लोकपाल जैसी कोई संस्था होनी चाहिए, यह विचार दशकों पुराना है। इस अवधि में कई विभिन्न पार्टियां सत्ता में रहीं परंतु लोकपाल बिल की ओर किसी ने विशेष ध्यान नहीं दिया। चाहे वह जनता पार्टी हो, वी. पी. सिंह या भाजपा के नेतृत्व वाला एनडीए - सभी ने लोकपाल बिल के प्रस्ताव को ठंडे बस्ते में डालकर रखा। फिर एकदम अचानक से अन्ना के यह ताबड़तोड़ नारे, उपवास, अनशन, और आंदोलन क्यों.... ? क्या एक ही बार में दशकों से चले आ रहे इस भ्रष्टाचार रुपी ट्यूमर का इलाज करना संभव है...? यानी एक साथ ही इस ट्यूमर की कीमोथेरेपी, एंटीबायोटिक, चीर फाड, मरहम पट्टी सब हो सकना संभव है...? बिलकुल नहीं.....इसमें कोई संदेह नहीं कि वर्तमान व्यवस्था में कई खामियां हैं। यह व्यवस्था बहुत धीमी गति से काम करती है। परंतु सवाल यह है कि इस व्यवस्था का विकल्प क्या है ? क्या यह विकल्प “लाओ या जाओ“ है, जैसा कि अन्ना कह रहे हैं। क्या “लाओ या जाओ” नारे की मूल प्रकृति राजनैतिक नहीं है ? क्या इसका अंतिम लक्ष्य उस पार्टी को शासन में लाना नहीं है जिससे जुड़े तत्व “मैं अन्ना हूं“ टोपियां और टी शर्टें बांट रहे हैं और घर-घर जाकर मध्यम और अन्य वर्गों का समर्थन जुटा रहे हैं ? यह कैसा इलाज है...यह इलाज तो रोग से भी ज्यादा खतरनाक है.....।।
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