सोमवार, 30 मई 2016

कौन ज़िम्मेदार है इन बेगुनाह मुसलमानो की बीसियों साला ज़िल्लत भरी कैदों का ??

हर बार की तरह अभी कल की है खबर थी कि गुलबर्गा, कर्नाटक के फार्मेसी सेकेंड ईयर के स्टूडेंट निसार को 23 साल जेल में रहने के बाद रिहा कर दिया गया है, उन्हें 5 जनवरी, 1994 को उनके घर से हैदराबाद पुलिस ने उठाया था !


निसार उन तीन लोगों में से एक हैं जिन्‍हें सुप्रीम कोर्ट ने सभी आरोपों से बरी कर दिया था। देश की सबसे बड़ी अदालत ने उन्‍हें सुनाई गई उम्रकैद की सजा को रद्द किया और 11 मई को तुरंत रिहा करने का आदेश दिया। तीनों को बाबरी मस्जिद ढहाए जाने की पहली बरसी पर हुए ट्रेन बम धमाकों के सिलसिले में उठाया गया था !

यह उन सैंकड़ों मामलों में से एक है जो बाबरी मस्जिद के शहीद होने के बाद चले एक ट्रेंड के तहत गिरफ्तार किये गए, और दस बीस सालों बाद बेगुनाह साबित होने के बाद रिहा किये गए, और इन रिहाइयों से पहले और बाद इनके पारिवारिक, आर्थिक, सामाजिक और शैक्षणिक जीवन पूरी तरह से नष्ट हो गए !

आईये ऐसे ही कुछ और मामलों पर नज़र डालते हैं :-

मामला पिछले साल 27 अक्तूबर का है. बीजेपी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी बिहार की राजधानी पटना में हुंकार भरने वाले थे. लेकिन गांधी मैदान में एक के बाद एक कई बम धमाके हुए. बीजेपी ने इसका सियासी फायदा उठाया तो राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआइए) समेत कई राज्यों की पुलिस वारदात को अंजाम देने वालों की धर-पकड़ में जुट गई.

एनआइए ने बिहार से सटे झरखंड की राजधानी रांची में दबिश दी तो कथित तौर पर संदिग्ध फरार हो गए. उन्हें पकडऩे का दावा बीजेपी शासित राज्य छत्तीसगढ़ की पुलिस ने किया. उसने सिमी के कुल 16 संदिग्धों को गिरफ्तार किया. लेकिन 24 मार्च को स्थानीय अदालत ने उनमें से 14 संदिग्धों को जमानत दे दी. इस मामले ने एक बार फिर से यह बहस छेड़ दी है कि आखिर मुसलमानों को ही पुलिस राष्ट्रविरोधी मामलों में क्यों गिरफ्तार करती है, जब उसके पास अदालत में साबित करने का कोई आधार ही नहीं होता ?


हालांकि छत्तीसगढ़ पुलिस अब भी कदम पीछे खींचने को तैयार नहीं दिखती. पुलिस की दलील है कि तकनीकी आधार पर इन आरोपियों को जमानत मिल गई है. दलील है-गैर-कानूनी गतिविधि निरोधक कानून (यूएपीए) के तहत ऐसे संगीन मामलों में 90 दिन के भीतर चालान पेश करना होता है. पुलिस ऐसा नहीं कर पाई तो स्थानीय अदालत से इसे 180 दिन बढ़वा लिया. लेकिन आरोपियों ने इस फैसले को जिला अदालत में चुनौती दी,

जहां सीजेएम कोर्ट की ओर से चालान पेश करने की अवधि बढ़ाए जाने का फैसला निरस्त हो गया. इसके बाद 14 आरोपियों को जमानत मिल गई. रायपुर पुलिस के आइजी जी.पी. सिंह इंडिया टुडे से कहते हैं, ‘‘मामला न्यायिक प्रक्रिया में है और सरकार आगे अपील करेगी.’’ उन्होंने बताया कि पकड़े गए सभी संदिग्ध पटना-बोधगया धमाके से जुड़े नहीं हैं, लेकिन छत्तीसगढ़ में सिमी का बड़ा नेटवर्क था और सब उसके सदस्य हैं.

पटना में मोदी की हुंकार रैली में हुए धमाकों के सिलसिले में सिमी के जिन 16 संदिग्धों को पिछले साल रायपुर पुलिस ने गिरफ्तार किया, उन पर उसने देशद्रोह जैसे गंभीर आरोप लगाए हैं. लेकिन उसे साबित करने का आधार उसे 90 दिन में भी नहीं मिल पाया. ऐसे में सवाल उठता है कि पुलिस ने संदिग्धों को सिमी का सदस्य बताकर गिरफ्तार किया और उन पर ढेर सारे इलजाम लगा दिए, लेकिन वह उसे साबित करना तो दूर, अदालत में चार्जशीट तक पेश नहीं कर पाई.

अब सवाल उठता है कि पुलिस ने 16 लोगों पर इतने गंभीर आरोप किस आधार पर लगाए? इनमें से अधिकांश युवा हैं. उन पर अगर वाकई कोई आधार था तो पुलिस उसे कानून की ओर से तय मियाद में कोर्ट के सामने क्यों नहीं रख पाई? मामला इसलिए भी संदेह पैदा करता है क्योंकि छत्तीसगढ़ में बीजेपी की सरकार है और पुलिस के आरोपों को ही लें तो पकड़े गए संदिग्धों में से कई सीधे तौर पर बीजेपी के पीएम उम्मीदवार नरेंद्र मोदी को निशाना बनाना चाह रहे थे.

ऐसे में पुलिस 90 दिन से ज्यादा की अवधि बीत जाने के बाद भी साजिश की कड़ी को जोड़कर चार्जशीट नहीं बना पाई. छत्तीसगढ़ पुलिस जिस तकनीकी आधार पर जमानत मिलने की दलील दे रही है, अगर उसे कानूनी आधार पर मान भी लिया जाए तो पहले के कई मामले अपने देश की पुलिस की नीयत पर संदेह पैदा करते हैं. न्यायिक सक्रियता के दौर में कई ऐसे मामले सामने आ चुके हैं, जिसमें पुलिस ने बेगुनाह मुस्लिम युवकों को आतंकवाद के आरोप में जेल में डाल दिया, लेकिन कई वर्षों के बाद अदालत ने उन्हें बाइज्जत बरी कर दिया.

ऐसे बेगुनाह युवक जब घर लौटते हैं तब तक उनकी दुनिया उजड़ चुकी होती है और समाज उन्हें शक की निगाह से देखता है, जबकि वही पुलिसवाला कभी पदोन्नति तो कभी बहादुरी का मैडल अपने सीने पर लगाए फूला नहीं समाता. लेकिन उन बेगुनाहों की जेल की सलाखों के पीछे गुजरी जिंदगी को कोई लौटा नहीं सकता.

दिल्ली-गाजियाबाद बम ब्लास्ट के मामले में 1996 में गिरफ्तार मोहम्मद आमिर खान को 14 साल बाद कोर्ट ने बरी कर दिया. उसकी दुनिया अब बदल चुकी है. आमिर अपनी कहानी कुछ यूं सुनाते हैं. ‘‘जब मैं बच्चा था तो पिंजरे वाली गाड़ी (कैदियों को लाने वाली गाडिय़ां) देखकर चिल्लाता था...चोर...चोर...मुझे उसमें बंद सभी कैदी चोर नजर आते थे, लेकिन जब खुद उसमें बंद हुआ तो महसूस हुआ, नहीं, पिंजरे में निर्दोष भी होते हैं.’’ चेहरे पर फीकी मुस्कान के साथ इस वाक्य को कहते हुए 32 वर्षीय आमिर खान की आंखें अचानक बेडिय़ों के भीतर बीती जिंदगी की कहानी बयान करने लग जाती हैं. कैसे महज 18 साल की उम्र में दिल्ली पुलिस ने उसे सीरियल बम धमाकों के आरोप में गिरफ्तार कर लिया था. कैसे उसने भविष्य संवारने वाली अपनी उम्र के 14 साल जेल की सलाखों के पीछे काटे और आखिर में कोर्ट ने उसे निर्दोष मानते हुए बरी कर दिया. कैसे बच्चे-बच्चे के हाथ में होने वाला मोबाइल फोन आमिर के लिए अजूबा है, जिसे उसने जेल से रिहा होने के बाद अपने भांजे-भांजियों से चलाना सीखा है.

इन 14 साल में उसकी दुनिया उजड़ चुकी है, पिता हाशिम खान बेटे की गिरफ्तारी के तीन साल बाद समाज के बहिष्कार और न्याय की आस छोड़कर दुनिया से चल बसे, तो दशक भर की लड़ाई के बाद 2008-09 में आखिर आमिर की मां की हिम्मत भी जवाब दे गई और वे सदमे से लकवाग्रस्त हो गईं. आमिर कहते हैं, ‘‘आज भी अपनी वालिदा के मुंह से बेटा शब्द सुनने को तरसता हूं.’’ कानून की चक्की में पिसा आमिर अब एलएलबी की पढ़ाई कर वकील बनना चाहता है ताकि जेल में बंद निर्दोष लोगों के लिए इंसाफ की लड़ाई लड़ सके.

ऐसा सिर्फ छत्तीसगढ़ में नहीं हो रहा है, बल्कि खुद को सेकुलर और मुस्लिम हितैषी कहलाने वाली उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, महाराष्ट्र जैसे राज्यों में भी है. निश्चित तौर से इस तरह की घटनाओं से समुदाय में मजलूम होने की भावना बढ़ती है. मुस्लिम बुद्धिजीवी कमाल फारूकी कहते हैं, ‘‘यह किसी समुदाय की बात नहीं है, लेकिन पुलिस की ज्यादती का शिकार एक विशेष समुदाय होता है तो उस पर खराब असर जरूर पड़ता है.’’ वे कहते हैं, ‘‘यूएपीए में पुलिस को काफी छूट है और आरोपियों को जमानत भी पुलिस की डायरी के आधार पर ही मिलती है, ऐसे में क्या उम्मीद की जा सकती है जबकि कई मामले ऐसे आए हैं जब पीड़ित व्यक्ति 14-14 साल बाद हाइकोर्ट से बरी होता है, लेकिन उन पुलिस वालों पर कार्रवाई नहीं होती जिन्होंने गलत केस बनाया था. आखिर हम किस तरह की पुलिस फोर्स बना रहे हैं.’’

जमीयत उलेमा-ए-हिंद के जनरल सेक्रेटरी महमूद मदनी कहते हैं, ‘‘जब कोई वारदात होती है तो पुलिस पर दबाव होता है और उस दबाव को कम करने के लिए वह गर्दन के नाप का फंदा तलाशती है. उसे इस तरह पेश किया जाता है कि मुलजिम को मुजरिम बताया जाता है, इतना ही नहीं, बार काउंसिलें प्रस्ताव पारित कर केस लडऩे से इनकार कर देती हैं, सामाजिक बहिष्कार हो जाता है. पुलिस के निकम्मेपन और कथित सभ्य समाज का जुल्म एक मासूम का जीवन बरबाद कर देता है.’’ कई बार संदिग्धों का केस लडऩे वाले वकीलों को धमकी मिलती है.

मुंबई के वकील शाहिद आजमी की हत्या इसकी मिसाल है. दिल्ली में आतंक के फर्जी मामले में जेल की सजा काट चुके शाहिद ने मुंबई में बेगुनाहों की पैरवी का प्रण किया था. हाल ही में वरिष्ठ वकील महमूद प्राचा को धमकी मिल चुकी है, जो इज्राएली दूतावास के सामने हुए कार धमाके समेत दर्जनों आतंक से जुड़े मामलों की पैरवी कर रहे हैं. मदनी मांग करते हैं, ‘‘पुलिस अधिकारी किसी को पकड़ता है तो जिस तरह उसे शाबासी मिलती है, उसी तरह जवाबदेही भी तय होनी चाहिए क्योंकि पुलिस के निकम्मेपन की वजह से गलत व्यक्ति जेल में पिसता है और असली मुजरिम बच निकलता है.’’

सबसे बड़ी परेशानी यह है कि पुलिस संदिग्धों को आतंकी बताकर मानो अदालत का काम भी खुद ही कर देती है. मीडिया भी पुलिस की बात को अंतिम सत्य की तरह प्रचारित करता है, लेकिन अदालत से बरी हुए पीड़ित के बारे में कुछ नहीं बताता. कुछ समय पहले सीपीएम के महासचिव प्रकाश करात ने राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी को ऐसे 22 बेगुनाहों की सूची वाला ज्ञापन सौंपा था.

ऐसे मामलों के लिए काम करने वाली संस्था रिहाई मंच के प्रवक्ता राजीव यादव कहते हैं, ‘‘जयपुर-सीकर में हाल में हुई गिरफ्तारी के बाद एक माहौल बनाया गया कि ये लोग मोदी की हत्या करने वाले थे. जबकि कहीं से आधिकारिक टिप्पणी नहीं आई.’’ उनके मुताबिक, ‘‘हौवा बनाने के पीछे इंटेलिजेंस एजेंसी होती है, जिसकी संसद के प्रति कोई जवाबदेही नहीं है. अगर इसे संसद के प्रति जवाबदेह बनाया जाए तो आतंकवाद पर होने वाली राजनीति खत्म हो सकती है.’’

यादव का मानना है कि ऐसे मामलों में गलत साबित होने वाले पुलिस वालों पर भी कार्रवाई होनी चाहिए. हालांकि इस मामले में अल्पसंख्यक आयोग के चेयरमैन वजाहत हबीबुल्ला बताते हैं कि हैदराबाद की अदालत में 22 बेगुनाहों के बरी होने के बाद जब उन्होंने तत्कालीन सीएम किरण रेड्डी से पुलिस पर कार्रवाई की मांग की, तो उन्होंने इससे पुलिस के अनुशासन पर खराब असर पडऩे की बात कहकर किनारा कर लिया.

आमिर ही नहीं, पेशे से डॉक्टर महाराष्ट्र के 35 वर्षीय रईस अहमद को मालेगांव मस्जिद धमाके में 2006 में एटीएस ने गिरफ्तार किया. साथ में शहर के अन्य आठ लोगों को साजिश रचने के मामले में गिरफ्तार किया गया. लेकिन जब एनआइए ने इन लोगों की रिहाई का विरोध नहीं करने का फैसला किया तो पांच साल बाद मकोका अदालत ने छोड़ दिया. लेकिन जब 16 नवंबर, 2011 को वे रिहा हुए तो उन्हें मालूम पड़ा कि उन लोगों ने क्या खो दिया है. मतदाता सूची से उनके नाम काट दिए गए थे, परिवार को मानसिक यातनाओं से गुजरना पड़ा. परिवार में कोई रोजगार नहीं था. यूपी के रामपुर के रहने वाले 35 वर्षीय जावेद अहमद 11 साल तो कानपुर के वासिफ हैदर को बेगुनाह होने के बावजूद 9 साल जेल में बिताने पड़े.

बिजनौर के 32 वर्षीय नासिर हुसैन को 22 धमाकों का मास्टरमाइंड बताया गया लेकिन 14 साल के बाद वह निर्दोष साबित हुआ. युवा मकबूल शाह को अपनी जिंदगी के 14 साल तिहाड़ जेल में बिताने पड़े. उस पर दिल्ली के लाजपत नगर धमाके का आरोप था लेकिन दिल्ली हाइकोर्ट ने उसे बरी कर दिया. इसी तरह अब्दुल मजीद भट जो पहले श्रीनगर में आतंकियों के आत्मसमर्पण कराने में आर्मी की मदद करते थे, लेकिन किसी बात पर आर्मी इंटेलिजेंस में तैनात मेजर शर्मा से अनबन हो गई, उसके बाद मजीद पर मानो आफत आ पड़ी.

श्रीनगर में उसे पकड़वाने में नाकाम शर्मा ने दिल्ली पुलिस की मदद ली. दिल्ली पुलिस की टीम ने मजीद को श्रीनगर से उठाया, लेकिन उसे दिल्ली से गिरफ्तार बताया. लेकिन मजीद ने आरटीआइ के जरिए गाडिय़ों की लॉग बुक आदि मंगाई, जिससे पुलिस की थ्योरी गलत साबित हुई. मजीद इंडिया टुडे से कहते हैं, ‘‘देश और यहां की व्यवस्था खराब नहीं है, बल्कि पुलिस में कुछ लोग खराब हैं, जिनकी वजह से पूरा सिस्टम बदनाम होता है. हम पहले भी देश के लिए ही काम करते थे और आज भी कर रहे हैं.’’ साफ है कि पुलिस की ज्यादती का शिकार मुस्लिम समाज सबसे ज्यादा है.

इन मुसलमानों पर लगे कैसे-कैसे आरोप, लेकिन पुलिस आरोपपत्र नहीं पेश कर सकी :-

उमेर सिद्दीकी, 36 वर्ष
सिमी का मुख्य व्यक्ति. इसने अब्दुल्ला उर्फ हैदर और मुजीब के साथ मिलकर बोधगया और पटना धमाके की योजना बनाई. सिमी के बड़े आतंकियों आमिल परवेज, सफदर नागौरी, करीमुद्दीन नागौरी, अब्दुल शोभान तौकीर और खंडवा जेल से फरार आतंकी अबु फैजल के साथ लगातार संपर्क रखना. इसके अलावा रायपुर में सिमी का कैंप लगाने, प्रशिक्षण देने और कश्मीर को भारत से अलग कराने, मुसलमानों पर अत्याचार का बदला लेने, लादेन के तौर-तरीकों को जिहाद के लिए अपनाने जैसे गंभीर आरोप में सीधी भूमिका होने के आरोप हैं.

अजहरुद्दीन कुरैशी, 19 वर्ष
हैदर समेत कई आतंकियों को मकान दिलवाना, उमेर के पकड़े जाने पर उसे भगाना, शेर अली के साथ साझा बैंक खाता होना, बारूद/बंदूक की व्यवस्था करना. 18-19 साल के युवाओं का ग्रुप बना उसका लीडर बनने की कोशिश.

अब्दुल वाहिद, 55 वर्ष
उमेर के साथ सिमी आतंकियों को शरण देने, सिमी के कैंप में शिरकत करने, खंडवा के आतंकी ईनाम के संबंधियों के साथ आतंकियों के बड़े कैंप में जाना और छत्तीसगढ़ आने वाले आतंकियों को अपने घर में ठहराने का आरोप.

रोशन उर्फ जावेद, 32 वर्ष
अब्दुल वाहिद का दामाद. आतंकियों को शरण देने से लेकर सिमी के कैंप में जाने, सिमी के लिए मासिक चंदा उगाही करने जैसे आरोप हैं.

अब्दुल अजीज, 45 वर्ष
बोधगया-पटना धमाके के आरोपी हैदर, नुमान, तौफीक, मुजीब को घर में शरण देने का आरोप है.

अजीजुल्लाह, 38 वर्ष
गुजरात के सूरत से 2002 में सिमी के कैंप से गिरफ्तार किया गया था, जिस पर रिहा होने के बाद उमेर के साथ सिमी के कैंपों में जाने और आतंकियों को शरण देने का आरोप है.

हयात खान, 45 वर्ष
राजू मिस्त्री के नाम से मशहूर है और रायपुर स्थित पंडरी में दो गैराज हैं. इसी गैराज में सिमी की बैठकें लेना, उमेर के साथ मिलकर कैंप में जाना. हयात खान के गैराज में ही उमेर की ओर से नरेंद्र मोदी को मारने के लिए किसी को खुद से सामने आने की अपील की गई थी.

मोइनुद्दीन, 37 वर्ष; शेख हबीबुल्लाह, 33 वर्ष; मो. दाऊद, 40 वर्ष; शेख शुभान, 50 वर्ष; असलम, 38 वर्ष; सईद, 54 वर्ष; अम्मार बिन वाहिद, 19 वर्ष; सलीम, 43 वर्ष और शेर अली, 20 वर्षः इन सभी पर लगभग एक जैसे आरोप हैं. जिनमें सिमी की बैठकों में जाना, आतंकियों को पनाह देना शामिल हैं. दाऊद पर छत्तीसगढ़ की अंबिकापुर रैली में बीजेपी के पीएम पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी को मारने के लिए तैयार होने का आरोप है. कुछ ने संदिग्धों को पटना-बोधगया ब्लास्ट के मुख्य आरोपी हैदर को विस्फोटक उपलब्ध कराया तो पेशे से सिविल इंजीनियर शेर अली का अजहरुद्दीन के साथ बैंक में संयुक्त खाता है. इस खाते के पैसे का इस्तेमाल आतंकियों के लिए बंदूक, बारूद आदि के इंतजाम के लिए हुआ.

कोई लौटा दे इनके बीते दिन :-
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करीब दो दर्जन से ज्यादा ऐसे मामले सामने आ चुके हैं जिनमें मुस्लिम युवाओं को पुलिस ने फंसाया, लेकिन अदालत से बाइज्जत बरी :-

मजीद भट, 55 वर्ष

जगह: श्रीनगर
मामलाः 6 साल जेल में बिताए. मेजर शर्मा से अनबन हुई. दिल्ली पुलिस ने श्रीनगर में उठाया, लेकिन गिरफ्तारी दिल्ली के पहाडग़ंज से दिखाई. आरटीआइ से सच सामने आया और बरी हो गए.


 जावेद अहमद, 35 वर्ष

जगहः यूपी में रामपुर
मामलाः 11 साल जेल में बिताए. देशद्रोह का आरोप. पाक की मोबीना से प्यार हुआ. दोनों लेटर लिखते थे, नाम के पहले अक्षर को कोड बना रखा था. यूपी एसटीएफ ने जे और एम बनाकर जावेद को आतंकी बताया.


 वासिफ हैदर,

जगहः कानपुर निवासी
मामलाः करीब 9 साल जेल में बिताए. देशद्रोह, दंगों के आरोप. दिल्ली पुलिस की स्पेशल सेल ने काम से घर लौटे वासिफ को उठाया. तीन दिन की यातना के बाद पुलिस उसे खूंखार आतंकी बना चुकी थी.


 नासिर हुसैन, 32 वर्ष

जगहः बिजनौर
मामलाः 7 साल जेल में गुजरे. हूजी का आतंकी और ट्रेन में विस्फोट का आरोप. यूपी एसटीएफ ने तब उठाया जब वह देहरादून में कन्स्ट्रक्शन सुपरवाइजर का काम कर रहा था.



 मकबूल शाह,

जगहः श्रीनगर
मामलाः 14 साल जेल में बिताए. दिल्ली के 1996 के लाजपत नगर धमाके में पुलिस ने पकड़ा. मगर आरोप साबित न होने के बाद दिल्ली हाइकोर्ट ने मकबूल को बाइज्जत बरी कर दिया.


 आमिर खान, 32 वर्ष

जगहः दिल्ली
मामलाः 14 साल बाद अदालत ने बाइज्जत बरी किया. 22 धमाकों का मास्टरमाइंड बता पुलिस ने गिरफ्तार किया. आमिर की बहन की शादी पाकिस्तान में हुई थी, उससे फोन पर बात करता था. यहीं से वह पुलिस के हत्थे चढ़ गया. महज 18 साल की उम्र में जेल पहुंचा. आमिर का पूरा परिवार बिखर गया, पिता चल बसे, मां लकवाग्रस्त हो गई !

यह ट्रेंड लगातार जारी है, ऐसे में मुस्लिम तंज़ीमों को आगे आकर इस ट्रेंड के खिलाफ पुरज़ोर विरोध की आवाज़ बुलंद करना होगी, ताकि मुसलमानो के प्रति चल रहे इस तरह के ट्रेंड पर रोक लगे, और साथ ही अदालतों में ऐसे बेगुनाहों की को पारिवारिक, शैक्षणिक, अार्थिक और सामाजिक तौर पर ख़त्म करने वालों के खिलाफ कार्रवाही तथा मुआवज़े के लिए पहल करना चाहिए !

Source : -
http://aajtak.intoday.in/story/-innocent-muslim-youth-on-the-radar-of-police-1-761066.html

मंगलवार, 24 मई 2016

आपको हम सबका सलाम के. अरुण कुमार !!


इस फोटो में जिन्हे आप स्कूल में अपने पांवों से ब्लेक बोर्ड पर लिखते हुए देख रहे हैं, उनके नाम है के. अरुण कुमार, 29 वर्षीय अरुण कुमार ने साबित कर दिया है कि विकलांगता पढ़ाई और कॅरियर में ज़रा भी बाधक नहीं हो सकती ! 1991 में हैदराबाद में हुए एक हादसे में उनके दोनों हाथ बिजली के हाई वोल्टेज से झुलस गए थे,लाख प्रयत्न करने के बाद भी उनके दोनों हाथों को बचाया नहीं जा सका !
  
इस घटना के बाद भी अरुण कुमार ने हार नहीं मानी, और अपनी पढ़ाई बिना हाथों के ही जारी रखी, वो पांवों से ही क़लम चलाना, अपने सारे काम करना सीख गए, कड़ी मेहनत और अपने झुझारू जज़्बे से उन्होेन अपने दोनों हाथों के बिना न सिर्फ BA, MA (Economics) किया बल्कि B Ed. की भी परीक्षा उत्तीर्ण की !

 उसके बाद उन्होंने यह साबित कर दिया कि वो न सिर्फ पढ़ सकते हैं, बल्कि पढ़ा भी सकते हैं, क्योंकि उनके शुरू से ही सपना था कि वो शिक्षक बने, और इसके लिए उन्होंने कोशिश प्रारम्भ की और अंत में उन्हें प्रतियोगी परीक्षा पास भी कर ली तथा आरक्षित कोटे से उन्हें शिक्षा सहयोगी के तौर पर नियुक्ति भी मिल गयी ! 

 इस समय अरुण कुमार कट्टा रामपुर, करीमनगर, (तेलंगाना) के एक सरकारी स्कूल में शिक्षा सहयोगी के तौर पर बच्चों को मन से पढ़ते हैं तथा ट्यूशन भी  देते हैं, वो अपना खुद का मोबाइल भी साथ रखते हैं, और पांवों से उसे काम में लेते भी हैं, उनके माता पिता बेहद गरीब हैं, इसलिए कृत्रिम हाथ के लिए धनराशि नहीं जुटा पा रहे हैं, वहीँ दूसरी ओर अरुण कुमार का कहना है कि मेरी योग्यता को देखते हुए सरकार यदि मुझे स्थाई रोज़गार मुहैया करा दे तो वो खुद ही अपनी कमाई से कृत्रिम हाथ के लिए धनराशि का  भी इंतज़ाम कर सकता है !
  
अब आगे M. Ed और कंप्यूटर शिक्षा की इच्छा रखने वाले अरुण कुमार का कहना है कि मुझे विकलांग होने पर ज़रा भी अफ़सोस नहीं है, मैं शारीरिक विकलांग हूँ, मानसिक विकलांग नहीं !!

 न जाने कितनी सरकारें आईं और चली गयीं किसी सरकार ने इस क़ाबिल और हौंसलामन्द नौजवान को बेहतर रोज़गार देने में ज़रा भी रूचि नहीं दिखाई, मगर फिर भी के. अरुण कुमार हमेशा की तरह उसी जोश से रोज़ स्कूल जाते है, जहाँ उसके शिष्य, उसकी क्लास और उक्स ब्लेक बोर्ड उसका इंतज़ार करते रहते हैं, फिर वो रोज़ की तरह पैर से चाक पकड़कर उठाते है, और बोर्ड पर लिखना शुरू कर देते हैं ! 
  
विकलांगता को मुंह चिढ़ाकर अपनी मंज़िल पाने वाले के. अरुण कुमार के जज़्बे और हौंसले को हम सब का सलाम !!

मिलिये नि:स्वार्थ सेवा करते गरीबों के मसीहा दिल्ली के 'मेडिसिन बाबा' से !!

79 साल के मेडिसिन बाबा का असली नाम है ओंकारनाथ, यह जब केसर रंग का कुर्ता पायजामा पहने जब वे सड़कों पर निकलते हैं, तो लोगों के बीच कौतूहल बन जाते हैं !

अपने कपड़ों पर बाबा ने गरीबों के लिए मुफ्त में दवा देने के बारे में लिखवा रखा है. कुर्ते पर फोन नंबर और ईमेल आईडी भी है, जिससे लोग उनसे संपर्क कर सकें. दोनों पैरों से अपाहिज मेडिसिन बाबा रोजाना छह से सात किलोमीटर पैदल चलकर दवा इकट्ठा करते हैं. 79 साल के मेडिसिन बाबा का असली नाम है ओंकारनाथ. पिछले आठ साल से वे यह अभियान चला रहे हैं. उनका कहना है कि वे हर महीने चार से छह लाख रुपये की दवाएं जरूरतमंदों को मुफ्त में बांटते हैं !


कैसे करते हैं जमा :-
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दवाएं जमा करने के लिए मेडिसिन बाबा दिल्ली के ऐसे इलाकों में घूमते हैं जहां समृद्ध परिवार रहते हैं और जो महंगी दवा दान कर सकते हैं. वे बताते हैं, "दिल्ली में ऐसे कई परिवार हैं जो इलाज के लिए महंगी दवा खरीद सकते हैं. एक बार स्वस्थ हो जाने के बाद वे दवाएं उनके किसी काम की नहीं होतीं. कूड़े में फेंकने के बजाय ऐसी दवाएं मेरे काम आ जाती हैं. मैं इन्हें आगे जरूरतमंद मरीजों तक पहुंचाता हूं." उनका कहना है कि दवा लेने से पहले वे सुनिश्चित कर लेते हैं कि दवा एक्सपायर न हो और मरीजों के सेवन लायक हो !

दवाएं जमा करने के लिए उन्हें दर दर भटकना पड़ता है लेकिन बांटने के लिए उनके पास अपना एक दफ्तर है. दरअसल दक्षिण पश्चिम दिल्ली के मंगलापुरी में स्थित एक बस्ती में मेडिसिन बाबा का घर है. और यहीं एक छोटे से किराए के कमरे से वे अपना दफ्तर भी चलाते हैं. उनका छोटा सा कमरा दवाओं से भरा पड़ा है. रोजाना शाम चार बजे से लेकर रात के आठ बजे तक वे गरीब और जरूरतमंदों को मुफ्त में दवा बांटते हैं. वे बताते हैं, "पहले लोग कहते थे कि इसने भीख मांगने का नया तरीका निकाल लिया है. लेकिन मैं उनकी बातों पर ध्यान नहीं देता था. मैं अपना काम सच्ची लगन के साथ करता गया. अब महीने में 400 से लेकर 600 मरीज मेरे पास दवा लेने आते हैं !"

गरीबों का मेडिसिन बैंक :-
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महंगी दवा और अन्य खर्च के लिए पैसे जुटाने के लिए बाबा ने अपने दफ्तर में एक दान पेटी भी लगाई है. वे कहते हैं कि कुछ ऐसे भी मरीज आते हैं जिनकी आर्थिक स्थिति ठीक ठाक होती है, "ऐसे मरीजों से मैं 10-20 रुपये दान करने की गुजारिश करता हूं. इस पैसे से मैं, मेरे पास जो दवा नहीं होती, उसे खरीद लेता हूं !"

ओंकारनाथ बताते हैं कि उन्हें मेडिसिन बैंक चलाने की प्रेरणा कुछ साल पहले दिल्ली के लक्ष्मीनगर में मेट्रो के एक निर्माणाधीन पुल के गिर जाने के हादसे के बाद मिली, "उस हादसे में दो मजदूर मारे गए और जो जख्मी हुए उनके पास इलाज के लिए और दवा खरीदने के लिए पैसे नहीं थे. सरकारी अस्पताल के डॉक्टर ऐसी दवाएं लिखते थे जो अस्पताल में मौजूद नहीं होती थी. मजदूर तो सड़क पर ही जिंदगी गुजारते हैं, वे भला कैसे बाजार से महंगी दवा खरीद सकते हैं? तभी से मैंने ऐसे पीड़ितों के लिए दवाएं जमा करने का संकल्प किया."

बाबा अपने इस अभियान को आगे बढ़ाना चाहते हैं और देश के अलग अलग राज्यों में भी ऐसा बैंक खोलना चाहते हैं. भविष्य में वे एक बड़ा दफ्तर और स्टोरेज के लिए ज्यादा जगह किराए पर लेने की योजना बना रहे हैं लेकिन फंड की कमी की वजह से विस्तार नहीं कर पा रहे हैं. अपने काम के बारे में उनका कहना है, "मुझे यह काम करके बहुत संतोष मिलता है. अमीर परिवारों के लिए ऐसी दवाएं कचरा हैं. लेकिन गरीबों के लिए ये वरदान साबित हो रही हैं !!"


Source :- डायचे वेले.कॉम 

रविवार, 15 मई 2016

कौन लौटाएगा इन सैंकड़ों बेगुनाह मुसलमानो के जेलों में बिताए साल ??

इस लेख में ताज़ा फैसला मालेगांव विस्फोट का भी शामिल कर लेते हैं, जिसमें मालेगांव विस्फोट में महाराष्ट्र ATS द्वारा पकडे गए बेगुनाह सभी 9 लोगों को 10 साल बाद मुंबई की एक स्पेशल कोर्ट ने सबूत के अभाव में बरी कर दिया, जबकि एक आरोपी शब्बीर अहमद की पिछले साल मौत हो गई थी।

अक्षरधाम मंदिर हमले में पकडे गए और 11 साल बाद बा इज़्ज़त बरी हुए मुफ़्ती अब्दुल क़य्यूम के अलावा भी देश में सैंकड़ों ऐसे उदाहरण हैं जिसमें मुसलमानो को संदेह के आधार पर ही उठाकर जेलों में ठूंस दिया गया है, और जिन्हे अपनी बेगुनाही साबित करने में दशकों लग गए हैं !

अस्सी के दशक में गुजरात के बंदरगाह मंत्री रहे 78 वर्षीय मोहम्मद सूरती के चेहरे पर अपने ऊपर हुए जुल्म की कड़वी कहानी सुनाते वक्त दर्द और अफ सोस उतर आया है. अपने दो मंजिला घर में मक्का की तस्वीर के सामने बैठे सूरती कभी कांग्रेस के कद्दावर नेता थे.

उन्हें बाबरी मस्जिद ढहाए जाने के बाद भड़के दंगों के बाद 1993 में सूरत में हुए दो बम विस्फोटों की साजिश रचने वाले 11 आरोपियों में शामिल किया गया. 2008 में टाडा अदालत ने इन्हें जेल की सजा सुनाई थी. 1995 में उन्हें उस अपराध का आरोपी ठहराया गया था. 19 साल की अदालती कार्रवाई और 12 साल तक जेल में रहने के बाद सुप्रीम कोर्ट ने 18 जुलाई को उन्हें बरी कर दिया.

बेशक उन्हें चैन है कि वे निर्दोष साबित हुए, लेकिन कुछ सवाल उनके मन को मथ रहे हैं ''हमारे वे 12 साल कौन लौटाएगा? पिछले दो दशक से हम और हमारा परिवार आतंकवादी होने का कलंक झेल रहा था, अब उसके निशान कौन मिटाएगा?” क्या कानून-व्यवस्था यह आश्वासन दे सकती है कि कम-से-कम इस तरह के गंभीर मामलों से जुड़ी अदालती कार्रवाई को लंबे समय तक न खींचा जाए?

दो बम विस्फोट, अरसे बाद आरोपी को सजा सुनाना और लंबे अर्से बाद उसका बरी होना, यह एक दिल दुखाने वाली कहानी है. इसकी भूमिका 1993 में ही बन गई थी, जब 28 जनवरी की सुबह वारछा रोड इलाके में एक बम विस्फोट हुआ. आठ साल की छात्रा की मौत हो गई और 11 लोग घायल हो गए. 22 अप्रैल को सूरत रेलवे स्टेशन पर एक और धमाका हुआ.

इसमें 38 लोग घायल हुए. ये विस्फोट बाबरी मस्जिद ढहाए जाने के बाद मुंबई और सूरत में भड़के उन दंगों के जवाब में थे जिनमें शहर के वारछा रोड और वेद रोड इलाकों में दंगाइयों ने करीब 200 मुसलमानों की हत्या कर दी थी. इन दंगों ने मुसलमानों को पहले से कहीं अधिक सहमा दिया था.

वारछा रोड विस्फोट मामले में पुलिस ने घटना के कुछ ही दिन के भीतर 27 लोगों को गिरफ्तार किया था, लेकिन साक्ष्य के अभाव में उन सभी को टाडा अदालत ने दो साल बाद बरी कर दिया. पुलिस ने उसी साल रेलवे स्टेशन विस्फोट मामले के संबंध में 11 अन्य लोगों को गिरफ्तार किया और उन्ह़़ें वारछा रोड मामले में आरोपी भी बनाया. गौर तलब है कि इनमें से कोई भी आरोपी करीब दो साल पहले हुए धमाकों की जगह पर नहीं पकड़ा गया था.

दोनों ही मामलों पर बाद में टाडा लगा दिया गया और सभी 11 आरोपियों के इकबालिया बयान पेश किए गए, जो पुलिस ने कथित तौर पर थर्ड डिग्री यातना देकर लिए थे. 2001 में सुप्रीम कोर्ट ने सभी आरोपियों को जमानत दे दी थी, लेकिन गुजरात की टाडा अदालत ने 2008 में उन्हें दोषी ठहराते हुए 10 से 20 साल की जेल की सजा सुनाई. 18 जुलाई को बरी होने तक उनमें से प्रत्येक जेल में कम-से-कम 12 साल गुजार चुका था.

52 वर्षीय मुश्ताक पटेल को रेलवे स्टेशन विस्फोट मामले में सबसे पहले गिरफ्तार किया गया था. वे पूछते हैं, ''पुलिस को हमें गिरफ्तार करने में दो साल क्यों लग गए, जबकि हम स्थानीय निवासी ही थे, कोई बाहरी नहीं? हममें से कई कांग्रेस के नेता और कार्यकर्ता थे. जाहिर है, पुलिस अपने नए बीजेपी आकाओं को खुश करने की कवायद में लगी थी. 14 मार्च, 1995 को केशुभाई पटेल के मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने के तुरंत बाद मेरे अलावा सभी को गिरफ्तार कर लिया गया था.”

बरी व्यक्तियों में से एक का कहना है कि असली अपराधियों को पुलिस नहीं पकड़ सकी और भुगतना उन्हें पड़ा. वे कहते हैं, ''पुलिस ने इस मामले में जितने लोगों को गिरफ्तार किया था, वे सभी निर्दोष थे और असली अपराधियों को पकडऩे में पुलिस नाकाम रही. हमारे खिलाफ दायर वारछा रोड मामला भी पूरी तरह से गलत था.” दूसरे व्यक्ति का कहना है कि 90 फीसदी मामले गलत थे. हालांकि जब उससे पूछा गया कि बाकी 10 फीसदी सही मामलों का क्या तो वह खामोश रहा.

64 वर्षीय कारोबारी और किसान हुसैन घडियाली सूरत में अपने सादे-से आठ मंजिला अपार्टमेंट में पोते-पोतियों के साथ बैठे हैं और बता रहे हैं, ''इकबालिया बयान देने के लिए मजबूर करने को हमें अमानवीय थर्ड डिग्री यातना दी जा रही थी. मेरे दोनों पैरों के तलवे लाठी की लगातार मार से काले पड़ गए थे. ऐसी परिस्थितियों में हमें कबूल करना ही पड़ा.” बरी किए गए सभी 11 आरोपियों के बचाव पक्ष के वकील मुश्ताक शेख कहते हैं कि शुरू से ही इस मामले को राजनैतिक रंग दिया जा रहा था.

''राष्ट्रीय सुरक्षा और सांप्रदायिक शांति से जुड़े किसी भी मामले की कार्रवाई को पुलिस तब तक गुप्त रखती है, जब तक कि उसके संबंध में अंतिम निष्कर्ष सामने न आए. इस तरह की जांच राष्ट्रीय कर्तव्य की भावना के साथ की जानी चाहिए. लेकिन इस मामले में जांच चलने के दौरान पुलिस हर दिन सांप्रदायिक भावनाएं उकसाने वाला कोई न कोई प्रेस नोट जारी करती रही.”

सूरती कहते हैं, ''पुलिस की ओर से मामले के बारे में जारी की गई मनगढ़ंत जानकारियों को स्थानीय भाषा के दैनिक अखबार और भी सनसनीखेज बनाकर परोसते रहे और हमें मीडिया ट्रायल का भी शिकार होना पड़ा.” पटेल को जब अवैध रूप से रिवॉल्वर रखने के आरोप में गिरफ्तार किया गया था, तब वे सूरत के नजदीक एक समुद्र तट पर अपने परिवार के साथ छुट्टियां मना रहे थे.

यह 12 मार्च, 1995 की घटना है. उसके ठीक एक दिन बाद गांधीनगर में बीजेपी की सरकार ने सत्ता संभाली थी. कुछ दिनों बाद, उन्हें रेलवे विस्फोट मामले में आरोपी बना दिया गया था. उनके बाद अगली गिरफ्तारी सूरती और घडियाल की हुई.

पुलिस के हिसाब से घटनाओं का क्रम इस प्रकार रहा- बाबरी मस्जिद के ढहने के बाद सूरत समेत कई जगहों पर हुए दंगों में मुसलमान खुद को काफी असुरक्षित महसूस कर रहे थे. इसलिए आरोपियों ने आत्म सुरक्षा और बहुसंख्यक समुदाय से बदला लेने के लिए हथियार इकट्ठा करने की योजना बनाई. पुलिस ने कहा कि आरोपियों में से एक इकबाल वाडीवाला—घडियाली और उनकी पत्नी शमीमा सूरती से मिलने गए, जो उस समय गुजरात राज्य मत्स्य विकास बोर्ड के अध्यक्ष थे.

पुलिस के अनुसार उन्होंने वहां से छह विदेशी हथगोले, दो एके-47 राइफल और अहमदाबाद में अब्दुल लतीफ से 199 जिंदा कारतूस हासिल करने का इंतजाम किया. उन्हीं हथगोलों का इस्तेमाल दोनों विस्फोटों में किया गया. पुलिस के अनुसार, सूरती अपनी सरकारी कार में अहमदाबाद से सूरत आए और उनके पीछे वाडीवाला भी मारुति वैन में बारूदी माल के साथ पहुंचे.

एक कांग्रेस कार्यकर्ता और छोटे भूमि-दलाल रहे मुश्ताक को जेल में अच्छे आचरण के लिए प्रमाणपत्र दिया गया है. जेल अधीक्षक ने गौर किया था कि कैदियों के लिए आयोजित धार्मिक समारोहों की तैयारी में मुश्ताक कितनी मुस्तैदी से जुट जाते थे. 2008 में जब टाडा अदालत ने उन्हें दोषी ठहराया तो अदालत में सिर्फ उनके मुस्लिम दोस्त नहीं, बल्कि सभी रो पड़े थे. मुश्ताक कहते हैं, ''1995 में जब मुझे गिरफ्तार किया गया था तब मेरा बेटा मिन्हाज जो अभी एलएलबी कर रहा है, सिर्फ दो साल का था.

मेरे दोस्त और रिश्तेदार मदद के लिए खड़े रहे, तभी वह अपनी शिक्षा हासिल कर रहा है. लेकिन अपनी व्यक्तिगत पारिवारिक पीड़ा से ज्यादा मैं अपने हिंदू भाइयों की आंखों में मेरे लिए छलकते धिक्कार को देखकर आहत हूं. बस थोड़ा सा यही सुकून है कि उनके बीच कई लोग ऐसे भी हैं, जो जानते हैं कि मैं निर्दोष हूं.”

कांग्रेस नेता और सूरत नगर निगम शिक्षा समिति के सदस्य वाडीवाला को दो बार जेल जाना पड़ा. इसी बीच उनके परिवार का मिट्टी के तेल और होटल का कारोबार पूरी तरह बर्बाद हो गया. 2013 में लीवर की बीमारी के कारण वे भी चल बसे. उनकी पत्नी जुबेदा और 39 और 36 वर्षीय बेटे आबिद और वसीम सूरत के नजदीक एक छोटा-सा रेस्तरां चलाते हैं. उनके चेहरे पर हताशा है.

आबिद कहते हैं, ''जेल में उचित इलाज नहीं होने की वजह से मेरे वालिद की मौत हो गई.” सूरती के 40 वर्षीय पुत्र अमीन का आरोप है कि उनके मछली पालन के कारोबार को 1995 में उनके वालिद की गिरफ्तारी के बाद बीजेपी सरकार के शक्तिशाली लोगों ने बर्बाद कर दिया.
उनके साथ हुआ अन्याय सिर्फ अभियुक्त के तौर पर उनके जेल जाने तक ही सीमित नहीं रहा, बल्कि इसमें उनके परिवारों को भी पिसना पड़ा जिन्हें साल दर साल आर्थिक अभावों और सामाजिक उपेक्षा, जलालत और दूसरी तकलीफों का सामना करना पड़ा.

फैसला गलतियों का मुकदमा :-

सुप्रीम कोर्ट ने टाडा के तहत दर्ज इकबालिया बयान को तकनीकी कारणों से अमान्य कर दिया.
जस्टिस टी.एस. ठाकुर और जस्टिस सी. नागप्पन की अध्यक्षता वाली सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने 18 जुलाई, 2014 को 1993 में सूरत बम विस्फोट मामले में सभी 11 आरोपियों को बरी कर दिया. उस बम विस्फोट में एक स्कूली लड़की की मौत हो गई थी और कई लोग घायल हो गए थे.

सर्वोच्च अदालत ने 2008 में गुजरात आतंकवादी और विध्वंसक गतिविधि (निरोधक) कानून (टाडा) अदालत के फैसले को उलट दिया. उस फैसले में आरोपियों को 10 से 20 साल कैद की सजा सुनाई गई थी. आतंकवाद विरोधी कानूनों के तहत दाखिल कई दूसरे मामलों की तरह ही गुजरात पुलिस कानून में निर्धारित सही प्रक्रिया का पालन करने में असफल रही. इस मामले के कुछ मुख्य बिंदु:

अपीलकर्ताओं की दलील थी कि उनका मुकदमा टाडा के तहत नहीं चलाया जा सकता क्योंकि वह धारा 20-ए का उल्लंघन है. इस प्रावधान में टाडा के तहत दंडनीय अपराध के बारे में किसी भी जानकारी की रिकॉर्डिंग के लिए जिला पुलिस अधीक्षक की मंजूरी होनी चाहिए. लेकिन आरोपियों द्वारा अपराध स्वीकार करने वाले बयानों की रिकॉर्डिंग के लिए गुजरात पुलिस ने राज्य के गृह विभाग के अतिरिक्त मुख्य सचिव की मंजूरी ली.

अदालत के सामने सवाल यह था कि क्या जिला पुलिस अधीक्षक को प्राप्त मंजूरी का अधिकार राज्य के किसी अन्य अधिकारी को भी हासिल है. इस मामले में मुख्य सचिव ऊपर के स्तर का अधिकारी है.

अदालत ने नहीं में जवाब दिया. उसने फैसला दिया कि अगर कोई नियम बनाया गया है तो उसका पालन उसी रूप में किया जाना चाहिए. ''उस काम को किसी भी दूसरी तरह से करने की मनाही होनी चाहिए.”
हालांकि मंजूरी लेने के लिए सीनियर अधिकारी के पास जाना सही मालूम हो सकता है, लेकिन अदालत ने पहले के कुछ मामलों का उल्लेख करते हुए कहा कि कानून अगर किसी अधिकारी को कुछ विवेकाधीन अधिकार देता है तो किसी अन्य अधिकारी द्वारा उस अधिकार का इस्तेमाल करना गलत है.

“इस मामले में कानून कहता है, ''अदालतें इस सिद्धांत को लागू करने के प्रति इतनी सख्त हैं कि वे उन प्रशासनिक दलीलों की भत्र्सना करती है, जो उन्हें बनाने वालों को स्वाभाविक और उचित मालूम होती हैं.”
टाडा के तहत रिकॉर्ड किया गया इकबालिया बयान अमान्य हो जाने के बाद गुजरात सरकार के मामले में कोई दम नहीं रह गया. इकबालिया बयान के सिवा उसके पास कोई अन्य ठोस सबूत नहीं था.

विशेष सरकारी वकील हंसमुख लालवाला ने आरोपियों के खिलाफ टाडा अदालत में दलीलें पेश की थीं. लालवाला कहते हैं, ''सुप्रीम कोर्ट पर कौन उंगली उठा सकता है. कोर्ट ने उन्हें तकनीकी आधार पर बरी कर दिया है.” उनका मानना है कि इस मामले में पेश किए गए सबूत आरोपियों को दोषी करार देने के लिए काफी मजबूत थे.
घटनाक्रम :-
28 जनवरी, 1993: वारछा रोड पर हुए विस्फोट में एक स्कूली लड़की की मौत और 11 लोग घायल. पुलिस ने इस मामले में 27 लोगों को गिरफ्तार किया.
22 अप्रैल, 1993: सूरत रेलवे स्टेशन पर विस्फोट, 38 लोग घायल.
21 मार्च, 1995: रेलवे स्टेशन पर विस्फोट के मामले में गांधीनगर में बीजेपी सरकार आने से एक दिन पहले मुश्ताक पटेल नाम के एक व्यक्ति को गिरफ्तार किया गया.
19 मार्च, 1995: कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और गुजरात के पूर्व मंत्री मोहम्मद सूरती को रेलवे स्टेशन पर बम विस्फोट मामले में गिरफ्तार किया गया. सभी आरोपियों पर टाडा के तहत आरोप दर्ज.
2001: आरोपियों को सुप्रीम कोर्ट से जमानत.
4 अक्तूबर, 2008: टाडा अदालत ने 11 आरोपियों को दोषी करार दिया और उन्हें 10 से 20 साल कैद की सजा सुनाई.
18 जुलाई, 2014: सुप्रीम कोर्ट ने सभी 11 आरोपियों को यह कहते हुए बरी कर दिया कि पुलिस ने टाडा के तहत कार्रवाई करते समय सही प्रक्रिया का पालन नहीं किया !!

Source : http://aajtak.intoday.in/story/%E2%80%98who-will-give-us-back-these--12-years-1-773734.html

गुरुवार, 5 मई 2016

आतंकवाद के नाम पर बेगुनाह मुस्लिम युवाओं के साथ अन्याय कब तक ??

कल की बड़ी खबर यह थी की दिल्ली पुलिस की स्पेशल सेल ने जैश के 13 आतंकियों को धर लिया है, धरते ही तो यह भांड मीडिया द्वारा आतंकी घोषित कर दिए गए, चाहे दस ग्यारह साल बाद यह बेगुनाह मुस्लिम और युवाओं की तरह निर्दोष साबित हो जाएँ !!

दिल्ली पुलिस की स्पेशल सेल द्वारा पकडे गए और बाद में कई सालों बाद निर्दोष साबित हुए लोगों की लम्बी लिस्ट है, मगर कुछ बड़े मामले शायद सभी को याद होंगे !

यहाँ पहला स्क्रीन शॉट दिनांक 25 मार्च 2013 , BBC हिंदी का है, जिसमें तत्कालीन गृह मंत्री शिंदे जी दिल्ली पुलिस की स्पेशल सेल द्वारा 20 मार्च 2013 को गिरफ्तार किये गए लियाक़त शाह का केस NIA को देने की घोषणा की थी !

दूसरा स्क्रीन शॉट 24 जनवरी 2015  का है जिसमें NIA द्वारा लियाक़त शाह को क्लीन चिट देने की खबर है !


तीसरा स्क्रीन शॉट दिल्ली पुलिस की स्पेशल सेल द्वारा अब्दुल करीम टुंडा को 17 अगस्त 2013 को भारत-नेपाल बॉर्डर से गिरफ्तार करने, और उस पर लश्कर-ए-तैयबा का बम एक्सपर्ट होने का आरोप लगाया गया थी !

चौथ स्क्रीन शॉट अब्दुल करीम टुंडा पर दिल्ली पुलिस की स्पेशल सेल द्वारा लगाए गए सभी आरोपों से बरी करने का है !

यहाँ यह अदालतों के यह फैसले दिल्ली पुलिस की स्पेशल सेल की हरकतों की धज्जियाँ उड़ा रहे हैं, मगर अफ़सोस कि बेख़ौफ़ दिल्ली पुलिस की स्पेशल सेल की इन हरकतों की भरपाई के लिए और इनके अलावा पकडे और बाद में निर्दोष साबित हुए बेगुनाह मुसलमानो के सामाजिक, पारिवारिक और आर्थिक नुकसान के लिए कभी किसी पुलिस अधिकारी या जांच एजेंसी के खिलाफ कोई अदालत नहीं गया, ना ही किसी अदालत ने इसकी भरपाई के लिए कोई पहल की या तवज्जो दी !

संदेह के आधार पर किसी भी मुसलमान को पकड़ कर जेल में डाल देना अब रोज़ मर्रा की घटनाओं की तरह होने लगा है, इससे पहले 22 Jan 2016 को देश भर में छापे मार कर राष्ट्रीय जांच एजेंसी (NIA) ने एक इंजीनियरिंग छात्र समेत 17 संदिग्धों को हिरासत में लिया था :-
http://khabarindiatv.com/india/national-14-suspected-isis-terrorist-arrested-468836 

अब उनका क्या हो रहा है कुछ पता नहीं !

बेगुनाह मुसलमानो के साथ हुए अन्याय की लिस्ट बहुत लम्बी है, आप चाहें तो इस लिंक पर भी पढ़ सकते हैं :-
http://hindi.siasat.com/news/%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%B2%E0%A5%87%E0%A4%97%E0%A4%BE%E0%A4%82%E0%A4%B5-%E0%A4%A7%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%95%E0%A5%87-9-%E0%A4%AE%E0%A5%81%E0%A4%B8%E0%A4%B2%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%A8%E0%A5%8B-817820/

देश में मुसलमानों को जेल में डालने में गुजरात सबसे आगे, एक-तिहाई मुस्लिम बंदी अकेले मोदी के राज्य में हैं, जानने के लिए यहाँ पढ़िए :-
http://www.jansatta.com/national/gujarat-has-most-number-of-muslim-detainees-in-india/91462/

और जिस तरह से कल यह धर पकड़ हुई है, उस पर भी सवाल उठने लगे हैं, अब वक़्त आ गया है कि बड़ी मुस्लिम तंज़ीमों और आलिमों का आगे आकर और एकजुट इस ट्रेंड के खिलाफ अपनी आवाज़ बुलंद करना होगी, और इन सभी को यह मांग रखना होगी कि जो भी मुसलमान युवक संदेह के आधार पर पकडे जाएँ, उनके लिए फ़ास्ट ट्रेक कोर्ट्स बनाए जाएँ, और जल्दी न्याय की व्यवस्था की जाए, यदि दोषी साबित होते हैं तो सज़ा दी जाएँ, यदि निर्दोष हैं तो छोड़ा जाए, ताकि उनका पारिवारिक, शैक्षणिक, आर्थिक और सामाजिक जीवन बर्बाद होने से बच सके !

ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड और वेलफेयर पार्टी के एसक्‍यूआरटी इलियास ने ने दावा किया कि, 2014 में असामाजिक गतिविधि एक्‍ट के तहत गिरफ्तार 141 युवकों में से केवल 18 के खिलाफ चार्जशीट दायर हुई। बाकी के 123 निर्दोष साबित हुए। इनमें से भी अधिकांश को ऊपरी अदालतों ने रिहा किया। मुस्लिम युवकों को अंधाधुंध तरीके से आतंकी या आईएस समर्थक बताकर पकड़ा गया था !

अभी भी वक़्त है कि ऐसी गिरफ्तारियों पर नज़र रख कर निर्दोषों को न्याय दिलाने के लिए मुस्लिम तंज़ीमें और आलिम आगे आएं, क़ौम की रीढ़ टूटने से बचाएँ !