रविवार, 7 जून 2015

जानिये रोहिंग्या मुसलमानो और उनके क़त्ले आम की वजहों के बारे में !!

रोहिंग्या म‍ुस्लिम प्रमुख रूप से म्यांमार (बर्मा) के अराकान (जिसे राखिन के नाम से भी जाना जाता है) प्रांत में बसने वाले अल्पसंख्यक मुस्लिम लोग हैं ! अराकान म्यांमार की पश्चिमी सीमा पर है और यह आज के बांग्लादेश (जो कि पूर्व में बंगाल का एक हिस्सा था) की सीमा के पास है !

म्यांमार में करीब 8 लाख रोहिंग्या मुस्लिम रहते हैं जो कि बर्मा की आबादी का 5 प्रतिशत ही है, और वे इस देश में सदियों से रहते आए हैं, लेकिन बर्मा के लोग और वहां की सरकार इन लोगों को अपना नागरिक नहीं मानती है ! बिना किसी देश के इन रोहिंग्या लोगों को म्यांमार में भीषण दमन का सामना करना पड़ता है ! बड़ी संख्या में रोहिंग्या लोग बांग्लादेश और थाईलैंड की सीमा पर स्थित शरणार्थी शिविरों में अमानवीय स्थितियों में रहने को विवश हैं !

1400 के आसपास ये लोग ऐसे पहले मुस्लिम्स हैं जो कि बर्मा के अराकान प्रांत में आकर बस गए थे !इनमें से बहुत से लोग 1430 में अराकान पर शासन करने वाले बौद्ध राजा नारामीखला (बर्मीज में मिन सा मुन) के राज दरबार में नौकर थे !

वर्ष 1785 में बर्मा के बौद्ध लोगों ने देश के दक्षिणी हिस्से अराकान पर कब्जा कर लिया, तब उन्होंने रोहिंग्या मुस्लिमों को या तो इलाके से बाहर खदेड़ दिया या फिर उनकी हत्या कर दी ! इस अवधि में अराकान के करीब 35 हजार लोग बंगाल भाग गए जो कि तब अंग्रेजों के अधिकार क्षेत्र में था। वर्ष 1824 से लेकर 1826 तक चले एंग्लो-बर्मीज युद्ध के बाद 1826 में अराकान अंग्रेजों के नियंत्रण में आ गया !

तब अंग्रेजों ने बंगाल के स्थानीय बंगालियों को प्रोत्साहित किया कि वे अराकान ने जनसंख्या रहित क्षेत्र में जाकर बस जाएं ! रोहिंग्या मूल के मुस्लिमों और बंगालियों को प्रोत्साहित किया गया कि वे अराकान (राखिन) में बसें ! ब्रिटिश भारत से बड़ी संख्या में इन प्रवासियों को लेकर स्थानीय बौद्ध राखिन लोगों में विद्वेष की भावना पनपी और तभी से जातीय तनाव पनपा जो कि अभी तक चल रहा है !

दूसरे द्वितीव विश्व युद्ध के दौरान दक्षिण पूर्व एशिया में जापान के बढ़ते दबदबे से आतंकित अंग्रेजों ने अराकान छोड़ दिया और उनके हटते ही मुस्लिमों और बौद्ध लोगों में एक दूसरे का कत्ले आम करने की प्रतियोगिता शुरू हो गई। इस दौर में बहुत से रोहिंग्या मुस्लिमों को उम्मीद थी कि वे ‍अंग्रेजों से सुरक्षा और संरक्षण पा सकते हैं। इस कारण से इन लोगों ने एलाइड ताकतों के लिए जापानी सैनिकों की जासूसी की। जब जापानियों को यह बात पता लगी तो उन्होंने रोहिंग्या मुस्लिमों के खिलाफ यातनाएं देने, हत्याएं और बलात्कार करने का कार्यक्रम शुरू किया। इससे डर कर अराकान से लाखों रोहिंग्या मुस्लिम फिर एक बार बंगाल भाग गए।

द्वितीय विश्वयुद्ध की समाप्त‍ि और 1962 में जनरल नेविन के नेतृत्व में तख्तापलट की कार्रवाई के दौर में रोहिंग्या मुस्लिमों ने अराकान में एक अलग रोहिंग्या देश बनाने की मांग रखी, लेकिन तत्कालीन बर्मी सेना के शासन ने यांगून (पूर्व का रंगून) पर कब्जा करते ही अलगाववादी और गैर राजनीतिक दोनों ही प्रकार के रोहिंग्या लोगों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई की। सैनिक शासन ने रोहिंग्या लोगों को नागरिकता देने से इनकार कर दिया और इन्हें बिना देश वाला (स्टेट लैस) बंगाली घोषित कर दिया।

तब से स्थिति में कोई सुधार नहीं आया है। संयुक्त राष्ट्र की कई रिपोर्टों में कहा गया है कि रोहिंग्या दुनिया के ऐसे अल्पसंख्यक लोग हैं, जिनका लगातार सबसे अधिक दमन किया गया है। बर्मा के सैनिक शासकों ने 1982 के नागरिकता कानून के आधार पर उनसे नागरिकों के सारे अधिकार छीन लिए हैं। ये लोग सुन्नी इस्लाम को मानते हैं और बर्मा में इन पर सरकारी प्रतिबंधों के कारण ये पढ़-लिख भी नहीं पाते हैं तथा केवल बुनियादी इस्लामी तालीम हासिल कर पाते हैं।

बर्मा के शासकों और सै‍‍न्य सत्ता ने इनका कई बार नरसंहार किया, इनकी बस्तियों को जलाया गया, इनकी जमीन को हड़प लिया गया, मस्जिदों को बर्बाद कर दिया गया और इन्हें देश से बाहर खदेड़ दिया गया। ऐसी स्थिति में ये बांग्लादेश की सीमा में प्रवेश कर जाते हैं, थाईलैंड की सीमावर्ती क्षेत्रों में घुसते हैं या फिर सीमा पर ही शिविर लगाकर बने रहते हैं। 1991-92 में दमन के दौर में करीब ढाई लाख रोहिंग्या बांग्लादेश भाग गए थे। इससे पहले इनको सेना ने बंधुआ मजदूर बनाकर रखा, लोगों की हत्याएं भी की गईं, यातनाएं दी गईं और बड़ी संख्या में महिलाओं से बलात्कार किए गए।

संयुक्त राष्ट्र, एमनेस्टी इंटरनेशनल जैसी संस्थाएं रोहिंया लोगों की नारकीय स्थितियों के लिए म्यांमार की सरकारों को दोषी ठहराती रही हैं, लेकिन सरकारों पर कोई असर नहीं पड़ता है। पिछले बीस वर्षों के दौरान किसी भी रोहिंग्या स्कूल या मस्जिद की मरम्मत करने का आदेश नहीं दिया गया है। नए स्कूल, मकान, दुकानें और मस्जिदों को बनाने की इन्हें इजाजत ही नहीं दी जाती है।

इनके मामले में म्यांमार की सेना ही क्या वरन देश में लोकतंत्र की स्थापना का श्रेय लेने वाली आंग सान सूकी का भी मानना है कि रोहिंग्या मुस्लिम म्यांमार के नागरिक ही नहीं हैं। वे भी देश की राष्ट्रपति बनना चाहती हैं, लेकिन उन्हें भी रोहिंग्या लोगों के वोटों की दरकार नहीं है, इसलिए वे इन लोगों के भविष्य को लेकर तनिक भी चिंता नहीं पालती हैं। उन्हें भी राष्ट्रपति की कुर्सी की खातिर केवल सैनिक शासकों के साथ बेतहर तालमेल बैठाने की चिंता रहती है।

उन्होंने कई बार रोहिंग्या लोगों की हालत पर चिंता जाहिर की, लेकिन कभी भी सैनिक शासकों की आलोचना करने का साहस नहीं जुटा सकीं। इसी तरह उन्होंने रोहिंग्या लोगों के लिए केवल दो बच्चे पैदा करने के नियम को मानवाधिकारों का उल्लंघन बताया, लेकिन उन्होंने इसका संसद में विरोध करने की जरूरत नहीं समझी।

रोहिंग्या लोगों के खिलाफ बौद्ध लोगों की हिंसा तो समझ में आती है, लेकिन आश्चर्य की बात यह है कि इस हिंसा में अब बौद्ध भिक्षु भी भाग लेने लगे हैं। इस स्थिति को देखने के बाद भी आंग सान सूकी म्यांमार के लोकतंत्र के लिए संघर्ष में भारत की चुप्पी की कटु आलोचना करती हैं, लेकिन लोकतांत्रिक मूल्यों की यह वैश्विक नायिका रोहिंग्या मुस्लिमों के बारे में कभी एक बात भी नहीं बोतली हैं। और अगर बोलती हैं तो केवल यह कि रोहिंग्या म्यांमार के नागरिक नहीं हैं और कोई भी उन्हें देश का नागरिक बनाने की इच्छी भी नहीं रखता है।

यह सचाई है कि बर्मा में बहुसंख्यक बौद्ध आबादी के बीच पिछले एक-दो सालों से ऐसा कट्टरपंथी प्रचार अभियान चलाया जा रहा है, जिसका शिकार वहां के सभी अल्पसंख्यकों को होना पड़ रहा है। बर्मा के फौजी शासकों ने आंग सान सू की के नेतृत्व वाले लोकतांत्रिक आंदोलन का असर कम करने के लिए दो फॉर्मूलों पर अमल किया है। एक तो चीन के साथ नजदीकी बनाकर भारत के लोकतंत्र समर्थक रुझान को कुंद कर दिया और दूसरा, बहुसंख्यक कट्टरपंथ की पीठ पर अपना हाथ रखकर खुद को धर्म-संस्कृति और राष्ट्रीय अखंडता के एकमात्र प्रतिनिधि के रूप में पेश किया।

ऐसे माहौल में दखल देना भारत के लिए आसान तो नहीं है, लेकिन इसके लिए वह दुनिया भर के लोकतांत्रिक और जन अधिकार संगठनों को अपना खुला समर्थन जरूर दे सकता है। म्यांमार के सत्तारूढ़ सैनिक शासकों को हर स्तर पर यह संदेश दिया जाना चाहिए कि उसकी चालबाजियां दुनिया की नजर से छुपी नहीं हैं, और उसके इशारे पर चलने वाले धार्मिक गिरोह सालों साल अपने ही देश के एक जन-समुदाय के खिलाफ इस तरह का बर्ताव नहीं कर सकते !!

(विभिन्नं स्त्रोतों से मिली जानकारी से साभार)

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