भारत का तो मुझे ज़्यादा मालूम नहीं, लेकिन पाकिस्तान में मुर्गी का गोश्त बेचने वाले हर कसाई की दुकान पर एक बड़ा सा लोहे का पिंजड़ा पड़ा रहता है, ये पिंजड़ा इतना भारी होता है कि चुराना भी मुश्किल होता है !
सुबह-सुबह मुर्गियों से भरा एक ट्रक आता है और खाली पिंजड़ा ऊपर तक भर जाता है. और फिर कसाई का हाथ इस पिंजड़े में आता है जाता है, जाता है आता है !
वो अपनी मर्ज़ी की मुर्गी नंगे हाथ से पकड़कर बाहर निकालता है !
एक भी मुर्गी उसके हाथ पर चोंच नहीं मारती, बस डरकर सहम जाती हैं और फिर शायद ये सोचकर नॉर्मल हो जाती है कि हो सकता है हमारी बारी न आए !
लेकिन फिर हर शाम को पिंजड़ा खाली होता और सुबह फिर भर जाता है !
कुछ लोग बंदी बनने के बावजूद भी विरोध करना पसंद नहीं करते, बल्कि कई को तो बंदी बनाने वाले से प्यार हो जाता है !
पढ़े-लिखे लोग इसे स्टॉकहोम सिंड्रोम कहते हैं. पर मुझे लगता है कि ये सिंड्रोम सबसे ज़्यादा हमारे देशों में ही पाया जाता है !
(वुसतुल्लाह खान साहब के इसी ब्लॉग से) :-
https://www.bbc.com/hindi/international-38790379
अब आगे जानिये इस 'स्टॉकहोम सिंड्रोम' के बारे में :-
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'स्टॉकहोम सिंड्रोम' नाम मिला था 23 अगस्त 1973 की एक घटना की वजह से !
उस दिन स्वीडन में एक बैंक डकैती हुई थी, दो लोग मशीन गन ले के घुसे थे, घुसते ही बोले कि पार्टी तो अभी शुरू हुई है. बैंक के लोग डर गए, फिर सोचे कि ये लोग चले जायेंगे कुछ देर में, पर हुआ कुछ ऐसा कि मामला 6 दिन खिंच गया, 23 अगस्त से लेकर 28 अगस्त तक, बैंक के स्टाफ बैंक के ही वॉल्ट में बंधुआ बने बैठे थे, और डकैत पुलिस से मोलाई कर रहे थे !
बाहर लोग चिंतित थे कि अन्दर के स्टाफ कितने दर्द में होंगे. क्या सोच रहे होंगे, पर जब स्टाफ बाहर आये तो उनके मन में कोई गुस्सा नहीं था !
बल्कि उलटे डकैतों से उनको बड़ी सहानुभूति हो गई थी. इतनी कि एक स्टाफ ने तो एक डकैत से सगाई कर ली, एक दूसरे स्टाफ ने चंदा लगाकर फंड बनवाया. ताकि डकैतों का केस लड़ा जा सके !
इसके लक्षण किडनैपिंग के अलावा दूसरी बातों में भी देखे जाते हैं. जैसे इंजीनियरिंग के छात्रों में. जब आप पूछेंगे कि रैगिंग कैसी लगती थी ? तो बोलेंगे कि सर, बड़ा मजा आता है, सीनियर लोगों ने जिंदगी जीना सिखा दिया ! जबकि सच्चाई ये थी कि उनको कई बार नंगा कर पीटा भी जाता था !
फिर ये लक्षण रिश्तों में भी देखे जाते हैं, कई जगह हम लोग ये देखते हैं कि पति-पत्नी में मार मची हुई है, हम सोचते हैं कि ये लोग एक-दूसरे से अलग क्यों नहीं हो जाते. क्योंकि कुछ भी जाए, दोनों साथ ही रहते हैं !
इस सिंड्रोम के चलते लोगों को अपने abusers (कष्ट देने वाले) से ही लगाव हो जाता है ! यह एक सुनियोजित ब्रेन वाशिंग रणनीति भी कही जाती है !
और यही लक्षण अब राजनीति में भी परिलिक्षित होते नज़र आने लगे हैं, कभी गैस तो कभी पेट्रोल तो कभी डीज़ल की कीमतें बढ़ती हैं, कभी टैक्स बढ़ता है, तो कभी रेल किराए बढ़ते हैं लोग महंगाई, भुखमरी, नोटबंदी, बेरोज़गारी, साम्प्रदायिकता, किसानों की आत्म हत्याएं और बढ़ती असहिष्णुता के कष्ट उठाने के बावजूद लोग सरकार के गुण गाते नज़र आते हैं !!
'स्टॉकहोम सिंड्रोम' के बारे में विस्तार से यहाँ पढ़ सकते हैं :-
http://www.bbc.com/news/magazine-22447726
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