मेरे वालिद मरहूम सय्यद हामिद अली जिन्हे उस दौर की फुटबॉल की दुनिया में 'भैया' के नाम से जाना जाता था, राजस्थान के टोंक शहर के रहने वाले थे, उनके वालिद (मेरे दादा) पुलिस में सुपरिन्टेन्डेन्ट थे, उनके बेहतरीन खेल का डंका न सिर्फ राजस्थान और देश में ही बजता था, बल्कि पाकिस्तान में भी उनके खेल को सराहा गया था, वो राजस्थान पुलिस के पहले राष्ट्रिय खिलाडी भी थे, वो दौर था जब जयपुर में फुटबॉल के लीग मैचेज़ हुआ करते थे, महाराजा कालेज में खेली जाने वाली इस लीग में वालिद साहब को राजस्थान क्लब से खेलने के लिए टोंक से बुलवाया जाता था !
वालिद साहब ने अपनी ग्रेजुएशन तक की पढ़ाई अलीगढ मुस्लिम यूनिवर्सिटी से पूरी की थी, और 1945 से लेकर 1947 तक वो अलीगढ मुस्लिम यूनिवर्सिटी की फुटबॉल टीम के कप्तान भी रहे थे, आज भी वहां स्पोर्ट्स हाउस में उस दौर की टीम के बड़े बड़े नाम पट्टों पर उनका नाम दर्ज है ! साथ ही उन्हें अलीगढ मुस्लिम यूनिवर्सिटी का "कलर" भी मिला था, जो कि बिरले खिलाडियों को ही मिलता था !
जब वो प्रसिद्द खिलाडी मगन सिंह तंवर के नेतृत्व में पाकिस्तान खेलने गए तो उनके खेल से प्रभावित हो कर उन्हें वहां उन्हें फ़ौज में लेफ्टिनेंट का पद तक देने की पेशकश की गयी थे, जिसे उन्होंने नकार दिया था, इसके बाद उन्हें ओकाड़ा मिल के मालिक ने 800 /- रूपये महीना और रहने को बांग्ला देने की पेशकश भी की थी, साथ ही उन्हें बेहतर तकनीक सीखने के लिए इंग्लैंड में ट्रेनिंग में भेजने की मंशा भी जताई थी, मगर वालिद साहब को अपने शहर टोंक से बहुत लगाव था, वो किसी भी पेशकश को नकारते ही गए, आखिर में उनका खेल देख कर उस समय पुलिस के DIG स्व. लक्षमण सिंह जी ने उन्हें पुलिस से खेलने और पुलिस ज्वाइन करने को मना ही लिया ! और उनको सीधा राजस्थान पुलिस में सब इन्स्पेक्टर का ओहदा दिया गया, इस ओहदे को उन्होंने बड़ी ही ईमानदारी से निभाया, उनकी पहचान एक ईमानदार, निडर, क़ानून के ज्ञाता और गरीबों के हमदर्द के रूप में आज भी है, आज भी पुलिस महकमें में उनका नाम सम्मान से लिया जाता है !! 25 फ़रवरी 2006 को वालिद वालिद साहब जन्नत नशीं हुए थे, वो एक बेहतरीन और ईमानदार पुलिस अधिकारी थे, एक अच्छे बेटे, अच्छे भाई, अच्छे पति, और दुनिया के सबसे अच्छे पिता थे, मुझे फख्र है कि मैं उनका बेटा हूँ, वो आज भी मेरे अंदर धड़कते हैं, कोशिश करता हूँ कि उनके उसूलों और नज़रिये पर चलने की पूरी पूरी कोशिश करूँ !
आज आप बहुत ही याद आये बाबूजी !!!!
(मैं शुक्रगुज़ार हूँ खेल पत्रकार ऐ. गनी साहब का जिन्होंने 21 फ़रवरी 2002 को भास्कर में वालिद साहब पर यह लेख लिखा)
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