रविवार, 7 जून 2015

वास्तविक दुनिया से कटने का जरिया बना स्मार्ट फोन !!

स्मार्ट फोन हमारी ज़िन्दगी का एक अहम हिस्सा होने के साथ साथ हमारी कमज़ोरी भी बनते जा रहे हैं, और साथ ही हमें वास्तविक दुनिया से काटने का जरिया भी बनते नज़र आ रहे हैं, हम सड़कों पर, बस स्टैंड्स, रेलवे स्टेशंस पर, शादियों में, पार्टियों में....लोगों को आस पास के लोगों से बेखबर अपनी आभासी दुनिया में खोया हुआ देख सकते हैं !

पहले हम पारिवारिक आयोजनो में जाने अनजाने लोगों से मिलने जुलने में जितना समय बिताते थे, अब उस समय में कहीं कटौती नज़र आने लगी है ! हर आदमी अब स्मार्ट फोन को अधिक समय देता नज़र आने लगा है ! हर आदमी कहीं न कहीं अकेला अपने स्मार्ट फोन को सहलाता नज़र आता है !

इसके साथ ही हर वक्त अपडेट-अपडेट देखना, नया अपलोड करना है, किसने क्या, कमैंट किया है, ये ऐसी चीजें हो गई हैं जो हर समय दिमाग में घूमती रहती हैं, यह सब साइबर सिकनेस, फेसबुक डिप्रैशन और इंटरनैट एडिक्शन डिसऑर्डर जैसी मनोवैज्ञानिक बीमारियां ही हैं, जिन्हें इसके आदी लोग मानने को तैयार नहीं होते !

इस साइबर सिकनेस का बड़ा कारण इंटरनेट और सोशल मीडिया है, जिसे वैज्ञानिकों ने डिजिटल शराब का भी खिताब दिया है, युवा पीढ़ी इस लत के खुमार का सबसे ज़्यादा शिकार नज़र आ रही है ! यह भी सच है कि सूचना क्रांति के इस दौर में हम सब इससे अछूते नहीं रह सकते, मगर इस लत पर कंट्रोल करना हमारे ही हाथ में है, कोशिश करना चाहिए कि इस लत की गुलामी से आज़ाद होने के तरीकों को वक़्त वक़्त पर आज़माया जाए, और बच्चों को भी इसके दुष्प्रभावों से बचाने की कोशिश की जाए !

जानिये रोहिंग्या मुसलमानो और उनके क़त्ले आम की वजहों के बारे में !!

रोहिंग्या म‍ुस्लिम प्रमुख रूप से म्यांमार (बर्मा) के अराकान (जिसे राखिन के नाम से भी जाना जाता है) प्रांत में बसने वाले अल्पसंख्यक मुस्लिम लोग हैं ! अराकान म्यांमार की पश्चिमी सीमा पर है और यह आज के बांग्लादेश (जो कि पूर्व में बंगाल का एक हिस्सा था) की सीमा के पास है !

म्यांमार में करीब 8 लाख रोहिंग्या मुस्लिम रहते हैं जो कि बर्मा की आबादी का 5 प्रतिशत ही है, और वे इस देश में सदियों से रहते आए हैं, लेकिन बर्मा के लोग और वहां की सरकार इन लोगों को अपना नागरिक नहीं मानती है ! बिना किसी देश के इन रोहिंग्या लोगों को म्यांमार में भीषण दमन का सामना करना पड़ता है ! बड़ी संख्या में रोहिंग्या लोग बांग्लादेश और थाईलैंड की सीमा पर स्थित शरणार्थी शिविरों में अमानवीय स्थितियों में रहने को विवश हैं !

1400 के आसपास ये लोग ऐसे पहले मुस्लिम्स हैं जो कि बर्मा के अराकान प्रांत में आकर बस गए थे !इनमें से बहुत से लोग 1430 में अराकान पर शासन करने वाले बौद्ध राजा नारामीखला (बर्मीज में मिन सा मुन) के राज दरबार में नौकर थे !

वर्ष 1785 में बर्मा के बौद्ध लोगों ने देश के दक्षिणी हिस्से अराकान पर कब्जा कर लिया, तब उन्होंने रोहिंग्या मुस्लिमों को या तो इलाके से बाहर खदेड़ दिया या फिर उनकी हत्या कर दी ! इस अवधि में अराकान के करीब 35 हजार लोग बंगाल भाग गए जो कि तब अंग्रेजों के अधिकार क्षेत्र में था। वर्ष 1824 से लेकर 1826 तक चले एंग्लो-बर्मीज युद्ध के बाद 1826 में अराकान अंग्रेजों के नियंत्रण में आ गया !

तब अंग्रेजों ने बंगाल के स्थानीय बंगालियों को प्रोत्साहित किया कि वे अराकान ने जनसंख्या रहित क्षेत्र में जाकर बस जाएं ! रोहिंग्या मूल के मुस्लिमों और बंगालियों को प्रोत्साहित किया गया कि वे अराकान (राखिन) में बसें ! ब्रिटिश भारत से बड़ी संख्या में इन प्रवासियों को लेकर स्थानीय बौद्ध राखिन लोगों में विद्वेष की भावना पनपी और तभी से जातीय तनाव पनपा जो कि अभी तक चल रहा है !

दूसरे द्वितीव विश्व युद्ध के दौरान दक्षिण पूर्व एशिया में जापान के बढ़ते दबदबे से आतंकित अंग्रेजों ने अराकान छोड़ दिया और उनके हटते ही मुस्लिमों और बौद्ध लोगों में एक दूसरे का कत्ले आम करने की प्रतियोगिता शुरू हो गई। इस दौर में बहुत से रोहिंग्या मुस्लिमों को उम्मीद थी कि वे ‍अंग्रेजों से सुरक्षा और संरक्षण पा सकते हैं। इस कारण से इन लोगों ने एलाइड ताकतों के लिए जापानी सैनिकों की जासूसी की। जब जापानियों को यह बात पता लगी तो उन्होंने रोहिंग्या मुस्लिमों के खिलाफ यातनाएं देने, हत्याएं और बलात्कार करने का कार्यक्रम शुरू किया। इससे डर कर अराकान से लाखों रोहिंग्या मुस्लिम फिर एक बार बंगाल भाग गए।

द्वितीय विश्वयुद्ध की समाप्त‍ि और 1962 में जनरल नेविन के नेतृत्व में तख्तापलट की कार्रवाई के दौर में रोहिंग्या मुस्लिमों ने अराकान में एक अलग रोहिंग्या देश बनाने की मांग रखी, लेकिन तत्कालीन बर्मी सेना के शासन ने यांगून (पूर्व का रंगून) पर कब्जा करते ही अलगाववादी और गैर राजनीतिक दोनों ही प्रकार के रोहिंग्या लोगों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई की। सैनिक शासन ने रोहिंग्या लोगों को नागरिकता देने से इनकार कर दिया और इन्हें बिना देश वाला (स्टेट लैस) बंगाली घोषित कर दिया।

तब से स्थिति में कोई सुधार नहीं आया है। संयुक्त राष्ट्र की कई रिपोर्टों में कहा गया है कि रोहिंग्या दुनिया के ऐसे अल्पसंख्यक लोग हैं, जिनका लगातार सबसे अधिक दमन किया गया है। बर्मा के सैनिक शासकों ने 1982 के नागरिकता कानून के आधार पर उनसे नागरिकों के सारे अधिकार छीन लिए हैं। ये लोग सुन्नी इस्लाम को मानते हैं और बर्मा में इन पर सरकारी प्रतिबंधों के कारण ये पढ़-लिख भी नहीं पाते हैं तथा केवल बुनियादी इस्लामी तालीम हासिल कर पाते हैं।

बर्मा के शासकों और सै‍‍न्य सत्ता ने इनका कई बार नरसंहार किया, इनकी बस्तियों को जलाया गया, इनकी जमीन को हड़प लिया गया, मस्जिदों को बर्बाद कर दिया गया और इन्हें देश से बाहर खदेड़ दिया गया। ऐसी स्थिति में ये बांग्लादेश की सीमा में प्रवेश कर जाते हैं, थाईलैंड की सीमावर्ती क्षेत्रों में घुसते हैं या फिर सीमा पर ही शिविर लगाकर बने रहते हैं। 1991-92 में दमन के दौर में करीब ढाई लाख रोहिंग्या बांग्लादेश भाग गए थे। इससे पहले इनको सेना ने बंधुआ मजदूर बनाकर रखा, लोगों की हत्याएं भी की गईं, यातनाएं दी गईं और बड़ी संख्या में महिलाओं से बलात्कार किए गए।

संयुक्त राष्ट्र, एमनेस्टी इंटरनेशनल जैसी संस्थाएं रोहिंया लोगों की नारकीय स्थितियों के लिए म्यांमार की सरकारों को दोषी ठहराती रही हैं, लेकिन सरकारों पर कोई असर नहीं पड़ता है। पिछले बीस वर्षों के दौरान किसी भी रोहिंग्या स्कूल या मस्जिद की मरम्मत करने का आदेश नहीं दिया गया है। नए स्कूल, मकान, दुकानें और मस्जिदों को बनाने की इन्हें इजाजत ही नहीं दी जाती है।

इनके मामले में म्यांमार की सेना ही क्या वरन देश में लोकतंत्र की स्थापना का श्रेय लेने वाली आंग सान सूकी का भी मानना है कि रोहिंग्या मुस्लिम म्यांमार के नागरिक ही नहीं हैं। वे भी देश की राष्ट्रपति बनना चाहती हैं, लेकिन उन्हें भी रोहिंग्या लोगों के वोटों की दरकार नहीं है, इसलिए वे इन लोगों के भविष्य को लेकर तनिक भी चिंता नहीं पालती हैं। उन्हें भी राष्ट्रपति की कुर्सी की खातिर केवल सैनिक शासकों के साथ बेतहर तालमेल बैठाने की चिंता रहती है।

उन्होंने कई बार रोहिंग्या लोगों की हालत पर चिंता जाहिर की, लेकिन कभी भी सैनिक शासकों की आलोचना करने का साहस नहीं जुटा सकीं। इसी तरह उन्होंने रोहिंग्या लोगों के लिए केवल दो बच्चे पैदा करने के नियम को मानवाधिकारों का उल्लंघन बताया, लेकिन उन्होंने इसका संसद में विरोध करने की जरूरत नहीं समझी।

रोहिंग्या लोगों के खिलाफ बौद्ध लोगों की हिंसा तो समझ में आती है, लेकिन आश्चर्य की बात यह है कि इस हिंसा में अब बौद्ध भिक्षु भी भाग लेने लगे हैं। इस स्थिति को देखने के बाद भी आंग सान सूकी म्यांमार के लोकतंत्र के लिए संघर्ष में भारत की चुप्पी की कटु आलोचना करती हैं, लेकिन लोकतांत्रिक मूल्यों की यह वैश्विक नायिका रोहिंग्या मुस्लिमों के बारे में कभी एक बात भी नहीं बोतली हैं। और अगर बोलती हैं तो केवल यह कि रोहिंग्या म्यांमार के नागरिक नहीं हैं और कोई भी उन्हें देश का नागरिक बनाने की इच्छी भी नहीं रखता है।

यह सचाई है कि बर्मा में बहुसंख्यक बौद्ध आबादी के बीच पिछले एक-दो सालों से ऐसा कट्टरपंथी प्रचार अभियान चलाया जा रहा है, जिसका शिकार वहां के सभी अल्पसंख्यकों को होना पड़ रहा है। बर्मा के फौजी शासकों ने आंग सान सू की के नेतृत्व वाले लोकतांत्रिक आंदोलन का असर कम करने के लिए दो फॉर्मूलों पर अमल किया है। एक तो चीन के साथ नजदीकी बनाकर भारत के लोकतंत्र समर्थक रुझान को कुंद कर दिया और दूसरा, बहुसंख्यक कट्टरपंथ की पीठ पर अपना हाथ रखकर खुद को धर्म-संस्कृति और राष्ट्रीय अखंडता के एकमात्र प्रतिनिधि के रूप में पेश किया।

ऐसे माहौल में दखल देना भारत के लिए आसान तो नहीं है, लेकिन इसके लिए वह दुनिया भर के लोकतांत्रिक और जन अधिकार संगठनों को अपना खुला समर्थन जरूर दे सकता है। म्यांमार के सत्तारूढ़ सैनिक शासकों को हर स्तर पर यह संदेश दिया जाना चाहिए कि उसकी चालबाजियां दुनिया की नजर से छुपी नहीं हैं, और उसके इशारे पर चलने वाले धार्मिक गिरोह सालों साल अपने ही देश के एक जन-समुदाय के खिलाफ इस तरह का बर्ताव नहीं कर सकते !!

(विभिन्नं स्त्रोतों से मिली जानकारी से साभार)

आज याद आ गयीं वो अकेली योद्धा सुनीता नारायण ~~!!

कितनी हैरानी की बात है कि आज मैगी नूडल पर लेड की मात्र अधिक होने के कारण हंगामा मचा हुआ है, और उधर पेप्सिको की सी.ई.ओ. इंदिरा नुई को पद्मभूषण पुरस्कार दिया गया है, यह वही पेप्सी है जिसके लिए कभी सुनीता नारायण ने (जो कि भारत की प्रसिद्ध पर्यावरणविद है और जिन्हे कि 2005 को पद्धश्री से भी अलंकृत किया गया था) एक अरसा पहले पेप्सी और कोक जैसे साफ्ट ड्रिंक में खतरनाक रसायनों की उपस्थिति की बात कहकर पूरे देश में तूफान पैदा कर दिया था !

उस मुद्दे की तपिश से संसद भी गरमा गई थी ! सुनीता नारायणन ने साबित किया था कि शीतल पेयों में कीटनाशकों की भारी मात्रा मौजूद है और ये मात्रा पहले की तुलना में अधिक है ! उन्होंने शीतल पेयों के 11 ब्रांडों के 57 नमूनों को चेक किया था, और उनमें से सभी में तीन से छह कीटनाशक मिले थे !

यह मामला इतना गरमा गया था कि सुप्रीम कोर्ट तक जा पहुंचा था......सुनीता नारायण यह चाहती थीं कि इसके लिए कोई मानक बने.....मगर यह मामला इन बहु राष्ट्रिय कंपनियों के भारी दबाव और सराकर के उदासीन रवैये के चलते ठन्डे बस्ते में चला गया !

शुक्रवार, 5 जून 2015

मुस्लिम औरतों की बदहाल शैक्षणिक और आर्थिक स्थिति के लिए ज़िम्मेदार है 'बशर्ते' !!

किसी आलिम का क़ौल है कि :-
तुमने अगर एक बच्चे को पढाया तो मात्र एक व्यक्ति को पढ़ाया ! लेकिन अगर एक बच्ची को पढाया तो एक खानदान को और एक नस्ल को पढ़ाया !

“When you educate a man, you educate an individual and when you educate a woman, you educate an entire family.” 

कार्ल मार्क्स ने कहा था :- 

अगर किसी समाज की हालत और प्रगति के बारे में जानना हो तो यह देखें की उस समाज में औरतें किस स्थिति में हैं !

जो जंग तलवार, बन्दुक, तोप और रोकेट नहीं जीत सकते वो जंग आप तालीम से जीत सकते हैं !

इंडोनेशिया के बाद भारत ही वो देश है जहा मुसलमानो की दूसरी सबसे बड़ी आबादी रहती है :-

मोटे तौर पर भारत में 18 करोड़ मुसलमान हैं, जो कि  देश की आबादी का 14.88% हैं ! और इस 18 करोड़ की 'आधी आबादी' यानी मुस्लिम औरतें शिक्षा, आर्थिक स्तर से लेकर सामाजिक और पारिवारिक तथा स्वावलम्बन के मामले में बदतर हालत में हैं ! 


ताज्ज़ुब है वो कौम इल्म से दूर है जिस क़ौम के कलाम की शुरुआत ही "इक़रा " (पढ़ो) से होती है, जिस मज़हब मैं कहा गया हो कि इल्म हासिल करने के लिए चीन भी जाना पड़े तो जाओ !

सरकारी आंकड़ों के मुताबिक भारत की लगभग 60 फीसदी मुस्लिम महिलाएं शिक्षा से वंचित हैं, इनमें से 10 फीसदी महिलाएं ही उच्च शिक्षा ग्रहण कर पाती हैं जबकि शेष 30 फीसदी महिलाएं दसवीं कक्षा तक अथवा उससे भी कम तक की शिक्षा पाकर घर की बहु बनने के लिए मजबूर हो जाती हैं !

सच्चर समिति की रिपोर्ट के मुताबिक़ देश भर में मुस्लिम महिलाओं की साक्षरता दर 53.7 फ़ीसदी है, इनमें से अधिकांश महिलाएं केवल अक्षर ज्ञान तक ही सीमित हैं ! सात से 16 वर्ष आयु वर्ग की स्कूल जाने वाली लड़कियों की दर केवल 3.11 फ़ीसदी है, शहरी इलाक़ों में 4.3 फ़ीसदी और ग्रामीण इलाक़ों में 2.26 फ़ीसदी लड़कियां ही स्कूल जाती हैं !

शिक्षा की तरह आत्मनिर्भरता के मामले में भी मुस्लिम महिलाओं की हालत चिंताजनक है, सच्चर समिति की रिपोर्ट के मुताबिक़ हिंदू महिलाओं (46.1 फ़ीसदी) के मुक़ाबले केवल 25.2 फ़ीसदी मुस्लिम महिलाएं ही रोज़गार के क्षेत्र में हैं, अधिकांश मुस्लिम महिलाओं को पैसों के लिए अपने परिवारीजनों पर ही निर्भर रहना पड़ता है, जिसके चलते वे अपनी मर्ज़ी से अपने ऊपर एक भी पैसा ख़र्च नहीं कर पातीं !

यह सभी आंकड़े बहुत न सिर्फ चौंकाने वाले हैं, बलि बहुत ही डरावने हैं, और मुस्लिम समाज के लिए एक चेतावनी भी हैं !

यह एक कड़वी सच्चाई है कि मुस्लिम महिलाओं की बदहाली के लिए कठमुल्लों द्वारा तोड़े मरोड़े गए कई धार्मिक कारण काफ़ी हद तक ज़िम्मेदार हैं, मुल्ला मौलवियों द्वारा इसकी मन मर्ज़ी से व्याख्या करने से भी है, जिसमें पर्दा भी है, मगर पर्दा इल्म हासिल करने में रुकावट बिलकुल भी नहीं है, रुकावट कुछ रूढ़िवादी समाजी सोच भी है, लोग कहते हैं कि लड़कियों को क्यों पढ़ाएं ? ससुराल में जाकर चूल्हा-चौका ही तो संभालना है. और यह कि लड़की अगर ज़्यादा पढ़ लिख जाएगी तो शादी के लिए रिश्ते नहीं आएंगे, इस सोच के चलते कई बार लड़कियां खुद तालीम हासिल करने से पीछे हट जाती हैं ! 

मुस्लिमो ने तालीम पर सारा गोरो फ़िक्र और अमल सिर्फ और सिर्फ दीनी तालीम तक ही समेट कर रख दिया हैं ! अब वक़्त की जरूरत हैं के दीनी तालीम की रौशनी में दुनियावी तालीम हासिल की जाये जिससे हम दुनिया के मुकाबिल भी एक नजीर बने और हमारी आखिरत भी कामयाब हो ! 

शरीयत औरत को इस काबिल देखना चाहती है कि वह अपने और अपने जैसे दूसरे इंसानों की खिदमत अपनी कमाई से कर सके, हज़रत मुहम्मद (स.अ.व.)  के दौर में मुस्लिम औरतें मस्जिदों में जाकर नमाज़ पढ़ती थीं ! ‘‘हज़रत खदीजा इसकी मिसाल है कि उन्होंने समाज मे आर्थिक क्रियाकलापों को बढ़ाया ! सियासत में भी मुस्लिम महिलाओं ने सराहनीय काम किए !

रज़िया सुल्तान हिंदुस्तान की पहली मुस्लिम महिला शासक बनीं, नूरजहां भी अपने वक़्त की ख्यातिप्राप्त मुस्लिम राजनीतिज्ञ रहीं, जो शासन का अधिकांश कामकाज देखती थीं, अवध के नवाब वाजिद अली शाह की पत्नी बेगम हज़रत महल ने हिंदू-मुस्लिम एकता को मज़बूत करने के लिए उत्कृष्ट कार्य किए थे !


फिर आज क्यों उसी मुस्लिम समाज में औरत की यह बदतर हालत है ? 
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इसकी सबसे बड़ी वजह है मुस्लिम समाज में लड़कियों की शिक्षा के प्रति बेरुखी, मज़हब की गलत व्याख्या और मज़हबी ठेकेदारों द्वारा दिए गए फतवे,पर्दे पर ज़्यादा ज़ोर, तथा लोग क्या कहेंगे जैसी सोच ! 

जब इस बाबत लोगों से बातचीत की गयी और उनके सामूहिक विचार जाने तो दो एक बातें निकल कर सामने आईं, पहली तो यह कि मुस्लिम औरतों को तालीम दिलाने से किसी को कोई ऐतराज़ नहीं, कुछ चाहते हैं कि वो बस इतना पढ़ ले कि काम चल जाए, कुछ यह चाहते हैं, कि खूब पढ़े, आगे जाकर नौकरियां करें, मर्दों के कंधे से कन्धा मिलकर चलें, आर्थिक तौर पर मज़बूत हो, स्वावलम्बी बने,  ! 

यहाँ एक ख़ास बात यह नज़र आयी कि कुछ कट्टर मुसलमान But, मगर, लेकिन, किन्तु परन्तु करते भी नज़र आये, और यही कहते पाये गए कि औरतों को तालीम ज़रूर दिलाना चाहिए बशर्ते कि ..'यह'  और बशर्ते कि ..... 'वो'  !! 

यह जो यहाँ 'बशर्ते'  है, यह बहुत बड़े मायने समेटे हुए है,....और यह सिर्फ भारत में ही नहीं है, अफगानिस्तान और पाकिस्तान में भी पाया जाता है, जो कि खुद में मुस्लिम देश है, पाकिस्तान में औरतों की शैक्षिक/आर्थिक स्थिति और भी बदहाल है, वहां महिला शहरी क्षेत्र में साक्षरता का प्रतिशत 30% है, जबकि गावों में 5% है ! मुस्लिम देश अफगानिस्तान में औरतों की साक्षरता का प्रतिशत और भी डरावना 32 फ़ीसदी है  ! 

यह 'बशर्ते' की विचारधारा अफगानिस्तान वाया पाकिस्तान अपने मुल्क में भी काम करती चली आ रही है, और शायद करती भी रहे, अगर हम नहीं चेते तो ! 

यह #बशर्ते ही कहीं न कहीं मुस्लिम औरतों की शैक्षणिक/आर्थिक स्थिति और सामाजिक बदहाली के लिए ज़िम्मेदार है, यह खुद में ही एक क़ानून है, यह खुद में एक अप्रत्यक्ष फतवा है, एक भूल भुलईयाँ, एक जाल है, जिसे मज़हबी ठेकेदारों ने इस तरह से सामने रखा है कि आप सहम जाते हैं, भ्रमित हो जाते हैं !

ज़रुरत है इस ‘बशर्ते’ की बारीकियां समझने की, ‘बशर्ते’ के पीछे छुपे स्वार्थ और मक्कारियों को समझने की, और मक़सद को बूझने की ! जितनी जल्दी इस ‘बशर्ते’ को डिकोड करेंगे, उतना ही आपका फायदा है !  वक़्त आ गया है कि मज़हबी हुदूद में रहते हुए इस 'बशर्ते' को डिकोड कर बेटियां - बहने आगे बढे....खूब पढ़ें, आला तालीम लें, स्वावलम्बी बने,  खुद के पैरों पर खड़ी हों, अपना मुस्तक़बिल बनायें, समाज में मुल्क में अपनी बा-वक़ार, बा-इज़्ज़त मौजूदगी दर्ज कराएं, और फिर बेहतर और बेहतर समाज और क़ौम  का निर्माण करें, और साथ ही इस पढ़ने की आज़ादी का गलत इस्तेमाल ना करें, तहज़ीब, शर्मो हया और अदब के साथ इल्म हासिल करें, कोई काम ऐसा ना करें कि म'आशरे में वालदैन का सर नीचे हो !  

औरत किसी समाज भी की बुनियाद होती है और जब किसी ईमारत की बुनियाद ही कमजोर होगी  तो बुलंद ईमारत की सोच भी बेमानी होगी !

मैं अपनी बात शायर जनाब असरारुल हक़ मजाज़ के इस शेर के साथ ख़त्म करता हूँ :-

तेरे  माथे पे ये  आँचल  बहुत  ही खूब है,  लेकिन  !
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तू इस आँचल से एक परचम बना लेती तो अच्छा था !!