मिस्र की राजधानी काहिरा का अब तक नामालूम सा एक चौक जो देखते ही देखते दुनिया भर की मुक्तिकामी और तरक्कीपसंद जनता के सपनों और संघर्ष का पहले प्रतीक, और फिर मील-पत्थर बन गया. ऐसे कि तहरीर चौक से उठती आवाजों का जब जवाब आया तो तमाम सरहदों और उनके अन्दर रहने वाले हुक्मरानों की हिफाजत को खड़ी फौजों को रौंद के आया....इस आन्दोलन में कुल 45 निहत्थे नागरिकों की जाने जा चुकी हैं...और 500 से अधिक गंभीर रूप से घायल हो चुके हैं... यह संघर्ष वहां की जनता ने तानाशाही से मुक्ति और लोकतंत्र की स्थापना के लिए किया था..जिससे की मिश्री जनता एक वर्ष होने के पश्चात भी वंचित है...कई देशों में इस आन्दोलन से सनसनी फैली...और विश्व पटल पर एक अदृश्य सी लहर ने उथल पुथल मचा डाली थी....!
फिर अचानक एक दिन भारत में ....काहिरा का तहरीर चौक बरास्ते टीवी चैनल्स दिल्ली के जंतर मंतर से होता हुआ हमारे बेडरूमों में उतर आया. चाहे काहिरा में उमड़ती लाखों की भीड़ के सामने जंतर मंतर के चंद हजार लोग किसी गिनती में न हों, बावजूद इस सच के कि काहिरा में कम से कम तानाशाही के अंत की ख्वाहिश लिए अपनी जान दांव पर लगा कर सड़कों पर उतर आई भीड़ के सामने भारत में पुलिस से कोई खतरा ना होने की आश्वस्ति पाकर ही घर से निकले इन लोगों का तहरीर चौक के संघर्षों से दूर दूर तक कोई साझा न हो. अपने को तहरीर चौक कहने वाला, और इलेक्ट्रानिक मीडिया के अन्दर अपने कारिंदों से कहलवाने पर आमादा यह कुछ अजब सा तहरीर चौक था...... अरब देशों में इकठ्ठा होती भीड़ों पर गोलियां चलाती फौजों के बरअक्स इस भीड़ में बिसलेरी और बिस्कुट बाँटते लोग थे, वहां शहीद हो रहे मिश्री लोगों के सामने यहाँ सिर्फ स्वास्थ्य के इजाजत देने तक अनशन की घोषणा करते लोग थे. .....उस तहरीर और इस तहरीर में फर्क सिर्फ इतना भर नहीं था. यहाँ तो फर्क बुनियादी मूल्यों का, मान्यताओं का भी था. उन तहरीर चौकों में तानाशाहों के खिलाफ सारे अवाम की गुलाम इच्छाओं के कैद से बाहर आने की छटपटाहटें थीं .. वहां दिलों में उबल रहा गुस्सा न केवल सरकारों बल्कि सरकारी शह पर जमाने से जनता को लूट रही कंपनियों को भी मार भगाने पर आमादा था और ठीक उलट यहाँ के तहरीर चौक के तो प्रायोजक ही एनजीओ और कार्पोरेशंस थे. !
वहां की लड़ाई सबके हक और हुकूक की थी और यहाँ संविधानिक प्राविधानों की वजह से कुछ शोषित लोगों के आगे बढ़ आने से सदियों से सत्ता पर काबिज लोगों के माथे पर बन रही चिंता की लकीरें थीं. वहाँ तानाशाहों के मिजाज से चलते शासन के खिलाफ एक लोकतांत्रिक संविधान बनाने के सपने थे और यहाँ बाबासाहेब के बनाए संविधान को खारिज करने की जिद थी. ..वहां एक तानाशाह को भगा कर सामूहिक प्रतिनिधित्व वाला स्वतंत्र समाज हासिल कर पाने की जद्दोजहद थी और यहाँ एक व्यक्ति को संसद और संविधान से भी ऊपर खड़ा कर देने की हुंकारें थीं. या यूँ कह लें, कि वहां लड़ाई जम्हूरियत हासिल करने की थी और यहाँ उसे जमींदोज करने की थी..और इस आन्दोलन की आड़ में सिर्फ सत्ता परिवर्तन ही मूल उद्देश्य था...राजनैतिक हाथ इस आन्दोलन की पीठ पर पीठ थपथपाए जा रहे थे...!
बात साफ़ है, कि इस तहरीर चौक पर लिखी जा रही तहरीरें उस तहरीर चौक की इबारतों से न केवल अलहदा हैं बल्कि उनसे मुख्तलिफ भी हैं. अब समझना यह है कि 'हमारे' तहरीर चौक पे ये अजब तहरीरें कौन और क्यों लिख रहा है ? समझना इसलिए कि फिर लड़ना भी पड़ेगा, असली तहरीर चौक की विरासत बचानी भी पड़ेगी...!!
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