हमारा आज देश एकाधिक समस्याओं से जूझ रहा है। देश की सत्ताधारी सरकार आज विपक्ष और अन्य सहयोगी दलों के प्रहारों से लहूलुहान है। अनेक प्रकार की विसंगतियां सरकार के अंतर्विरोधी और अदूरदर्शी निर्णयों के कारण पैदा हो गयी हैं। सरकार की उलझाने न बढ़ती जा रहीं हैं. सरकार अपनी ही कुछ अदूरदर्शी निर्णयों और नीतियों के जाल में फंसती जा रही है. प्रतिपक्ष भी अपनी आवाज अनेक मुद्दों पर बुलंद कर रहा है जो कि संसद की सामान्य कार्यवाही में बाधक बन रहा है। सत्ता पक्ष और प्रतिपक्ष दोनों एक दूसरे को नीचा दिखाने की राजनीति में उलझाते जा रहेहैं। सरकार के द्वारा प्रतिपादित अनेक मुद्दे इधर विवादास्पद हो गए हैं, जिन पर प्रतिपक्ष जनता की आम राय के अनुकूल सदन में ( संसद में ) सरकार की नीतियों का विरोध कर रहा है। केंद्र सरकार के एक के बाद एक लिए गए तरफ़ा निर्णयों से गठबंधन सरकार के सहयोगी दलों की नाराजगी बढ़ गयी है....और अब तो लगातार बढती ही जा रही है...कारण यही रहा कि सहयोगी दलों को विश्वास में नहीं लिया गया......एक तरफ़ा निर्णय लिया गया....परिणिती हुई ..फैसला वापस लेने की... विदेशी प्रत्यक्ष निवेश के मामले में सरकार को अपना फैसला टालना पडा है, देश में इस नीति के प्रति मिली जुली प्रतिक्रया दिखाई पड़ी। इसके बाद पांच राज्यों के चुनावों के नतीजो से हैरान कांग्रेस ने अपनी झोली में आये उत्तराखंड राज्य पर अदूरदर्शी निर्णय लेकर बवाल खड़ा कर दिया...जो कि अब तक जारी है...पैराशूट मुख्यमंत्री बहुगुणा को बना कर ..हरीश रावत समर्थकों से नाराजगी ही मोल नहीं ली...बल्कि भाजपा के लिए " अभी भी चांस है " वाली स्थिति पैदा कर दी है...!
अदूरदर्शी निर्णय लेना यहीं नहीं रुका...NCTC पर सहयोगी दलों, के साथ राज्यों को भी विश्वास में नहीं लिया गया...निर्णय से पहले सलाह मशविरा ज़रूरी होता है...विशेष कर जब कि...सरकार गठबंधन की हो....बात यहीं नहीं रुकी....इसमें एक और प्रहसन और जुड़ गया...रेल बजट का....इसमें रेल मंत्री की तो बलि हो ही गयी.....सरकार की भी तगड़ी फजीहत हुई है....इन सब के पीछे एक ही कारण है...और वो है....निर्णय क्षमता की कमी...और अदूरदर्शी निर्णय..! इन सब फजीहतों के पीछे देखा जाए तो कांग्रेस का घमंड ही कहा जाए कि उसने न तो FDI न ही NTSC और ना ही रेल बजट पर लचीला रुख अपनाया बल्कि सहयोगी दलों को भी तुच्छ समझा...इसका बदला सहयोगी दलों के साथ गैर कांग्रेसी राज्यों ने जम कर लिया...और नतीजा निकला कि ...सरकार की विश्वसनीयता पर देश में प्रश्न चिन्ह लग गया....जो कि एक गंभीर बात है...यदि आगे भी ऐसे अदूरदर्शी निर्णय होते रहे तो दूर नहीं जब कि देश मध्यावधि चुनाव में झोंक दिया जाए...जिसके लिए विपक्षी दल भाजपा को ही नहीं....अन्ना हजारे और बाबा रामदेव को भी बेचैनी से इंतज़ार है...और जहाँ तक यूं पी के जनादेश से निकली आवाज़ को सुना जाए तो कोई भी बड़ा राष्ट्रिय दल अभी इस हालत में नहीं है...कि बहुमत से सरकार बना ले....हाँ तीसरा मोर्चा ज़रूर अंगडाइयां ले रहा है....अब भी सरकार के हाथ में बहुत कुछ है...नीतियों और निर्णयों से पहले सहयोगी दलों को विश्वास में ले...छोटे क्षेत्रीय दलों को इज्ज़त दे..और आपसे रजामंदी से नीतियाँ....और निर्णय लागू करे...वरना विश्वसनीयता यदि ख़त्म हो गयी तो 2014 के चुनाव लोहे के चने ही साबित होंगे...!!
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