शुक्रवार, 29 अप्रैल 2016

सोशल मीडिया पर बार बार पर्दे और बुर्क़े पर जंग किसलिए ? ?

फेसबुक पर पिछले कुछ दिनों से कुछ लोग गोलबंद होकर पर्दे और बुर्क़े के खिलाफ तथा औरतें क्या पहने  क्या नहीं पहनें मुद्दे पर जंग छेड़े हुए हैं, इसे अप्रत्यक्ष रूप से पर्दा विरोध भी कह सकते हैं जबकि भारत में मुसलमानो के अलावा भी कई धर्मों में चेहरा ढंकने, घूंघट लेने, सर पर पल्लू डालने की पर्दा रुपी परंपरा देखी जा सकती है !

अगर इस पर्दे  या बुर्क़े को वैश्विक पटल पर देखें तो बहुत कुछ साफ़ हो जाता है कि विश्व के बड़े मुस्लिम देशों में इस बुर्क़े और पर्दे को किस तरह से देखा और अंगीकार किया जाता है !

जनवरी 2014 को हफिंगटन पोस्ट में 7 बड़े मुस्लिम देशों में मुस्लिम महिलाओं के पर्दे और उसके प्रकार पर The University of Michigan’s Institute for Social Research द्वारा किये गए सर्वे की रिपोर्ट प्रकाशित हुई थी :-
http://www.huffingtonpost.com/entry/female-muslim-dress-survey_n_4564188.html?section=india

जिसके कि यहाँ चार्ट और उदाहरण हैं !

पहले वाले चार्ट में यहाँ एक टेबल है जिसमें पर्दे को 5 भागों में बांटा गया है, पहला नंबर बुर्का है, दूसरा नक़ाब, तीसरा चादर, चौथा अल-अमीरा, पांचवां हिजाब ! साथ ही प्रमुख मुस्लिम देशों में किये गए सर्वे में सार्वजनिक जगह पर पर्दे के लिए पहने जाने के लिए पसंद किये जाने वाले वस्त्रों में बुर्का सबसे नीचे है !

बुर्क़ा :-
बुर्का मु‌स्लिम महिलाओं के शरीर को सबसे ज्यादा ढकने वाला पहनावा है। ये एक तरह का लबादा है जो सिर से पैर तक पूरे जिस्म को ढक लेता है। आमतौर पर बुर्का एक ही कपड़े से बनता है। इसे इस तरह से सिला जाता है कि आंखों के सामने बारीक जाली होती है जिससे कि महिला देख सके। सऊदी अरब और सीरिया जैसे देशों में महिलाओं के लिए बुरका पहनना जरूरी है।

नक़ाब :-
नकाब भी एक तरह का पर्दा है जो मुस्लिम महिलाओं द्वारा पहना जाता है, इसमें हिजाब की तुलना में शरीर ज्यादा ढका होता है। इसे पहनने वाली महिला की सिर्फ आंखें खुली रहती है।

अल-अमायरा  :-
अल-अमायरा यूं तो हिजाब की तरह होता है लेकिन हिजाब से अलग ये दो कपड़ों से बना होता है। पहले कपड़े से सिर को कैप की तरह फिटिंग से ढका जाता है जबकि दूसरे कपड़े से गर्दन को ढका जाता है।

चादर :-
ईरान की अधिकांश महिलाओं में चादर पहनने का चलन है। महिलाएं जब घर के बाहर निकलती हैं तो पूरे शरीर पर काले या किसी गहरे रंग की चादर ओढ़ लेती हैं। कुछ महिलाएं इस चद्दर के नीचे भी सिर पर एक छोटा दुपट्टा डालती हैं।

हिजाब :-
हिजाब शब्द का अर्थ पूरे शरीर को ढकने से है लेकिन मुस्लिम महिलाएं इससे सिर और गर्दन को ढकने के लिए इस्तेमाल करती हैं। आधुनिक मुसलिम देशों में हिजाब प्रचलन में है। ये किसी भी रंग और स्टाइल का हो सकता है।

दूसरे वाले में भी यही चार्ट और यही प्रतिशत है !

यहाँ तीसरा जो चार्ट है वो यह बताता है कि पर्दा औरतों का मसला है, और पर्दे के लिए वो क्या पहने इसके चयन के लिए उनको अधिकार दिया जाना चाहिए, यहाँ आप देशों के साथ साथ उनकी सहमति का प्रतिशत देख सकते हैं !



वहीँ इस बुर्क़े और नक़ाब का सबसे ज़्यादा चलन अफगानिस्तान और सऊदी अरब सहित पर्शियन गल्फ के अरब देशों में है, और चादर का प्रचलन ईराक़, ईरान और लेबनॉन जैसे शिया बहुल देशों में है, वहीँ अल-अमायरा और हिजाब का प्रचलन तुर्की और ईरान के प्रगतिशील मुसलमानो में देखा गया है !

यहाँ सऊदी अरब पर्दे के लिए सबसे सख्त नियमों के पालन के लिए इस सर्वे में सबसे ऊपर आया है !


Full report :- http://mevs.org/files/tmp/Tunisia_FinalReport.pdf

इस सर्वे में साफ़ है कि बुर्क़ा औरतों की पसंद में सबसे नीचे है, और धीरे धीरे इसके विकल्पों को अपनाने की प्रक्रिया जारी है !  बल्कि पाकिस्तान में तो अक्टूबर 2015 में बुर्क़े की अनिवार्यता के खिलाफ संवैधानिक इस्लामिक निकाय Council of Islamic Ideology (CII) ने घोषणा ही कर डाली थी :


हालांकि इन आंकड़ों और सर्वे में भारत का नाम नहीं है, मगर इन सब उपरोक्त 7 मुस्लिम देशों के आंकड़ों पर नज़र डालें तो उनके मुक़ाबले भारत में भी बुर्का ज़्यादा ही हाशिये पर नज़र आएगा !

कुल मिलाकर निचोड़ यह है कि जिस शब्द 'बुर्क़े' पर जंग छिड़ी है, वो कहीं बिलकुल हाशिये पर है, और महिलाओं के बहुत बड़े प्रतिशत को नापसंद भी है !

मगर जहाँ पर्दे पर खुद महिलाओं की पसंद और चयन की बात आती है तो इसमें विभिन्नताएं हैं, जो कि सामाजिक, धार्मिक , भौगोलिक और परिवेश के अनुरूप तय कर ली जाती है और महिलायें अपनी सुविधानुसार इन्हे अंगीकार कर रही हैं, ना किसी के कहने से ना किसी के दबाव से, और ना ही पर्दे के यह भिन्न भिन्न रूप उनकी शैक्षणिक गतिविधियों, उनकी प्रगति, केरियर या नौकरियों में गतिरोध पैदा कर रहे हैं !

मैं ज़बरदस्ती बुर्क़ा पहनाने का समर्थक बिलकुल नहीं, ना ही पर्दे का विरोधी हूँ, ये औरत का मसला है कि वो पर्दा कैसे करती है, मगर जिस तरह से पर्दे और बुर्क़े के समर्थन में तर्क गढ़े जा रहे हैं,  उसका विरोध करता हूँ, वजह यहाँ इस लेख में साफ़ हो गयी है कि विश्व में जब बुर्का जैसा पहनावा या पर्दे का प्रतीक औरतों का मसला है, और पर्दे के लिए वो क्या पहने इसके चयन के लिए उनको अधिकार दिया जाना चाहिए ! ऐसे में पर्दे पर क्रांति करना फ़िज़ूल है। 

बुधवार, 27 अप्रैल 2016

और भी मसले हैं समाज में बुर्क़े के सिवा ~~~!!

अगर औरतों की बराबरी के नाम पर किसी के पेट में मरोड़ उठती है, या बराबरी की तुलना को औरतों को खड़े होकर पेशाब करने से मानते हैं या फिर ट्रक के टायर बदलने से मानते हैं तो माफ़ कीजिये आपका ज्ञान सुधारिये, औरतें यह भी कर रही हैं, खड़े होकर पेशाब भी कर रही हैं और ट्रक के टायर भी बदल रही हैं, चाहें तो फोटो लिंक सहित कमेंट में दे सकता हूँ !!

पिछले दिनों बुर्का युद्ध के दौरान जहाँ एक तरफ बुर्का समर्थकों द्वारा यह दलीलें भी दी गयीं कि उनके साथ बराबरी का व्यवहार किया जाता है, उन पर कोई जोर ज़बरदस्ती नहीं है, वो चाहें तो बुर्का ओढ़ें या ना ओढ़ें, वहीँ दूसरी और औरतों को इस बात पर गरियाया भी गया कि वो बराबरी का हक़ या बुर्क़े की मुखालफत कर नंगी होना चाहती हैं !

मुझे एक बात बताईये कि क्या बुर्क़े के बाद सिर्फ पैंटी और ब्रा ही एक मात्र पहनावा रह जाता है, दुनिया में औरतें क्या यह दो ही पहनावे पहनती हैं बुर्क़ा और उसके बाद ब्रा और पैंटी ? बुर्क़े के बाहर क्या औरत नंगी है ? और जो बुर्का नहीं पहने वो रंडी, तवायफ या छिनाल जैसे बदतरीन और गलीज़ लफ़्ज़ों से नवाज़ी जाए ?

क्या बुर्क़े वाली ही औरत है बाक़ी सब औरतें सनी लीओन हैं, जिसकी कि मिसाल यहाँ फेसबुक पर हज़ार बार देख चुके हैं ?

अगर आपका जवाब हाँ है तो माफ़ कीजिये आप मुल्क की और क़ौम की उन सभी बहन बेटियों को गाली दे रहे हैं जो बुर्का नहीं पहनती हैं, पढ़ लिख कर आला ओहदों पर काम कर रही हैं, चाहे वो डॉक्टर्स हों, जज हों, वकील हों, इंजीनियर्स हों, पुलिस में हों, एयर फ़ोर्स, नेवी, आर्मी या शिक्षा के क्षेत्र में हों !

क्यों फिर आप सब मुल्क की पहली पायलट साराह हमीद..


पहली मुस्लिम एस्ट्रोनॉट अनुशेह अंसारी ..

क्यों राजस्थान हाई कोर्ट में जज बनी यास्मीन खान..

या एशिया की पहली डीज़ल इंजन ड्राइवर मुमताज़ क़ाज़ी ...

की उपलब्धियों पर सुभानल्लाह, माशाल्लाह करते हैं, क्यों इनके बुर्क़ा ना ओढ़ने पर, या इनके हिजाब ना पहनने पर लानतें क्यों नहीं भेजते ??

इस मंच पर हज़ार बार यह देखा गया है कि पर्दे या बुर्क़े पर रोज़ कोई न कोई प्रवचन देता है, बहुत अच्छी बात है, होना भी चाहिए, मगर तर्कों और तहज़ीब के दायरे में, मगर क्या क़ौम की औरतों के लिए यही एक मुद्दा या मसला है ?

औरतें दीन को उतना ही समझती हैं, जितना कि आप और हम, दुनिया भर में हिजाब डे औरतें ही तो मनाती हैं, यूरोप में क्यों हिजाब के लिए औरतें लड़ रही हैं, कोई ज़बरदस्ती तो नहीं ? फिर क्यों उस पर थोपा जाए कि उसे क्या पहनना है और क्या नहीं !

मैं पर्दे का बिलकुल भी मुख़ालिफ़ नहीं हूँ, मगर जोर ज़बरदस्ती के खिलाफ हूँ, यह औरतों का मसला है, आपके यह कहने पर कि "तुम नक़ाब में रहो, दुनिया औक़ात में रहेगी " , वो इसे अपने पर थोपने वाली नहीं, उसे मालूम है कि क्या करना है, कोई औरत नंगी नहीं होना चाहती, जैसा कि यहाँ सीधा इलज़ाम आयद किया जाता है !

दूसरी बात कि यहाँ जितने औरतों के हुक़ूक़ के समर्थन में उठ खड़े हुए हैं, वो ज़रा बताएं कि क़ौम की औरतों की शैक्षणिक स्थिति इतनी बदतर क्यों है ? क्यों हमारी आधी आबादी आर्थिक, शैक्षणिक, स्वावलम्बन के क्षेत्र में बदतरीन हालत में हैं ?

क्यों यहाँ इस मंच पर क़ौम की औरतों की आर्थिक, शैक्षणिक, सामाजिक और सशक्तिकरण के मुद्दों पर बहस नहीं की जाती ?? क्यों इस मसले से हमेशा बच कर निकला जाता है ?

आज अगर कभी भूले भटके क़ौम की औरतों की आर्थिक, शैक्षणिक, सामाजिक और सशक्तिकरण के मुद्दों पर बहस छिड़ जाए तो एक तिहाई बुर्का समर्थक योद्धा मुद्दे से कन्नी काटते नज़र आएंगे !

पिछले दिनों कई लोगों को यहाँ हद दर्जे फूहड़ गालियां और कमेंट करते देखा है, अपनी ही लिस्ट की मुसलमान औरतों को ज़लील करते देखा है, गलियाते देखा है, मैं ऐसे किसी भी फेसबुक दोस्त की फ्रेंड लिस्ट में नहीं रहना चाहता ! कइयों को अनफॉलो किया है, कईयों को चुपचाप अनफ्रेंड किया है, और यह सिलसिला जारी है !

एक आम फेसबुक यूज़र की हैसियत से अपने विचार रखे हैं, आप सभी आज़ाद हैं चाहें तो मुझे संघी कहें, काफिर कहें, नास्तिक का तमग़ा दें, या इसी वक़्त अनफॉलो करें, अनफ्रेंड करें या ब्लॉक करें !!

मगर अब बुर्क़े पर यहाँ बहस ना करें, इस पर यहाँ अपार ज्ञान पहले ही खूब बंट चुका है, करना ही चाहते हैं तो क़ौम की बहन बेटियों की तालीम और उनके सशक्तिकरण पर करें !

सोमवार, 4 अप्रैल 2016

और भी ग़म हैं दुनिया में क्रिकेट के सिवा !!

क्रिकेट से और उसके बाद विज्ञापनों से लाखों करोड़ों कमाते और उसके बाद IPL के लिए करोड़ों में बिकते क्रिकेट खिलाडियों के वारे न्यारे हो रहे हैं ! क्रिकेट को जब से बाजार का साथ मिला है, क्रिकेट एक उत्पाद की तरह बिकना शुरू हो गया है, क्रिकेट विक्रेताओं ने इस पर राष्ट्रवाद की चाशनी चढ़ा कर इसे एक जूनून के तौर पर परोसना शुरू कर दिया है ! इस चकाचौंध भरे खेल ने देश के बाक़ी खेलों और खिलाडियों का क्या हाल किया है ज़रा एक नज़र उस पर भी :-

1. यह फोटो भारतीय महिला फुटबॉल अंडर 14 की कप्तान रह चुकी सोनी की है जो इसी कच्ची झोपड़ी में रहतीं हैं ! देश का नाम रोशन करने वाली सोनी व उसके परिजन को शौच के लिए आज भी खुले में जाना पड़ता है ! 2010 से फुटबॉल खेल रही सोनी अब तक सोनी कई देशों में जाकर खेल चुकी है !


2. यह फोटो गुजरात की नेशनल लेवल की शूटर पुष्पा गुप्ता का है जो सड़क किनारे नूडल्स बेच रही हैं, पुष्पा का कहना है कि शूटिंग में आगे बढ़ने के लिए उन्हें पैसे की जरूरत थी, इसलिए वह यह छोसी-सी दुकान चला रही हैं ! 21 साल की पुष्पा का कहना है, “अब जबकि मेरे पास अपने पैशन को आगे बढ़ाने के लिए पैसे नहीं तो मैंने यह दुकान खोल ली !” पुष्पा के जीते गए मेडल्स भी उनकी दुकान पर लटके नजर आते हैं !


पुष्पा के पिता दिनेश कहते हैं, “पीएम मोदी महिला सशक्तिकरण की बात करते हैं, लेकिन ये सब टीवी और न्यूजपेपर तक ही रह जाता है। जमीनी हकीकत कुछ और है ! हमें इससे कोई फायदा नहीं हुआ।”
- “हम जहां रहते हैं वहां की विधायक महिला हैं ! सीएम भी महिला हैं। हमें सरकार या स्पोर्ट्स मिनिस्ट्री से कुछ मदद मिलती तो आज नूडल्स नहीं बेच रहे होते !”


3. यह फोटो16 साल की हरियाणा स्टेट मुक्केबाजी चैम्पियन रिशु मित्तल का है जो कि घरों में झाड़ू-पोछा लगाकर अपना खर्चा चलाती हैं ! रिशू हरियाणा के कैथल से हैं, उन्होंने पिछले साल राज्य मुक्केबाजी प्रतियोगिता में गोल्ड मेडल जीता था ! रिशु बताती हैं कि वह सुबह-शाम बड़ी लगन और मेहनत से मुक्केबाजी का अभ्यास करती हैं। कोच की मदद और कठिन परिश्रम से उसने स्टेट चैंपियनशिप में गोल्ड मेडल जीता ! रिशु मित्तल बेहद गरीब परिवार से हैं, उसके पास दूध, दही, पनीर और फल खाना तो दूर एक वक्त की रोटी खाने के लिए भी पैसे नहीं होते ! जानकारों का मानना है कि अगर इस खिलाड़ी को यदि पूरी डाइट मिल जाए तो देश की दूसरी ‘मैरीकॉम’बन सकती है !


रिशु ने सितंबर 2014 में राज्य स्तर पर 46 किलो भार वर्ग में स्वर्ण पदक जीता ! दिसबंर 2014 में उन्होंने ग्वालियर में हुए राष्ट्रीय खेलों में प्रदेश का प्रतिनिधित्व किया ! इससे पूर्व 2013 में फरीदाबाद और 2012 में भिवानी में हुए राज्य स्तरीय खेलों में बॉक्सिंग में ही कांस्य पदक भी प्राप्त किया !

4. सड़क पर कचरा उठाते इस खिलाडी का नाम है कमल कुमार, यह  बॉक्सिंग के राज्यस्तरीय खिलाड़ी हैं, कमल कुमार ने 1991 में जिलास्तरीय प्रतियोगिता में स्वर्ण पदक जीता और 1993 में यूपी ओलिंपिक में कांस्य पदक और उसी साल जूनियर नेशनल चैम्पियनशिप अहमदाबाद में उत्तर प्रदेश का प्रतिनिधित्व किया !इसके बाद 2004 में जिलास्तरीय प्रतियोगिता में रजत और 2006 के राज्य खेलों में कांस्य पदक जीता ! इन सभी उपलब्धियों के बाद भी सूबे के इस बॉक्सर को अपने परिवार का पेट पालने के लिए एक अदद नौकरी की दरकार थी, लेकिन सरकार ने इस खिलाड़ी की तरफ कोई ध्यान नहीं दिया ! आखिरकार उसे कूड़ा उठाने का काम करना पड़ा !


कमल कुमार कानपुर के ग्वालटोली इलाके में वह रिक्शे पर घर-घर जाकर कूड़ा उठाते हैं और बचे हुए समय में पान की दुकान लगाते हैं !
कमल को तत्कालीन राज्यपाल मोतीलाल वोरा और राज्य खेलों में पूर्व मंत्री कलराज मिश्रा ने कांस्य पदक से सम्मानित किया था, लेकिन गरीबी के चलते खेल पीछे छूट गया और कहीं सरकारी नौकरी भी न मिली ! इसके बाद जब परिवार पर भूखे मरने की नौबत आई तो कमल ने सारे मेडल घर में टांग दिए और स्नातक की डिग्री भी धरी की धरी रह गई !

5. कार धोने वाले इस खिलाडी का नाम है भारत कुमार जो जिन्होंने प्रकृति से भरत को सिर्फ एक हाथ दिया लेकिन बावजूद इसके न उनके हौंसले कम हुए और न ऊंचे सपनों की उड़ान. एक हाथ और अभावों में भी उन्होंने तैराना सीखा और देश के लिए लिए 50 अंतरराष्ट्रीय पदक भी जीते. उनका सपना है कि वो पैरा ओलंपिक में तैराकी में भारत का प्रतिनिधित्व करें ! DU में पढ़ने वाले भरत आज पैसों की किल्लत से जूझ रहे हैं. अपना पेट पालने के लिए वो रोज़ सुबह गाड़ियां धोते हैं. मदद के लिए उन्होंने PM मोदी से मदद भी मांगी है !!


6. यह फोटो राष्ट्रिय स्टार पर रिकॉर्ड बनाने वाली सिंगुर पश्चिम बंगाल की रहने वाली आशा रॉय का है, जो कि महज़ 11.85 सेकेंड में अपनी दौड़ पूरी करने वाली सबसे तेज़ भारतीय महिला धावक हैं. 2011 कोलकाता में हुए 51 वें राष्ट्रीय ओपन एथलेटिक्स चैंपियनशिप में 200 और 400 मीटर रिले दौड़ में हिस्सा लेकर शानदार प्रदर्शन किया !


अपनी रोज़ाना की ज़िंदगी के लिए आज आशा सब्जियां बेचती हैं. इससे न तो उनकी ज़रूरतें पूरी हो पाती हैं और न ही एथलेटिक्स के लिए भोजन की मांग. लाख गुहार के बाद भी राजनीतिक दलों से उन्हें सिर्फ आश्वासन मिले. इन्हीं हालातों के कारण वो अपने करियर को अलविदा कह चुकी हैं !

7. यह फोटो रेवा मध्य प्रदेश की रहने वाली सीता का है जिनसे कि  2011 एथेंस में हुए स्पेशल ओलंपिक में दो कास्य पदक जीतकर देश को गौरवांवित किया था. सीता ने 200 और 1600 मीटर दौड़ में ये मुकाम पाया था लेकिन इतने शानदार प्रदर्शन के बाद भी आज उसके हालात झकझोर देने वाले हैं !

जीत के बाद शुरूआत में उसे कुछ मदद ज़रूर मिली लेकिन वो इतनी काफी नहीं थी कि उसके ख़्वाबों को उड़ान दे सके. आज वो सड़क पर गोलगप्पे बेचकर अपनी मां का हाथ बंटाती है !

8. यह फोटो पान की दूकान चलाने वाली रश्मिता का है, 12 साल की उम्र में प्रदेश और राष्ट्रीय स्तर प्रतियोगिताओं में शानदार प्रदर्शन करने वालीजो कि अंतरराष्ट्रीय मंच तक पहुंची. उनकी टीम ने 2008 मलेशिया में हुए अंडर 16 एशियन फुटबॉल कंफेडेरशन कप में हिस्सा लिया !

2010 में उनके शानदार प्रदर्शन की बदौलत ओडिशा टीम ने राष्ट्रीय फुटबॉल प्रतियोगिता जीती. वो एशियन फुटबॉल कंफेडेरशन (AFC) में पहुंचने वाली सीनियर टीम का हिस्सा भी रहीं.  फुटबॉल में उनके वो स्वर्णिम दिन जैसे बीते वक्त की बात हो गई है. आज वो एक गृहणी और मां हैं. अपना घर चलाने के लिए पान की दुकान चलाती है. एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा था कि फुटबॉल उनके खून में है लेकिन गरीबी ने उसे ख़त्म कर दिया !

9. सब्ज़ी बेचती इस खिलाडी का नाम है शान्ति देवी, कभी देश की महिला कबड्डी टीम की शान रहीं शांति देवी उस दौर की खिलाड़ी थी, जब महिला खिलाड़ी मुश्किल से ही मिलती थीं. 1976 से अपने करियर की शुरुआत करने वाली शांति देवी ने अपने प्रदेश की टीम को 10 से ज़्यादा बार राष्ट्रीय खेलों में प्रतिनिधित्व किया. गुवाहटी राष्ट्रीय कबड्डी लीग में उन्होंने सिल्वर मेडल जीता था !

अपनी दौर की बेहतरीन खिलाड़ी रहीं शांति देवी आज अपना पेट पालने के लिए सब्जी बेच रही हैं. जमशेदपुर के बाज़ार में उन्हें सब्जी बेचते हुए आज भी देखा जा सकता है. गरीबी का दंश उनके जीवन पर इतना गहरा था कि एक शानदार खिलाड़ी से आज वो एक मज़दूर सी ज़िंदगी बिता रही हैं !

देश में ऐसे ना जाने कितने प्रतिभाशाली खिलाडी अभावों के चलते या तो अपना खेल छोड़ चुके हैं या फिर अपने ही दम पर हाड़तोड़ मेहनत कर जैसे तैसे अपने खेल के जूनून को पूरा कर रहे हैं !

खेल संगठनों की बेरुखी, खेल अधिकारीयों के लचर र'वैये और खेल के नाम पर केवल क्रिकेट को बढ़ावा देने वाले नेताओं का इसमें बराबर का दोष है, यहाँ तक कि देश के राष्ट्रिय खेल की दुर्दशा किसी से छिपी नहीं है, साथ ही भारत के पारम्परिक खेलों और उसके खिलाडियों की लगातार अनदेखी की जा रही है !

प्रसिद्द अंतर्राष्ट्रीय धावक मिल्खा सिंह जी ने ठीक ही कहा था कि क्रिकेट ने देश के सभी खेलों को तबाह कर दिया है !

अगली बार कभी क्रिकेट के लिए चियर्स करें तो उससे पहले एक बार इन पान बेचते, कचरा उठाते, झाड़ू पोंछा करती, सड़क ठेले पर मैडल टांक कर नूडल्स बेचते इन प्रतिभाशाली खिलाडियों के केरियर और उपलब्धियों पर नज़र डालिए और इनकी वर्तमान हालत पर एक बार ज़रूर गौर कीजिये !!

{Source :- दैनिक भास्कर, न्यूज़फ्लिक्स हिंदी}