डिजिटल क्रांति की एक विशेषता यह है कि वह बहुत सूक्ष्म तरीके से भाषा का औपनिवेशीकरण करती है। तकनीक ने शब्दों का अपहरण कर उन्हें नए अर्थ दे दिए हैं। मिसाल के तौर पर फेसबुक पर ‘फ्रेंड’ शब्द किसी भी रिश्ते के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है। इसी तरह पहले परिंदे ‘ट्वीट’ करते थे, अब मनुष्य भी ट्विटिंग करने लगे हैं। एक और शब्द है ‘क्लाउड’। इसका संबंध मौसम या बारिश से नहीं, बल्कि उस ऑनलाइन डाटा से है, जिसका इस्तेमाल हम अपने कंप्यूटर को ओवरलोड होने से बचाने के लिए करते हैं। म्यूजिक, फोटो, डॉक्यूमेंट, हर चीज क्लाउड पर स्टोर की जाती है। क्लाउड को दुनिया में कहीं से भी एक्सेस किया जा सकता है और अब तो मोबाइल फोन पर भी इसका उपयोग संभव है। लेकिन इसका एक नुकसान भी है।
इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि हमारे तमाम डाटा नष्ट नहीं हो जाएंगे। यहां तक कि हमारे डाटा का अपहरण कर उन्हें छुड़ाने के लिए फिरौती भी मांगी जा सकती है। ऑनलाइन सेवाएं मुहैया कराने वाली कंपनियों के व्यावसायिक मानक बहुत अस्थिर किस्म के होते हैं। अगर हमारे मूल्यवान दस्तावेज सहसा नष्ट हो जाएं तो हम किस प्रणाली के तहत उनके लिए दावा करेंगे? हम देख सकते हैं कि स्थायी दस्तावेज या ‘हार्ड कॉपी’ की जरूरत अब कम होती जा रही है। एक ऐसी पीढ़ी उभरी है, जो अपने दस्तावेजों को ऑनलाइन रखना ही पसंद करती है। लेकिन क्या इस तरह ‘क्लाउड्स’ के भरोसे सब कुछ छोड़ा जा सकता है ?
देखिये इस डिजिटल क्रांति में और क्या क्या देखने को मिलने वाला है......!!
(साभार)
इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि हमारे तमाम डाटा नष्ट नहीं हो जाएंगे। यहां तक कि हमारे डाटा का अपहरण कर उन्हें छुड़ाने के लिए फिरौती भी मांगी जा सकती है। ऑनलाइन सेवाएं मुहैया कराने वाली कंपनियों के व्यावसायिक मानक बहुत अस्थिर किस्म के होते हैं। अगर हमारे मूल्यवान दस्तावेज सहसा नष्ट हो जाएं तो हम किस प्रणाली के तहत उनके लिए दावा करेंगे? हम देख सकते हैं कि स्थायी दस्तावेज या ‘हार्ड कॉपी’ की जरूरत अब कम होती जा रही है। एक ऐसी पीढ़ी उभरी है, जो अपने दस्तावेजों को ऑनलाइन रखना ही पसंद करती है। लेकिन क्या इस तरह ‘क्लाउड्स’ के भरोसे सब कुछ छोड़ा जा सकता है ?
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