शनिवार, 18 जुलाई 2015

संयुक्त परिवारों से क्यों विमुख हो रहे हैं लोग !!

(कुछ इस प्रथा को अभी भी दांतों से पकडे हैं, और कई ऐसे हैं जिनके लिए यह जंजाल साबित हुआ है, और वो इसमें फंसे फड़फड़ा रहे हैं)

हर प्रकार के सामाजिक समूहों में परिवार सबसे अहम और व्यापक समूह होता है, और परिवार के बिना समाज की कल्पना नहीं की जा सकती, परिवार के भी कई रूप होते हैं, जैसे मोटे तौर पर देखा जाए तो पश्चिम में एकल परिवार (Nuclear Family) और हमारे देश में संयुक्त परिवार (Joint Family), हम सब में से भी अधिकांश इसी संयुक्त परिवार में पले बढे हैं, संयुक्त परिवार प्रथा कभी एक मज़बूत व्यवस्था मानी जाती थी, दो तीन पीढ़ियां एक साथ रहने के कारण सामाजिक मूल्यों का बराबर से प्रसार होता था, बुज़ुर्गों से नयी पीढ़ी संस्कार सीखती थी, आदर और सम्मान बना रहता था, सुरक्षा की भावना बनी रहती थी, सामाजिक कार्यकलापों में अग्रसर रहते थे, सभी सदस्यों में प्रेम भाव और समर्पण का जज़्बा बना रहता था, संयुक्त परिवार में बच्चों के लिए सर्वाधिक सुरक्षित और उचित शारीरिक एवं चारित्रिक विकास का अवसर प्राप्त होता है .बच्चे की इच्छाओं और आवश्यकताओं का अधिक ध्यान रखा जा सकता है .उसे अन्य बच्चों के साथ खेलने का मौका मिलता है .माता पिता के साथ साथ अन्य परिजनों विशेष तौर पर दादा ,दादी का प्यार भी मिलता है यही कारण है कि संयुक्त परिवारों में पले बढे बच्चे अधिक संस्कारी और और आज्ञाकारी होते है !

मगर अचानक से लोगों का संयुक्त परिवार से मोह भंग होने लगा है, और इस को देखते हुए समाजशास्त्री चिंतित भी हैं, इसके मूल में कई कारण हैं जैसे कि रोज़गार धंधे के लिए लोगों का गाँवों और शहरों से पलायन, परिवार के लोगों की बढ़ती महत्वकांक्षाएं, निजता की अधिक चिंता, आर्थिक असमानताएं, परिवार के सदस्यों के बीच त्याग, समर्पण की ख़त्म होती भावना, ज़िम्मेदारियों से पल्ला झाड़ना, निजी स्वार्थों को परिवार से अधिक महत्त्व देना, संयुक्त परिवार के मुखिया के पक्षपात पूर्ण निर्णयों से भी बड़ी समस्या उत्पन्न होती है, Generation Gap को ढंग से नहीं पाटना, सामूहिक हित की अनदेखी करने से भी पारिवारिक सहयोग समाप्त होता है, अमीर सदस्य या उच्च पद वाले सदस्य के प्रति मुखिया का नर्म रवैय्या, किसी भी पारिवारिक समस्या को सुलझाने में मुखिया के संदेहास्पद निर्णय से परिवार में कलह की स्थिति उत्पन्न होती है, सदस्यों में असंतोष पनपता है, जो कि आगे जाकर विस्फोटक भी हो जाता है, जिस घर में कलह और किट किट आम हो जाए तो उस परिवार में पारिवारिक मूल्यों का क्षरण तो होता ही है, नयी पीढ़ी भी इससे प्रभावित होती है !

बुजुर्ग लोग दुनिया में आ रहे सामाजिक बदलाव को अनदेखा कर युवा पीढ़ी के परंपरा विरोधी व्यव्हार से क्षुब्ध रहते हैं। उसके लिए सिर्फ और सिर्फ अपनी संतान को दोषी मानते हैं। वे उनकी तर्क पूर्ण बातों को बुजुर्गों का अपमान मानते हैं। वे युवा पीढ़ी की बदली जीवन शैली से व्यथित होते हैं। नयी जीवन शैली की आलोचना करते हैं। क्योंकि आज की युवा पीढ़ी अपने बुजुर्गों का सम्मान तो करना चाहती है या करती है परन्तु चापलूसी के विरुद्ध , परन्तु बुजुर्ग उनके बदल रहे व्यव्हार को अपने निरादर के रूप में देखते हैं। बुजुर्गो के अनुसार उनकी संतान को परंपरागत तरीके से अपने माता पिता की सेवा करनी चाहिए, नित्य उनके पैर दबाने चाहियें उनकी तबियत बिगड़ने पर हमारी मिजाजपुर्सी को प्राथमिकता पर रखना चाहिए। उन्हें सब काम धंधे छोड़ कर उनकी सेवा में लग जाना चाहिए और यही उनके जीवन का अंतिम लक्ष्य होना चाहिए। यही संतान का कर्तव्य होता है। उनके अनुसार संतान की व्यक्तिगत जिन्दगी, उसकी अपनी खुशियाँ, उसका अपना रोजगार, उसका अपना परिवार कोई मायेने नहीं रखता। और जब संतान उनकी अपेक्षाओं पर खरी नहीं उतरती तो वे उन्हें अहसान फरामोश ठहराते हैं। 

कभी कभी घर के बुजुर्ग व्यक्ति अपनी संतान के मन में उनके लिए सम्मान को, अपनी मर्जी थोपने के लिए इस्तेमाल करते हैं उन्हें भावनात्मक रूप से ब्लेक मेल करते हैं। इस प्रकार से वे अपनी संतान के भविष्य के साथ तो खिलवाड करते ही हैं, उनके मन में अपने लिए सम्मान भी कम कर देते हैं। और उपेक्षा के शिकार होने लगते हैं। अतः प्रत्येक बुजुर्ग के लिए आवश्यक है की कोई भी निर्णय लेने से पूर्व अपने हित से अधिक संतान के हित के बारे में सोचें ताकि उनके भविष्य को कोई नुकसान न हो या कम से कम हो।

साधारणतयः परिवार में युवा पुरुष या दंपत्ति परिवार की आय का स्रोत होते है, जिसके द्वारा अर्जित धन से वह अपने बीबी बच्चों के साथ घर के बुजुर्गों के भरण पोषण की जिम्मेदारी भी उठाता है। इसलिए उसका नजरिया भी महत्वपूर्ण होता है। वह अपने बुजुर्गों के प्रति क्या विचार रखता है? उन्हें कितना सम्मान देना चाहता है,वह अपने बीबी बच्चों और बुजुर्गों को कितना समय दे पाने में समर्थ है,और क्यों ? वह अपने परिवार के प्रति, समाज के प्रति क्या नजरिया रखता है ? वह नए ज़माने को किस नजरिये से देख रहा है? क्योंकि वर्तमान बुजुर्ग जब युवा थे उस समय और आज की जीवन शैली और सोच में महत्वपूर्ण परिवर्तन आ चुका है।

अक्सर देखा गया है की बुजुर्गों का अपने बच्चों के प्रति नकारात्मक नजरिया उनकी समस्याओं का कारण बनता है। वे अपनी संतान को अपने अहसानों के लिए कर्जदार मानते हैं। उनकी विचारधारा के अनुसार उन्होंने अपनी संतान को बचपन से लेकर युवावस्था तक लालन पालन करने में अनेक प्रकार के कष्टों से गुजरना पड़ा,जिसके लिए उन्हें अपने खर्चे काट कर उनकी सुविधाओं का ध्यान रखा, उनकी आवश्यकताओं के लिए अपनी क्षमता से अधिक प्रयास किये। ताकि भविष्य में ये बच्चे हमारे बुढ़ापे का सहारा बने। जब आज वे स्वयं कमाई करने लगे हैं तो उन्हें सिर्फ हमारे लिए सोचना चाहिए, हमारी सेवा करनी चाहिए। कभी कभी तो बुजुर्ग लोग संतान को ज़र खरीद गुलाम के रूप में देखते हैं।

यह भी एक हकीकत है कि संयुक्त परिवारों के टूटने के गंभीर परिणाम सबसे ज़्यादा बुज़ुर्गों को ही भुगतने पड़ते हैं ! इसलिए अगर पारिवारिक मूल्यों को सहेज कर रखना है, और संयुक्त परिवार प्रथा को बनाये रखना है तो हाथ दोनों ओर से ही बढ़ाने होंगे, बुज़ुर्गों और परिवार के सदस्यों को नि:स्वार्थ सहयोग, सम्मान और बलिदान के लिए आगे आना होगा, अन्यथा आने वाले दशकों में यह दुर्लभ प्रथा देखने या दिखाने को हमें गांवों और ढाणियों में जाना पड़ेगा !!

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