अन्ना हजारे ने अपने लोकपाल आंदोलन के प्रचार में जिस प्रकार कांग्रेस के नौजवान नेता राहुल गांधी का नाम घसीटा और बार - बार बिना किसी तर्क के उनकी आलोचना की , वह अनावश्यक था। लेकिन वह वर्षों पुराने एक राजनीतिक ट्रेंड की याद दिलाता है। यह ट्रेंड है किसी जन नेता की लोकप्रियता को खत्म करने के लिए उस पर बार - बार कीचड़ उछालना , उसके प्रति लोगों के मन में संदेह पैदा करना और उसे विलेन की तरह पेश करना। यह ट्रेंड मुख्य तौर पर भारतीय जनता पार्टी का रहा है। जनसंघ के जमाने से बीजेपी इसी ढर्रे पर चल रही है।
हर चीज से एतराज :
लेकिन जब इंदिरा जी ने कार्यभार संभाला तब जनसंघ उनके खिलाफ बहुत आक्रामक था। अटल बिहारी वाजपेयी तब जनसंघ के आक्रमण का नेतृत्व करते थे। तब उन्हें ' गूंगी गुड़िया ' बताने का प्रयास किया जाता था। जब राजा - रजवाड़ों के प्रिवी पर्स समाप्त करने की उन्होंने घोषणा की , तब जनसंघ ने उसी प्रकार उनके खिलाफ अभियान चलाया , जैसे बीजेपी ने हाल के दिनों में खुदरा व्यापार में विदेशी पूंजी निवेश के सरकारी निर्णय के खिलाफ जोरदार प्रचार किया था। तब जनसंघ ने न सिर्फ प्रिवी पर्स खत्म करने के निर्णय के खिलाफ संसद में मतदान किया था , बल्कि अटल जी ने इस विधेयक के खिलाफ जोरदार भाषण भी दिया था। भारत - पाक युद्ध में हमारी विजय हो या बैंकों के राष्ट्रीयकरण का प्रस्ताव , जनसंघ ने हमेशा इंदिरा जी को निशाने पर रखा और बहुत बाद में जाकर उनका नेतृत्व स्वीकार किया। जब कांग्रेस के क्षितिज पर राजीव गांधी का उदय हुआ , तब तक बीजेपी अस्तित्व में आ चुकी थी। उन्हें बच्चा , नासमझ , अपरिपक्व बताने में बीजेपी ने कभी कोताही नहीं बरती। वही राजीव गांधी आगे चलकर कंप्यूटर क्रांति और उदारीकरण की नींव रखते हैं , जिस पर अपना आशियाना बनाने से अटल बिहारी वाजपेयी भी नहीं चूके। चाहे दलबदल विरोधी कानून हो या संविधान का 73 वां व 74 वां संशोधन , या 18 वर्ष तक के युवाओं को मतदान का अधिकार देने का फैसला , बीजेपी विरोध के लिए विरोध करती रही , लेकिन बाद में इन सभी फैसलों को भारत की राजनीतिक विरासत मानकर उसी रास्ते पर चली।
1998 में जब श्रीमती सोनिया गांधी ने कांग्रेस की कमान संभाली , तब फिर बीजेपी को एक नया निशाना मिला। उनके विदेशी मूल के मुद्दे को बीजेपी ने राष्ट्रीय प्रश्न बना दिया। आडवाणी जी से लेकर स्व . प्रमोद महाजन तक - कांग्रेस के प्रति वैचारिक मतभेद पर जोर देने के बजाय सोनिया गांधी पर व्यक्तिगत हमले करने लगे। उन्होंने इसे चुनावी मुद्दा भी बनाया। 2004 का लोकसभा चुनाव बीजेपी ने इसी मुद्दे पर लड़ा। सुषमा स्वराज ने बाल मुड़वा कर संन्यासन बनने तक की धमकी दे डाली। नतीजा क्या हुआ ? दोबारा 2009 में भी बीजेपी को लोकसभा चुनाव हारना पड़ा। अब उन्होंने सोनिया गांधी का नेतृत्व स्वीकार कर लिया है। अक्सर सरकार के विवादास्पद फैसलों के वक्त बीजेपी का शीर्ष नेतृत्व सोनिया जी की तरफ एक उम्मीद से देखता है। यह कोई बदलाव नहीं , बल्कि जनसंघ के जमाने से चला आ रहा घिसापिटा तौरतरीका है।
इसी तरीके का अब राहुल गांधी के खिलाफ इस्तेमाल किया जा रहा है। राहुल गांधी दलित के घर जाकर उनके साथ खाना खाते हैं तो बीजेपी उनकी आलोचना करती है। भट्टा पारसौल में किसानों के आंदोलन का नेतृत्व करते हैं तो बीजेपी को तकलीफ होती है। उत्तर प्रदेश में वे अपने तरीके से कांग्रेस का पुनर्जीवित करने में लगे हैं तो उसमें बीजेपी नुक्स निकालती है। लोकसभा चुनावों में जब कांग्रेस को आशातीत सफलता मिली , तो बीजेपी ने चुप्पी साध ली। गुजरात में या बिहार में कांग्रेस हार गई तो बीजेपी ने राहुल गांधी के नेतृत्व पर प्रश्नचिह्न खड़ा कर दिया। असम और केरल में जब राहुल गांधी के धुआंधार प्रचार से कांग्रेस जीती तो बीजेपी को सांप सूंघ गया। राहुल गांधी छुट्टी मनाने जाएंगे तो बीजेपी को एतराज होगा। वे लोकपाल को संवैधानिक दर्जा देने की बात कहें तो बीजेपी के साथी उन्हें बोलने से रोकने के लिए आक्रामक हो जाएंगे।
ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में बीजेपी या जनसंघ का यह चरित्र रहा है। बहुत समय तक वे गांधी का चरित्र हनन करने की कोशिश करते रहे। जब - जब गांधी - नेहरू परिवार से कोई नया नेतृत्व उभरा है , तब - तब उसे पनपने से रोकने के लिए बीजेपी ने निचले स्तर पर उतर कर हमले किए हैं। यहाँ तक की प्रियंका गांधी से भी इनको अब डर लगने लगा है...राबर्ट वढेरा को निशाना बना कर साथी हमले किये जा रहे हैं...बड़े शर्म की बात है..जो लोग महात्मा गांधी को नहीं माने..जो लोग गोडसे का महिमा मंडन करते नहीं थकते...उसके फोटो अपने घरों में लगाने की हिदायतें देते हों...उनसे आशा भी क्या की जा सकती है...
.. इसके अलावा पिछले कुछ समय तक वे मनमोहन सिंह की ईमानदारी को लेकर भी शक पैदा करने की कोशिश करते रहे हैं , हालांकि इसका उन्हें कोई लाभ नहीं हुआ। अब कुछ उसी तरह के ढर्रे पर अन्ना हजारे भी चलते दिख रहे हैं। वे कहते हैं , ' गरीब की झोपड़ी में जाकर खाना खाने से कुछ नहीं होगा ' या ' मुझे ऐसा अंदेशा होता है कि इसके पीछे राहुल गांधी है।
अन्ना की ऐसी टिप्पणियां बीजेपी वालों की टिप्पणी से कतई भिन्न नहीं लगती। राहुल गांधी के प्रधानमंत्री बनने की काबिलियत पर रोज बीजेपी डर कर अपनी आशंका प्रकट करती है , अन्ना ने भी जंतरमंतर से बोलते हुए यही कहा। दरअसल अन्ना हजारे ने जिस लोकपाल की स्थापना के लिए राष्ट्रव्यापी आंदोलन छेड़ा , राहुल गांधी ने उसको चुनाव आयोग की तरह एक संवैधानिक दर्जा देने का आग्रह करके अन्ना के आंदोलन को एक ताकत देने की कोशिश की थी । और भाजपा ने अपना पूरा जोर लगा कर इस कोशिश को अमल में नहीं लाने दिया...!!
(श्री संजय निरुपम जी के लेख से साभार)
सम्बंधित लिंक :- http://navbharattimes.indiatimes.com/thoughts-platform/viewpoint/--/electionarticleshow/11122091.cms (श्री संजय निरुपम जी के लेख से साभार)
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