एक बस्ती के आखरी छोर पर एक कच्चा मकान था, उस मकान का दरवाज़ा हमेशा बंद रहता था...उसमें गरीब बुज़ुर्ग माँ बाप अपनी जवान बेटी के साथ रहते थे, बेटी की शादी के साथ दहेज़ की चिंता में गरीब बूढ़े की कमर झुक गयी थी, चेहरे पर झुर्रियां बढ़ गयी थीं, कांपते हाथों से बूढी पत्नी भी पति के साथ मिलकर घर में कागज़ की थैलियाँ तैयार करती थी, बेटी भी उनका हाथ बंटाती थी, जिसे वो बूढा रोज़ झुकी कमर लिए...खांसते थूकते...दूकान दूकान जाकर बेचने निकल जाता था, रोज़ उनका दरवाज़ा खुलता और वो बूढा थके थके क़दमो से कागज़ की थैलियाँ बेचने निकल जाता...और दरवाज़ा फिर से बंद हो जाता !
एक दिन लोगों ने देखा कि वो दरवाज़ा खुला हुआ है....बस्ती में हलचल हुई कि ऐसा कैसे हुआ...हमेशा बंद रहने वाला दरवाज़ा ..आज कैसे खुला पड़ा है..? काना फूसी हुई, तब किसी ने चुपके से कहा कि कल रात इन बूढ़े माता पिता की इकलौती बेटी...किसी के साथ चली गयी है, कभी लौट कर नहीं आने के लिए.....फिर लोगों ने देखा कि वही बूढा अपनी झुकी हुई कमर के साथ कांपते हुए....आँखों में लरजते आंसू लिए ..कागज़ की थैलियाँ बेचने निकल रहा है, और घर के अन्दर बुज़ुर्ग माँ अपने आंसू पोंछते और खांसते हुए कागज़ की थैलियों का सामान समेट रही है... आज उसने दरवाज़ा बंद नहीं किया है... दहेज़ के दानव ने....उनका दरवाज़ा हमेशा के लिए खुला छोड़ दिया है !!
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