ? अन्ना या रामदेव. फिर लगा, गांधी टोपी की ओट में और एक उम्रदराज बुजुर्ग को सामने रखकर हित साधना सबसे आसान होगा. सो अनशन शुरू हुआ... लंगर परंपरा को पापनाशक मानने वाले अभिजात्य, धनी लोग गाड़ियों में मिनरल वॉटर की पेटियां लेकर पहुंच गए. कई छोटी-बड़ी एनजीओ न्यौत दी गईं. बैनरों और कनातों की तादाद बढ़ती चली गई. नफीसा अली, फरहा खान, अनुपम खेर जैसे  चेहरे मौके की चाशनी पर मक्खियों की तरह आ कर भिनभिनाने लगीं..!
मीडिया में पहले से मज़बूत पैठ रखने वाले और सालाना जलसों में मीडिया को पुरस्कार देने वाले समाजसेवी मीडिया मैनेजमेंट में लग गए... दो बड़े मीडिया संस्थानों के मालिकों को एक पहुँचे हुए बाबा का फोन गया और उनके चैनल, अखबार अपने सारे पन्ने और सारे कैमरे लेकर इस अभियान में कूद पड़े. बाकी मीडिया संस्थान बिना खबरों वाले दिन में इस ग्रेट  अपार्चुनिटी को कैसे हाथ से निकलने देते... ओबी वैन एक के बाद एक... बड़ी बड़ी लाइटें, सैकड़ों कैमरे, हज़ारों टेप, मंडी के सड़े आलुओं की तरह सैकड़ों मीडियाकर्मी फैले पड़े थे. लगा कि लाइव-लाइव खेलते खेलते ही भ्रष्टाचार खत्म. अन्ना लाइव, अरविंद लाइव, सिब्बल लाइव, रामदेव लाइव, स्वामी लाइव, बेदी लाइव... आमजन के तौर पर इक्ट्ठा हुए सैकड़ों लोग भी लाइव में अपना चेहरा चमकाने के लिए हसरत भरी नज़रों से कैमरों की ओर देख रहे थे... कामातुर पुरुषों की तरह. एक कैमरा पैन हुआ.. और ये लीजिए, ज़ोर-ज़ोर से नारे लगने शुरू. भारत माता की जय, वंदेमातरम, भ्रष्टाचार खत्म करो. चेहरे पर तिरंगे, हाथ में तिरंगे, कपड़े तिरंगे, पर्चे तिरंगे, पोस्टर तिरंगे. जैसे युद्ध विजय हो. ये लोग भ्रष्टाचार को मिटाने आए थे. मंच से कमेटी के लिए लड़ाई चल रही थी. यानी एक जगह पर दो अलग-अलग मकसदों का संघर्ष... मंच पर कमेटी में शामिल होने का और मंच के सामने भ्रष्टाचार मिटाने का...!



बौद्धिक दखल रखने वाले एक बड़े हिस्से को आखिर तक और कुछ को तो अभी तक समझ में नहीं आया है कि इस पूरे ड्रामे को किस तरह से लिया जाए. ? कुछ लोग इस भ्रम और अनिर्णय में मंच तक जा पहुंचे कि कहीं एक बड़ी लड़ाई में तब्दील होते इस सिविल सोसाइटी कैम्पेन से वो अछूते न रह जाएं. कहीं ऐसा न हो कि समाज और मीडिया उनसे पूछे कि जब इतना बड़ा यज्ञ हो रहा था तो आप अपनी आहुति की थाली लेकर क्यों नहीं पहुंचे...और अंत में आम आदमी आवाक सा मुहं फाड़े इस भ्रष्टाचार के विरुद्ध होने वाली सर्कस के हर एपिसोड को देखता चला आ रहा है...पहले एपिसोड से लेटेस्ट एपिसोडों की तुलना कर हैरान हो कर  सर खुजाता नज़र आ रहा है...जूतम पैजार...टीम अन्ना की बयान बाज़ी...पाला बदलते बयान...राजनैतिक बिसात पर टीम अन्ना की डेढ़ चाल ...आम आदमी को लग रहा है...की इस सर्कस में हर बार उसको ही मोहरा बनाया गया...हर बार भीड़ रुपी तवे पर रोटियां सेंकी गयी...जब मुंबई में तवा गरमा न हो सका तो शो बीच में ही ख़त्म...अब इस भीड़ को राजनीति की बिसात पर खींच कर कौनसी रोटियां सेंकने की फिराक मैं हैं...यह शायद अब उसकी समझ में आने लगा है., यानी इस मीडिया पोषित बाबा/अन्ना आन्दोलन और सरकार के बीच के फुल तमाशे में अगर कोई ठगा गया तो वो है...आम आदमी...बाक़ी सब की तो बल्ले बल्ले हो ही चुकी है...यह बात भी जनता देख और समझ चुकी है...!!

जूता, चप्पल, थप्पड़ और स्याही... राजनैतिक, मानसिक या प्रायोजित....??

जूते चप्पल, थप्पड़ और स्याही फेंकने की कला का ज़ोरदार प्रदर्शन जितना हमारे देश में होना शुरू हुआ है...वो हैरत में डालने वाला है...इराकी पत्रकार मुन्तजिर अल जैदी के जूते की तर्ज़ पर ....तड़ा तड नक़ल जारी है.......अब इसमें कई लोचे भी हैं.....कुछ जूते, चप्पल, स्याही और थप्पड़  तो राजनैतिक  थे, कुछ मानसिक...और कुछ प्रायोजित....कुछ में तो मारने वाले की चाँदी हो गयी...कुछ में पड़ने वाले की...शरद पंवार को थप्पड़ मारने वाले के थप्पड़ का कारण मानसिक निकला.... यह उसकी डाक्टरी रिपोर्ट से पता चला... मानसिक थप्पड़ और जूते के पीछे क्रोध और आवेश भी शामिल होते हैं...यह बात भी इस में निहित है.....कांग्रेस के प्रवक्ता जनार्दन द्विवेदी  को  जूता दिखने वाले  राजस्थान के सीकर निवासी सुनील  कुमार  का  जूता राजनैतिक  निकला , वो भाजपा से सम्बंधित एक संगठन से काफी अरसे से जुड़ा रहा था...   उदाहरणों की कमी नहीं है... स्याही डाल खुद को राजनीति में चमकाने की इच्छा रखने वाले सिद्दीकी ने बाबा को दो दिन तक मीडिया में चमका दिया.......प्रशांत भूषन के थप्पड़ मार कर सरदार बग्गा जी ने अपनी भगत सिंह क्रान्ति सेना की दुकान चमका डाली....और देहरादून में  किशन लाल नाम के एक व्यक्ति ने जूता उछाल कर टीम को मीडिया में चमका दिया...अब यह जूता राजनैतिक तो हो नहीं सकता...प्रायोजित ज़रूर हो सकता है...प्रायोजक कौन है....? अरे भाई वही होगा....जिसको इस जूते से लाभ ज्यादा हुआ हो...अर्थात जिस जूते, चप्पल, थप्पड़ या स्याही से पड़ने वाली पार्टी को लाभ और सिर्फ लाभ ही हो ...उस को तो हम प्रायोजित ही कह सकते हैं.....!


टीम अन्ना का देहरादून दौरा जूते की वजह से चर्चा में ज्यादा रहा। जूता, चप्पल फेंकना एक फैशन होता जा रहा है, यह दुर्भाग्यपूर्ण है। लोकतांत्रिक मर्यादाओं की सीमाओं के भीतर रहकर विरोध करने के बजाय जूता चप्पल फेंकना स्याही फेंकना, थप्पड़ मारना जैसी हरकतों के बढ़ जाने से आपसी टकराव होंगे, मारपीट होगी और यह हमें अराजकता की ओर ले जाएगा। टीम अन्ना चूंकि राजनीति की बिसात पर उतर आई है इसलिए उसे भी यही सब, या इससे ज्यादा की  भी  झेलने की आदत डालनी होगी ..जो की अक्सर इस बिसात पर होता ही रहता है...!!

तहरीर चौक से जनलोकपाल आन्दोलन तक सिर्फ विफलता~~~~~!!

अप्रैल' 2011  में जब समाजसेवी अण्णा हजारे भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन का नेतृत्व करने दिल्ली के जंतर-मंतर गए और उनके तथाकथित आमरण अनशन के समर्थन में हजारों लोगों की भीड़ जमा हो गई तो मीडिया के एक वर्ग ने इस आंदोलन की तुलना इजिप्ट के तहरीर चौक क्रांति से की थी।सोशल नेटवर्किंग मीडिया के उस वर्ग ने अण्णा के आंदोलन में जितना बखूबी सदुपयोग किया गया उससे भी अण्णा लीला और जास्मिन क्रांति का साम्य दिखाना स्वाभाविक था। जिस रिकी पटेल ने इजिप्त, जॉड्रन और ट्यूनीशिया में सोशल मीडिया का उपयोग किया था वही रिकी पटेल अण्णा हजारे की अनशनलीला में भी योगदान कर रहा था। यह दुर्दशा अकेले जंतर-मंतर की मौखिक क्रांति की ही नहीं है, बल्कि अरब की जास्मिन क्रांति भी विफलता का सामना कर रही है। जब अण्णा ‘मौन व्रत’ पर थे ठीक उसी समय जास्मिन क्रांति के भूक्षेत्र अरब में महत्वपूर्ण घटनाएं हुई।


 तहरीर चौक की क्रांति के साथ ही लीबिया में शुरू हुई बगावत में छिड़े युद्ध में कर्नल मुअम्मर गद्दाफी अपने गृह नगर सिरते में मारे गए। गद्दाफी के बाद सऊदी अरब के 86 वर्षीय राजकुमार की मौत और ट्यूनीशिया में चुनाव सम्पन्न हुए। जास्मिन क्रांति में शामिल सीरिया में बशर-अल-असद की सत्ता के खिलाफ हिंसा का दौर जारी है, यमन अराजकता के अंधड़ से मुकाबिल है। इजिप्त तहरीर चौक की क्रांति पर पछता रहा है। आठ माह पुरानी क्रांति घायल, रक्तरंजित और भ्रमित है, विशेषकर बड़े पैमाने पर अब अलोकप्रिय है। कोई नहीं जानता कि इसका नियंत्रा किसके पास है? शक है कि यह सचमुच क्रांति थी या सैनिक तख्तापलट। अधिकांश इजिप्तवासी निराश और खौफजदा हैं।होस्ने मुबारक को हटाना सेना को तो मुबारक हुआ है, जनता को नहीं।  अमेरिका के पैसों पर पलने वाली सेना अब वहां आम निहत्ते नागरिकों का क़त्ले आम कर रही है...कुछ दिनों पहले पूरे विश्व में मिश्री सेना द्वारा सरे आम एक महिला को निर्वस्त्र कर जूते लातों से निर्ममता से पीटने का विडियो और समाचार प्रकाशित हो चुके हैं...तहरीर चौक रो रहा है...उधर  बहरीन में जास्मिन क्रांति विफलता का स्वाद चख चुकी है। अब मुंबई में जनलोकपाल पर हुए असफल आन्दोलन के बाद ....केवल असफलता के समाचार निकल कर आ रहे हैं... टीम अन्ना के निरंकुश बर्ताव ने एक बार फिर सवाल खड़ा कर दिया है...जिस टीम ने कभी अपने मंच से उमा भारती को चढ़ने नहीं दिया था...जिस ने रामदेव से परहेज़ किया था...अब वही टीम अन्ना के सदस्य ...रामदेव की शरण में जा रहे हैं...उन रामदेव की ...जिनका काला धन मुद्दा...हाशिये पर पड़ा है...बाबा काले धन पर जोर लगाएं.....या जनलोकपाल पर......कुल मिलकर ...देखा जाए....तो तहरीर चौक की क्रान्ति से लेकर....लीबिया, यमन, ट्यूनिसिया, सीरिया...की प्रायोजित क्रांतियों के साथ  जनलोकपाल आन्दोलन का  हश्र  भी लगभग...एक जैसा ही हो चुका है.....!!

सोशल नेटवर्किंग साइट्स से राष्ट्रिय एकता और धार्मिक सौहार्द की कीमत पर समझौता हरगिज़ नहीं~~!

देश में सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर लगाम की अटकलों पर नज़र डाली जाए तो पायेंगे कि ..इसके मूल में राष्ट्रिय एकता, सौहार्द और धार्मिक समन्वयता को बिगाड़ने वालों पर शिकंजा कसने और सजा  का ही विचार है....न कि किसी राजनैतिक पार्टी या आन्दोलन पर लगाम लगाने की....यह अफवाहें फैलाने वाले वही लोग हैं...जो कि इस गंदगी को फेसबुक पर फैला कर खुश हो रहे हैं.....जो फेसबुक यूज़र ज्यादा राजनैतिक ग्रुप्स के सदस्य रह चुके हैं...उन को पता होगा कि कई ग्रुप तो सिर्फ विद्वेष और घृणा फैलाने के लिए ही बने हैं...काफी यूज़र इस बात के गवाह भी होंगे...भले वो सामने ना आयें...या सहमती ना दें...पर यह सच है....फेसबुक पर ऐसे सैंकड़ों  घृणित ग्रुप्स की बड़ी लम्बी लिस्ट हैं...जैसे  कि समाचार हैं...कि गूगल, फेसबुक और 19 अन्य सोशल नेटवर्किंग साइटस पर विभिन्न वर्गों  के बीच वैमनस्य बढ़ाने के आरोप में कानूनी कार्रवाई के आदेश कोर्ट ने दिया हैं..  अदालत ने कहा था कि शुरुआती प्रमाणों के आधार पर आरोपी  21 कंपनियों के खिलाफ वर्ग वैमनस्य बढ़ाने, राष्ट्रीय एकता को क्षति पहुंचाने और लोगों की धार्मिक भावनाओं को चोट पहुंचाने के लिए समन जारी करने का मामला बनता है।
भारत जैसे धर्म निरपेक्ष देश में सोशल नेटवर्किंग साइट्स का गलत प्रयोग  कुछ प्रदूषित  मानसिकता वाले संगठनों द्वारा प्रायोजित ग्रुप और कुछ हद तक धार्मिक वैमनस्यता फैला कर वोट बटोरने वाली राजनैतिक पार्टियाँ करती चली आ रही हैं...!!

 राजस्थान में पिछले माह तीन शहरों में ऐसे ही फेसबुक पर  धार्मिक वैमनस्यता फैलाने वाले फोटो को लेकर तीन चार दिन तक जमकर उपद्रव हुआ था...जिसको की बाद में राज्य व केंद्र सरकार के हस्तक्षेप के बाद हटा दिया गया...अब ऐसे में देश के किसी भी धर्मं का आदमी नहीं चाहेगा कि उसके धर्म का फेसबुक या अन्य साइट्स पर अपमान हो....इसलिए केंद्र सरकार और सूचना प्रसारण मंत्रालय को कोई रास्ता इस साइट्स के अधिकारीयों के साथ मिल बैठकर निकालना होगा.... .जिससे कि देश में कम से कम ऐसे ज़बरदस्त सोशल नेटवर्किंग साइट्स का दुरूपयोग न हो पाए...और साथ ही मैं जो करोड़ों यूज़र इस का सदुपयोग कर रहे हैं...उनको निराशा भी ना हो....और रास्ता होगा भी.....निकलेगा भी....क्योंकि इस सूचना क्रान्ति के दौर में कुछ भी असंभव नहीं...! और साथ ही में कोर्ट यह भी सुनिश्चित करे कि अभिव्यक्ति की आज़ादी का हनन भी ना हो....तीसरी बात यह क़दम राष्ट्रीय एकता..अखंडता और सौहार्द को बचने के लिए हो.....ना कि राजनीतक लाभ उठाने या फिर किसी दल विशेष को निशाना बनाने के लिए...!और इसके समर्थन में उन सभी यूज़र्स को आगे आना चाहिए जो कि इस मंच का रचनात्मक उपयोग कर रहे हैं...जो इसकी उपयोगिता समझते हैं...!!

भाजपा--लोकायुक्त ---और जनलोकपाल--मुखौटा दर मुखौटा~~~~!!

भारत में भ्रष्टाचार से लड़ाई अगर लोकपाल , या उसके कथित आदर्श रूप ' जन लोकपाल ' के जरिए ही लड़ी जानी है , तो संसद के दोनों सदनों में इस मुद्दे पर हुई राजनैतिक दलों की  बहस से लगता है कि इस लड़ाई का कोई भविष्य नहीं है। संसद में बीजेपी ने इस बिल की सबसे बड़ी कमजोरी यह बताई कि इसमें सीबीआई को लोकपाल के हवाले नहीं किया गया है। जिस पार्टी ने अपने शासनकाल में सीबीआई का खुला दुरुपयोग अयोध्या कांड में फंसे अपने गृहमंत्री को बचाने में किया हो , वह अचानक इस संस्था को सरकारी नियंत्रण से मुक्त करने के लिए आतुर हो जाए , यह बात आसानी से गले नहीं उतरती। बहरहाल , सरकारी लोकपाल विधेयक के प्रति बीजेपी की सबसे बड़ी नाराजगी का बिंदु सीबीआई नहीं , राज्यों में लोकायुक्तों की नियुक्ति है। लोकपाल को संवैधानिक दर्जा देने के विधेयक का विरोध करते हुए उसका कहना था कि सरकारी बिल में लोकपाल की ही तर्ज पर लोकायुक्तों की नियुक्ति की बात कह कर देश के संघीय ढांचे का उल्लंघन किया गया है। यह चूंकि खुद में एक असंवैधानिक प्रस्थापना है , लिहाजा इसे जायज बनाने वाले संविधान संशोधन को मंजूरी नहीं दी जा सकती।


बिना किसी प्रस्तावना या पूर्वपीठिका के आया बीजेपी का यह विचार सचमुच बौखलाहट पैदा करने वाला है। रामलीला मैदान में अपने अनशन के दौरान अन्ना हजारे ने जो तीन - चार शर्तें संसद के सामने रखी थीं , उनमें एक यह भी थी कि राज्यों में लोकायुक्तों की नियुक्ति लोकपाल को ही मॉडल बनाते हुए की जाए और इसे लोकपाल कानून के जरिए बाध्यकारी बनाया जाए। उस समय बीजेपी ने न सिर्फ संसद में अन्ना की सारी शर्तों की ताईद की थी , बल्कि तब से अब तक सभी संभावित मंचों से इसका श्रेय लेने की भरपूर कोशिश भी की थी। और तो और , हाल में जंतर - मंतर पर अन्ना के एक दिवसीय अनशन में उनके मंच पर पहुंचे शीर्ष बीजेपी नेताओं ने एक बार भी ऐसा कोई संकेत नहीं दिया कि अन्ना की कुछ शर्तों से उनका विरोध है , और उन्हें वे असंवैधानिक मानते हैं। बल्कि मीडिया के सामने अन्ना की हर बात में उनकी मुंडी हाँ में ही हिलती नज़र आयी थी...जो कि संसद में अचानक ही ना में हिलती नज़र आने लगी...!

कंबल ओढ़कर घी पीने की यह रणनीति मौका मिलने पर भारत की सारी राजनीतिक पार्टियां अपनाती हैं , जिसमें उनके नेता यह मानकर चलते हैं कि इस देश की जनता ज्यादा महीन बातें नहीं समझती , और जब तक हवा अपनी तरफ है , तब तक किसी भी मुद्दे पर स्याह - सफेद में कुछ कहने की जरूरत क्या है।

यह तो वही घृणित राजनीतिक ट्रेंड है~~~~!!

अन्ना हजारे ने अपने लोकपाल आंदोलन के प्रचार में जिस प्रकार कांग्रेस के नौजवान नेता राहुल गांधी का नाम घसीटा और बार - बार बिना किसी तर्क के उनकी आलोचना की , वह अनावश्यक था। लेकिन वह वर्षों पुराने एक राजनीतिक ट्रेंड की याद दिलाता है। यह ट्रेंड है किसी जन नेता की लोकप्रियता को खत्म करने के लिए उस पर बार - बार कीचड़ उछालना , उसके प्रति लोगों के मन में संदेह पैदा करना और उसे विलेन की तरह पेश करना। यह ट्रेंड मुख्य तौर पर भारतीय जनता पार्टी का रहा है। जनसंघ के जमाने से बीजेपी इसी ढर्रे पर चल रही है।

हर चीज से एतराज :
लेकिन जब इंदिरा जी ने कार्यभार संभाला तब जनसंघ उनके खिलाफ बहुत आक्रामक था। अटल बिहारी वाजपेयी तब जनसंघ के आक्रमण का नेतृत्व करते थे। तब उन्हें ' गूंगी गुड़िया ' बताने का प्रयास किया जाता था।  जब राजा - रजवाड़ों के प्रिवी पर्स समाप्त करने की उन्होंने घोषणा की , तब जनसंघ ने उसी प्रकार उनके खिलाफ अभियान चलाया , जैसे बीजेपी ने हाल के दिनों में खुदरा व्यापार में विदेशी पूंजी निवेश के सरकारी निर्णय के खिलाफ जोरदार प्रचार किया था। तब जनसंघ ने न सिर्फ प्रिवी पर्स खत्म करने के निर्णय के खिलाफ संसद में मतदान किया था , बल्कि अटल जी ने इस विधेयक के खिलाफ जोरदार भाषण भी दिया था। भारत - पाक युद्ध में हमारी विजय हो या बैंकों के राष्ट्रीयकरण का प्रस्ताव , जनसंघ ने हमेशा इंदिरा जी को निशाने पर रखा और बहुत बाद में जाकर उनका नेतृत्व स्वीकार किया। जब कांग्रेस के क्षितिज पर राजीव गांधी का उदय हुआ , तब तक बीजेपी अस्तित्व में आ चुकी थी। उन्हें बच्चा , नासमझ , अपरिपक्व बताने में बीजेपी ने कभी कोताही नहीं बरती। वही राजीव गांधी आगे चलकर कंप्यूटर क्रांति और उदारीकरण की नींव रखते हैं , जिस पर अपना आशियाना बनाने से अटल बिहारी वाजपेयी भी नहीं चूके। चाहे दलबदल विरोधी कानून हो या संविधान का 73 वां व 74 वां संशोधन , या 18 वर्ष तक के युवाओं को मतदान का अधिकार देने का फैसला , बीजेपी विरोध के लिए विरोध करती रही , लेकिन बाद में इन सभी फैसलों को भारत की राजनीतिक विरासत मानकर उसी रास्ते पर चली।

1998 में जब श्रीमती सोनिया गांधी ने कांग्रेस की कमान संभाली , तब फिर बीजेपी को एक नया निशाना मिला। उनके विदेशी मूल के मुद्दे को बीजेपी ने राष्ट्रीय प्रश्न बना दिया। आडवाणी जी से लेकर स्व . प्रमोद महाजन तक - कांग्रेस के प्रति वैचारिक मतभेद पर जोर देने के बजाय सोनिया गांधी पर व्यक्तिगत हमले करने लगे। उन्होंने इसे चुनावी मुद्दा भी बनाया। 2004 का लोकसभा चुनाव बीजेपी ने इसी मुद्दे पर लड़ा। सुषमा स्वराज ने बाल मुड़वा कर संन्यासन बनने तक की धमकी दे डाली। नतीजा क्या हुआ ? दोबारा 2009 में भी बीजेपी को लोकसभा चुनाव हारना पड़ा। अब उन्होंने सोनिया गांधी का नेतृत्व स्वीकार कर लिया है। अक्सर सरकार के विवादास्पद फैसलों के वक्त बीजेपी का शीर्ष नेतृत्व सोनिया जी की तरफ एक उम्मीद से देखता है। यह कोई बदलाव नहीं , बल्कि जनसंघ के जमाने से चला आ रहा घिसापिटा तौरतरीका है।

इसी तरीके का अब राहुल गांधी के खिलाफ इस्तेमाल किया जा रहा है। राहुल गांधी दलित के घर जाकर उनके साथ खाना खाते हैं तो बीजेपी उनकी आलोचना करती है। भट्टा पारसौल में किसानों के आंदोलन का नेतृत्व करते हैं तो बीजेपी को तकलीफ होती है। उत्तर प्रदेश में वे अपने तरीके से कांग्रेस का पुनर्जीवित करने में लगे हैं तो उसमें बीजेपी नुक्स निकालती है। लोकसभा चुनावों में जब कांग्रेस को आशातीत सफलता मिली , तो बीजेपी ने चुप्पी साध ली। गुजरात में या बिहार में कांग्रेस हार गई तो बीजेपी ने राहुल गांधी के नेतृत्व पर प्रश्नचिह्न खड़ा कर दिया। असम और केरल में जब राहुल गांधी के धुआंधार प्रचार से कांग्रेस जीती तो बीजेपी को सांप सूंघ गया। राहुल गांधी छुट्टी मनाने जाएंगे तो बीजेपी को एतराज होगा। वे लोकपाल को संवैधानिक दर्जा देने की बात कहें तो बीजेपी के साथी उन्हें बोलने से रोकने के लिए आक्रामक हो जाएंगे।

ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में बीजेपी या जनसंघ का यह चरित्र रहा है। बहुत समय तक वे गांधी का चरित्र हनन करने की कोशिश करते रहे। जब - जब गांधी - नेहरू परिवार से कोई नया नेतृत्व उभरा है , तब - तब उसे पनपने से रोकने के लिए बीजेपी ने निचले स्तर पर उतर कर हमले किए हैं। यहाँ तक की प्रियंका गांधी से भी इनको अब डर लगने लगा है...राबर्ट वढेरा को निशाना बना कर साथी हमले किये जा रहे हैं...बड़े शर्म की बात है..जो लोग महात्मा गांधी को नहीं माने..जो लोग गोडसे का महिमा मंडन करते नहीं थकते...उसके फोटो अपने घरों में लगाने की हिदायतें देते हों...उनसे आशा भी क्या की जा सकती है...
.. इसके अलावा पिछले कुछ समय तक वे मनमोहन सिंह की ईमानदारी को लेकर भी शक पैदा करने की कोशिश करते रहे हैं , हालांकि इसका उन्हें कोई लाभ नहीं हुआ। अब कुछ उसी तरह के ढर्रे पर अन्ना हजारे भी चलते दिख रहे हैं। वे कहते हैं , ' गरीब की झोपड़ी में जाकर खाना खाने से कुछ नहीं होगा ' या ' मुझे ऐसा अंदेशा होता है कि इसके पीछे राहुल गांधी है।

अन्ना की ऐसी टिप्पणियां बीजेपी वालों की टिप्पणी से कतई भिन्न नहीं लगती। राहुल गांधी के प्रधानमंत्री बनने की काबिलियत पर रोज बीजेपी डर कर  अपनी आशंका प्रकट करती है , अन्ना ने भी जंतरमंतर से बोलते हुए यही कहा। दरअसल अन्ना हजारे ने जिस लोकपाल की स्थापना के लिए राष्ट्रव्यापी आंदोलन छेड़ा , राहुल गांधी ने उसको चुनाव आयोग की तरह एक संवैधानिक दर्जा देने का आग्रह करके अन्ना के आंदोलन को एक ताकत देने की कोशिश की थी । और भाजपा ने अपना पूरा जोर लगा कर इस कोशिश को अमल में नहीं लाने दिया...!!
(श्री संजय निरुपम जी के लेख से साभार)
सम्बंधित लिंक :-  http://navbharattimes.indiatimes.com/thoughts-platform/viewpoint/--/electionarticleshow/11122091.cms 


इतनी कमज़ोर टीम अन्ना...माँगे...मज़बूत जन लोकपाल~~~!!

अन्ना बीमार होकर हॉस्पिटल पहुँच गए इसके साथ उनका अनशन और जेल भरो आन्दोलन भी रद्द हो गया| अ़ब भारत जैसे देश में कुछ चुप्पी और शांति हो चुकी है| टीम अन्ना जो हमेशा मीडिया में विवरण देती नज़र आती थी अब वो कहाँ हैं ? क्या अन्ना जी की तरह टीम अन्ना भी बीमार है? यदि अन्ना बीमार हैं तो उनकी टीम को अनशन के साथ जेल भरो आन्दोलन रद्द नहीं करना चाइए था | क्या टीम अन्ना यह सब करने में असमर्थ हैं ? यह टीम अन्ना पर ही निर्भर क्यों हैं ? यदि टीम का कप्तान बीमार है तो पूरी टीम को खेलना बंद कर देना चाइए ?

मुंबई अनशन का रद्द होना अन्ना का बीमार होना क्यों बोला जाता हैं ? यदि अन्ना जी बीमार थे तो उनको मंच पर क्यों बिठाया गया ? टीम अन्ना को अनशन जारी रखना चाइए था | यह टीम अन्ना इतनी बेसहारा और कमजोर क्यों हैं ? पर यह बात मजबूत लोकपाल के लिए करती हैं | यदि देखा जाए तो भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन भीड़ की वजह से आगे खिसक रहा था | कहने को इस आन्दोलन का फायदा लोगों को और यह उनके लिए है परन्तु असलियत तो यही हैं उनकी टीम भीड़ को टूल्स समझ कर इस्तेमाल कर रही है|

यह " लाओ या जाओ " क्या है...अन्ना जी....??

लोकपाल जैसी कोई संस्था होनी चाहिए, यह विचार दशकों पुराना है। इस अवधि में कई विभिन्न पार्टियां सत्ता में रहीं परंतु लोकपाल बिल की ओर किसी ने विशेष ध्यान नहीं दिया। चाहे वह जनता पार्टी हो, वी. पी. सिंह या भाजपा के नेतृत्व वाला एनडीए - सभी ने लोकपाल बिल के प्रस्ताव को ठंडे बस्ते में डालकर रखा। फिर एकदम अचानक से अन्ना के   यह ताबड़तोड़  नारे, उपवास, अनशन, और आंदोलन क्यों.... ? क्या एक ही बार में दशकों से चले आ रहे इस भ्रष्टाचार रुपी ट्यूमर  का इलाज करना संभव है...? यानी एक साथ ही इस ट्यूमर की कीमोथेरेपी, एंटीबायोटिक, चीर फाड, मरहम पट्टी सब हो सकना संभव है...? बिलकुल नहीं.....इसमें कोई संदेह नहीं कि वर्तमान व्यवस्था में कई खामियां हैं। यह व्यवस्था बहुत धीमी गति से काम करती है। परंतु सवाल यह है कि इस व्यवस्था का विकल्प क्या है ? क्या यह विकल्प “लाओ या जाओ“ है, जैसा कि अन्ना कह रहे हैं। क्या “लाओ या जाओ” नारे की मूल प्रकृति राजनैतिक नहीं है ? क्या इसका अंतिम लक्ष्य उस पार्टी को शासन में लाना नहीं है जिससे जुड़े तत्व “मैं अन्ना हूं“ टोपियां और टी शर्टें बांट रहे हैं और घर-घर जाकर मध्यम और अन्य वर्गों का समर्थन जुटा रहे हैं ? यह कैसा इलाज है...यह इलाज तो  रोग से भी ज्यादा खतरनाक है.....।।

विचलित कोण के साइड इफेक्ट ~~~!!

भ्रष्टाचार के विरुद्ध इस लड़ाई के आयाम, कोण  और दिशायें पूर्ण रूप से केवल भ्रष्टाचार के ही खिलाफ होना चाहिये न कि किसी व्यक्ति विशेष के खिलाफ या किसी राजनीतिक दल विशेष के खिलाफ , भ्रष्टाचार वहॉं भी है जहॉं भाजपा की या अन्य गैर कांग्रेसी दलों की सरकारें हैं , लेकिन भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई की दिशा बदल कर जब कांग्रेस के खिलाफ लड़ाई में बदल जाती है तो भ्रष्टाचार के खिलाफ चलाया जाने वाला हर आंदोलन चाहे वह सामाजिक आंदोलन ही क्यों न हो दूषित होकर उसमें खोट आ जाता है और तब वह आंदोलन भ्रष्टाचार के खिलाफ न होकर कांग्रेस के या सरकार के या संसद के खिलाफ आंदोलन में परिणित हो जाता है...!  तब ऐसा आंदोलन राजनीतिक आंदोलन में स्वत: परिणित हो जाता है और खुद ब खुद ही ध्वस्त हो जाता है , रामदेव हों या अन्ना हों ... जब तक सामाजिक जमीन पर रहे .. आंदोलन की दिशा सामाजिक बनाये रखे रहे तब तक इनके आंदोलन जीवित बने रहे, लेकिन जैसे ही इनके आंदोलनों में राजनीतिक मिश्रण प्रारंभ हुआ और इनकी लड़ाईयॉं भ्रष्टाचार से हट कर राजनीतिक लड़ाई में तब्दील हुयीं, तैसे ही इनके आंदोलन और इन लोगों के वजूद भी ध्वस्त हो गये.... देश बनाम भ्रष्टाचार और आंदोलन बनाम कांग्रेस में बहुत फर्क है ... दूसरी बात जो भी भ्रष्टाचार की लड़ाई के  फौजी खुद ही तीन पॉंच करने काले पीले नीले हरे करने के काम में लिप्त हो यह देश उसका साथ कतई नहीं देगा ...!!