शनिवार, 26 मार्च 2016

जानिये इस्लाम क़ुबूल करने वाली ब्रिटिश पत्रकार वॉन्नी रिडले के बारे में !!


1958 को ब्रिटेन में जन्मी वॉन्नी रिडले पेशे से एक पत्रकार थीं, और  सम्मान पार्टी की सक्रिय कार्यकर्ता भी थीं, एक पत्रकार के रूप में वो  The Sunday Times, The Independent on Sunday, The Observer, The Mirror and the News of the World के लिए लिखती रहीं, वो  Wales on Sunday में डिप्टी एडिटर रहीं तथा बाद में  Sunday Express को  चीफ रिपोर्टर के रूप में ज्वाइन किया !


इसी संडे एक्सप्रेस ने 9 /11 हमले के बाद उन्हें अफगानिस्तान में रिपोर्टिंग करने भेज था !


जहाँ 2001 में उनका  अफगानिस्तान में तालिबान ने अपहरण कर लिया था, दरअसल उनके पास कैमरा देख कर तालिबान को उनके जासूस होने का शक हुआ और उन्होंने वॉन्नी रिडले को बंधक बना लिया, वॉन्नी रिडले की गिरफ़्तारी के बाद पाक स्थित ब्रिटिश हाई कमिश्नर ने तालिबान से बातचीत कर उनकी रिहाई कराई !


और आखिर में 8 अक्टूबर 2001 को उन्हें तालिबान ने रिहा कर दिया, रिहाई के बाद  वॉन्नी रिडले ने एक किताब लिखी जिसका नाम था "In the hands of Taliban",  जिसमें उन्होंने बंधक के तौर पर तालिबान के बर्ताव के बारे में लिखा था, उस किताब में उन्होंने यह लिखा कि किस तरह से तालिबान ने उन्हें शारीरिक क्षति नहीं पहुंचाई, यहाँ तक कि उनकी तलाशी के लिए भी अफ़ग़ान औरतें बुलवाई गयीं थीं !

जब वो बंधक थीं तो एक अपहरणकर्ता ने उनसे इस्लाम अपनाने को कहा था, मगर तब वॉन्नी रिडले ने एक वादा कर इंकार कर दिया था कि रिहा होने के बाद वो क़ुरआने पाक ज़रूर पढ़ेंगी, और उन्होंने अपना किया हुआ वादा निभाया !


क़ुरआने पाक पढ़ने और समझने के बाद उनके नज़रिए में बड़ा बदलाव आया और उन्होंने सं 2003 की गर्मियों में उन्होंने इस्लाम क़ुबूल कर लिया, और अपना नाम मरियम रिडले रख लिया !

और इसके वो खुल कर इजरायलवाद और आतंकवाद के साथ War On Terror पर पश्चिमी मीडिया की दोगली भूमिका के खिलाफ लिखने लगीं !


2003 में रिडले कतर आधारित मीडिया संगठन अल जज़ीरा चैनल में उन्हें वरिष्ठ संपादक के रूप में नौकरी का अवसर मिला, मगर जल्दी ही उनकी मुखर और तार्किक शैली से अल जज़ीरा चैनल हड़बड़ा गया और उन्हें नौकरी से बर्खास्त कर दिया गया, मरियम रिडले ने अपनी बर्खास्तगी के खिलाफ केस लड़ा और चार साल लम्बी लड़ाई के बाद वो केस जीतीं, उन्हें हर्जाने के तौर पर अल जज़ीरा ने 100,000 कतरी रियाल दिए !

दिसंबर 2003 को उन्होंने एक नावेल और लिखा जिसका नाम था 'Ticket to Paradise' !

अक्टूबर 2005 में उन्होंने इस्लाम चैनल को ज्वाइन किया, और वहां अपना प्रोग्राम  'एजेंडा विद वॉन्नी रिडले' पेश करने लगीं, मगर यहाँ उनके प्रोग्राम की मुखरता के कारण Ofcom (The Office of Communications) ने उनके और एक अन्य प्रोग्राम के कारण चैनल पर  £ 30,000 (तीस हज़ार पाउंड) का जुर्माना लगा दिया, वॉन्नी रिडले को यहाँ से भी नौकरी से हाथ धोना पड़ा, यह अलग बात है कि उन्हें किये गए केस को जीतने के बाद इस्लाम चैनल से £26,000 पाउंड हर्जाने के रूप में मिले !

2008 में मरियम रिडले ने 'Free Gaza Movement' ज्वाइन किया, साथ ही युद्ध विभीषिका से जूझ रहे फिलस्तीन, इराक़, अफगनिस्तान, चेचन्या के लिए उन्होंने प्रेस और न्यूज़ चैनल्स के ज़रिये मुद्दे उठाये !

अमरीका सहित पश्चिमी जगत द्वारा गढ़े गए 'इस्लामोफोबिया' के खिलाफ उनकी मुहीम दुनिया में जाने जाने लगी, उन्होंने उस समय के ब्रिटिश प्राइम मिनिस्टर टोनी ब्लेयर की तुलना नृशंस हत्यारे और तानाशाह 'पोल पोट'  की थी !

आज भी मरियम रिडले दुनिया भर में घूम घूम कर इस्लाम के खिलाफ चल रहे प्रोपेगंडे 'इस्लामोफोबिया' के विरुद्ध अपनी आवाज़ बुलंद करती हैं !

हैरानी की बात यह है कि हिंदी मीडिया मरियम रिडले के बारे में लिखता है कि उनको तालिबान ने ज़बरदस्ती इस्लाम क़ुबूल करा दिया था, जबकि यह बात पूरी तरह से गलत है, मरियम रिडले ने अगर ज़बरदस्ती इस्लाम क़ुबूल किया होता तो वो रिहा होते ही, फिर से इस्लाम छोड़ सकती थीं, और ना ही इस्लाम की खूबियों पर अपना नजरिया रखने के लिए दुनिया भर में घूमतीं, ना ही कोई प्रयत्न करतीं !

वहीँ दूसरी ओर यूरोपीय मीडिया रिहाई के बाद से ही उन्हें ISIS और अलक़ायदा समर्थक बताने में जुटा हुआ है, जबकि सभी जानते हैं कि अलक़ायदा हो या ISIS या फिर कोई और मुस्लिम आतंकी संगठन, इनकी ही वजह से 'इस्लामोफोबिया' जैसे प्रोपेगंडे को ऑक्सीजन मिलती रही है !

अपनी इसी मुहीम के चलते जनवरी 2013 को मरियम रिडले जमात-ए-इस्लामी हिंद द्वारा यहां आयोजित स्प्रिंग ऑफ इस्लाम सम्मेलन में हिस्सा लेने भारत आना चाहती थीं, मगर तत्कालीन सरकार ने मरियम रिडले को वीजा देने से इंकार कर दिया था, और अंत में ब्रिटेन से ही वीडियो कांफ्रेसिंग के जरिए रिडले ने लड़कियों, महिलाओं और पत्रकारों के तीन सत्रों को सम्बोधित किया था, विवरण आप यहाँ इस लिंक पर पढ़ सकते हैं  :-
http://khabar.ibnlive.com/latest-news/news/-1634632.html?ref=hindi.in.com 

यहाँ एक बात यह निकल कर आती है कि दुनिया के मुसलमान अगर इस्लाम की बुनियादी तालीम पर कायम रहें और अपने अखलाक, तहज़ीब, गुफ्तुगू और आमाल से दूसरों को मुतास्सिर कर सकें, तो उसकी शख्सियत एक खामोश तब्लीग़ हो सकती है !

वहां मरियम रिडले के साथ कोई जोर ज़बरदस्ती नहीं की गयी थी, कैेद के दौरान वो तालिबान के र'वैये से मुतास्सिर हुई थी, और इस्लाम का एक बुलंद  पहलू उसके सामने आया था, जिसे उन्होंने क़ुरआने पाक पढ़ने के बाद तफ्सील से समझा और इस्लाम कुबूला !

अपने किरदार का तू गाज़ी बन जा ,
जीत ना पाये तुझ से कोई तू ऐसी बाज़ी बन जा !

तोड़ने वाले खुद बनाएंगे मस्जिदें अपनी ,
शर्त है के पहले तू नमाज़ी बन जा !!
~अनजान~


Source :-
विकिपीडिया तथा अन्य !!

बुधवार, 23 मार्च 2016

जानिये इंसानियत को शर्मसार कर देने वाले इस फोटो के पीछे की कहानी !!

यह फोटो सोशल मीडिया पर कई बार कई मौक़ों पर शेयर किया जाता रहा है, इस फोटो के पीछे की कहानी भी दिल दहला देने वाली है !



घटना है 15 जनवरी 2010 की, जब अफगानिस्तान में दक्षिणी कंधार में तैनात अमरीकी सेना की 'स्ट्राइकर ब्रिगेड' के 5 सैनिकों ने 15 वर्षीय निहत्थे अफगान बालक गुलबुद्दीन जिसके पिता एक किसान थे, की गोली मार कर हत्या की, और उसके बाद उसकी लाश के साथ फोटो खिंचवाए !

इन पांच सैनिकों के नाम थे, एंड्रू होल्म्स, माइकल वैगनों, जेरेमी  मोरलॉक और आदम  इन्फिएल्ड ! इन्होने उस खेतों में काम कर रहे निहत्थे गुलबुद्दीन पर ठीक वैसा ही हमला किया जैसा कि किसी हथियार बंद आतंकियों की टोली पर करते हैं, हैंड ग्रेनेड फेंके और गोलियां मरी गयीं, बच्चे की अर्धनग्न लाश के साथ फोटो शूट करने के बाद वो उसे वहीँ पड़ा छोड़ गए थे !

अमरीकी सेना की 'स्ट्राइकर ब्रिगेड' के इन 5 सैनिकों ने इसके बाद 22 फ़रवरी 2010 में मराक आग़ा नाम के एक बच्चे की कलाश्निकोव राइफल से नज़दीक से सर में गोली मार कर हत्या की !

उसके बाद 2 मई 2010 में इन्होने मुल्ला अहदाद नाम के एक निहत्थे की ग्रेनेड और राइफल से गोलियां मार कर हत्या की !

यह लोग यहीं नहीं रुके इन्होने मारे गए लोगों की लाशों के साथ दुर्दांत हरकतें की, किसी के मृत शरीर का सर अलग कर उसके साथ फोटो खिंचवाया तो किसी मृत शरीर पर बोर्ड लगा कर उसपर 'तालिबान मर गया है' जैसे नारे लिख कर फोटो खिंचवाए !

यही नहीं जब वो अमरीका लौटे तो उनके द्वारा मारे गए अफगानी लोगों के शरीर की उंगलियों की हड्डियाँ, पैर की हड्डियाँ  और दांत भी एक जीती हुई ट्रॉफी की तरह साथ लेकर गए !

इन अमरीकी सैनिकों की इस अमानवीय हरकतों की फोटो जब अखबारों में छपी तो विश्व भर में इसकी तीव्र प्रतिक्रियाएं हुई, निंदा और लानतें भेजी गयीं, आखिर में अमरीकी सेना ने इन सैनिकों के कृत्य के लिए माफ़ी मांगी तथा सैन्य अदालत ने केल्विन गिब्स को अफगान नागरिकों की हत्या का दोषी माना, व बाक़ी दोषी सैनिकों के खिलाफ कोर्ट मार्शल की कार्रवाही के साथ साथ मुक़दमों की भी अनुशंसा की गयी !

Source :-
https://en.wikipedia.org/wiki/Maywand_District_murders

http://www.aljazeera.com/news/americas/2011/11/201111114265669553.html

http://www.bbc.com/hindi/lg/southasia/2010/09/100910_ussoldiers_afghan_vv.shtml

बुधवार, 9 मार्च 2016

बाबाओं, कॉर्पोरेट्स, पूंजीपतियों और राजनैतिक दलों की चिरपरिचित जुगलबंदी !!

चाहे श्री श्री हों या ललित मोदी, रामदेव हों या विजय माल्या यह लॉबी ऐसी है जिसका कोई भी सरकार बाल बांका नहीं कर सकती, इस लॉबी की ताक़त के आगे सभी राजनैतिक पार्टियां नतमस्तक नज़र आती हैं, यह बात अलग है कि कुछ राजनैतिक दलों के सत्ता में आते ही इनके धंधों में चार चाँद लग जाते हैं,धंधों को खाद पानी मिलने लगता है, नयी ऊर्जा मिलने लगती है, और इसके लिए यह लॉबी कई बार सरकारों के बनने बिगड़ने में भी अहम रोल अदा करती नज़र आती है !

यह कोई नयी बात नहीं है, इस जुगलबंदी की शुरुआत स्वामी धीरेन्द्र ब्रह्मचारी से हुई थी, चन्द्रा स्वामी की राजनैतिक जुगलबंदी का इतिहास उठकर देख लीजिये, हज़ारों करोड़ों की अकूत संपत्ति के शिखर पर बैठे बाबा लोग हर सरकार में निर्भय होकर तथाकथित सेवा करते नज़र आते हैं, हर बाबा अपनी अपनी राजनैतिक गोटियां फिट करके रखते हैं, चाहे वो श्री श्री हों, रामदेव हों, स्वामी अग्निवेश हों, बाबा राम रहीम हों, रामपाल बाबा हों, आसाराम बापू हों, या नित्यानंद हों !


अडानी, अम्बानी से लेकर, टाटा बिड़ला की ताक़त कौन नहीं जानता,  ललित मोदी की पहुँच किसे पता नहीं है, 2011 से दीवालिया हुए  विजय माल्या का किस सरकार ने क्या बिगाड़ लिया ? यह सब इस ताक़तवर लॉबी के राजनीति से मज़बूत गठजोड़ के सबूत हैं !


भारत के विभिन्न कार्पोरेट घरानों ने समाचार पत्र-पत्रिकाओं, टीवी चैनलों में अपना पैसा निवेश किया हुआ हैं, कुछ के अपने ही चैनल्स हैं, यह सब प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से देश की राजनीति को प्रभावित करते हैं !

बाबा लोग भी कहाँ पीछे रहने वाले हैं, उनके भी अपने निजी चैनल्स भक्तों को आशीर्वाद और ज्ञान बांटते देखे जा सकते हैं, जिस बाबा का खुद का चैनल नहीं है, वो कई न्यूज़ चैनल्स पर बढ़िया टाइम स्लॉट में अपनी बाबागिरी पेश करता नज़र आता है !

पूँजी पतियों और राजनीति का सबसे कुरूप गठबंधन अगर देखना हो तो BCCI की ओर नज़र डाल लीजिये, जहाँ क्रिकेट को बेचने और मुनाफा कमाने के लिए यह किसी भी हद तक जाते नज़र आते हैं !

जनता के आगे मुद्दों का टुकड़ा फेंक कर अपने हित साधने वाले सियासतदान ही इसके असली गुनहगार है, तो चलिए देर किसी बात की, सोशल मीडिया की चीख पुकार में शामिल हो जाइए, और देश की चिंता कीजिये !!  

सोमवार, 7 मार्च 2016

महिला शिक्षा बिना 'नारी दिवस' या 'नारी सशक्तिकरण' अधूरा !!

आज हर साल की तरह फिर से नारी दिवस मनाया जा रहा है, जो कि एक औपचारिकता ही कही जा सकती है, नारी दिवस हर रोज़ हर महीने मनाना चाहिए, और इसकी सबसे पहली सीढ़ी है बेटियों को तालीम/शिक्षा से आरास्ता करना, तालीम माँ-बाप की ओर से बेटियों को दिया गया वो अनमोल तोहफा है, जिससे बेटियां मानसिक तौर पर सशक्त होती हैं, ज़िन्दगी में आने वाली हर मुश्किल का सामना कर सकती हैं ! ज़िन्दगी में आगे तरक़्क़ी की राह खुलती है, समाज में इज़्ज़त मिलती है !


यहाँ एक बात यह गौर करने वाली है कि बेटियों को एक जैसी शिक्षा के लिए बेटों से ज़्यादा मुश्किलों का सामना करना पड़ता है, वो बेटों से ज़्यादा जद्दो जहद करती हैं, घर से बाहर निकलने से लेकर, अपनी सुरक्षा, समाज का नजरिया और बहुत कुछ झेलना पड़ता है !

शिक्षा नहीं होगी तो बेटियों का सशक्तिकरण नहीं हो पायेगा, आज भी हम जब ऐसे मौक़ों पर कुछ सोचते हैं या उदाहरण देने बैठते हैं तो हमारा ध्यान उन बेटियों/महिलाओं पर जाता है, जो अपनी शिक्षा/क़ाबलियत के दम पर नारी शक्ति का परचम लहरा रही हैं !

वो दिन मेरे लिए बहुत ख़ास होगा जब मेरी बेटियों को तालीम की वजह से पहचाना जायेगा, लोग इन्हे इज़्ज़त के साथ सलाम करेंगे, और हमें हमारी पहचान की जगह उनके नाम से पहचाना जायेगा ! वो लम्हा बहुत फख्र का होता है जब औलाद की उपलब्धियों और आला मक़ाम की वजह से माँ बाप को पहचान मिलती है !

इसलिए कोशिश कीजिये कि बेटियों को पहली सीढ़ी से ही सशक्त बनाना शुरू करें, तालीम और तरबियत से आरास्ता करें, ताकि भविष्य में कभी नारी दिवस मने तो वो बेटियां आपको याद करें, आपको सलाम करें, उस मुक़ाम तक पहुँचाने के लिए आपकी शुक्रगुज़ार रहें, दुनिया में आप रहें या ना रहें, बेटियों को आपका दिया हुआ तालीम का तोहफा महकता रहेगा !

शुक्रवार, 4 मार्च 2016

कन्हैया को सोशल मीडिया पर मुसलमानो के समर्थन के मायने !!

सोशल मीडिया पर मुसलमानो द्वारा कन्हैया के समर्थन में आने पर कई मुस्लिम बुद्धिजीवी, ओवैसी समर्थक, और कुछ राष्ट्रिय मुस्लिम मंच टाइप के मुसलमान ऊँगली उठा रहे हैं !

इनमें कुछ तो इस्लाम की दुहाई देकर, 'राष्ट्रप्रेम' की हिज्जे कर मुसलमानो को इस मुहीम से अलग करने की नाकाम कोशिश करते देखे गए हैं, तो कुछ वामदलों के इतिहास की दुहाई देकर इस मुहीम को फेल करने में लगे नज़र आये !

क्योंकि मैं इन तीनो चारों श्रेणियों में से ना हो कर एक आम सोशल मीडिया यूज़र हूँ, इस नाते यहाँ जो सालों से देखा और महसूस किया उसके हिसाब से इसमें कोई बुराई नहीं होना चाहिए !

देश का मुसलमान अपनी विचारधारा और राजनैतिक समझ के अनुसार कई हिस्सों में बंटा हुआ है, यहाँ सोशल मीडिया पर कांग्रेस, भाजपा, AAP , सपा, बसपा, वामदल और कई क्षेत्रीय दलों के समर्थक मुसलमान मौजूद हैं !

ऐसे में अगर कोई ओवैसी समर्थक यह ऐतराज़ करे कि इससे अच्छी स्पीच तो ओवैसी ने हज़ार बार दे डाली, मुसलमानो ने क्यों वाह वाही नहीं की ?

यहाँ बात गौर करने की यह है कि कन्हैया एक गरीब घर का युवक है, एक छात्र है, उसकी तुलना खाते पीते, बैरिस्टर और घाघ नेता ओवैसी से या उनके भाषणो से क्यों ? क्या कन्हैया कोई चुनाव लड़ने जा रहा है, या मुस्लिम वोट बैंक छीन कर भाग रहा है ?

रही बात ओवैसी समर्थकों की या उनके भाषणो की तो यहाँ सोशल मीडिया पर उनके समर्थकों के हल्लेबाज़ी कम नहीं है, वो सब कुछ यहाँ कई बार शेयर कर चुके हैं और वाह वाही करा चुके हैं !

कन्हैया तो बाद में गिरफ्तार हुआ है, यहाँ सोशल मीडिया पर यही मुसलमान रोहित वेमुला के मुद्दे पर भी रोहित के समर्थन में एकजुट थे, तब किसी को क्यों आपत्ति नहीं हुई ?

यहाँ रोहित वेमुला या कन्हैया या फिर उमर खालिद के मुद्दे पर मुसलमानो के एकजुट हो जाने का मतलब उनकी तथाकथित वाम विचारधारा का समर्थन कैसे मान लिया जाए ?

यह थोपे जा रहे छद्म राष्ट्रवाद और संघ के साम्प्रदायिक एजेंडे के प्रति प्रतिरोध के खिलाफ आवाज़ है जिसके लिए मुसलमान एकजुट हो कर कन्हैया की आवाज़ में आवाज़ मिला रहे हैं !

हालिया दौर अस्थिर, साम्प्रदायिक उन्माद, और ज़बर राष्ट्रवादी लठैती का दौर है, ऐसे में अगर मुसलमान सोशल मीडिया पर इसके खिलाफ आवाज़ उठाने वाले कन्हैया की आवाज़ में सुर मिला रहे हैं तो मेरे ख्याल से किसी को ऐतराज़ नहीं होना चाहिए !

ओवैसी साहब अपना काम करते रहें, उनके समर्थक (अगर वाक़ई दिल से हैं) तो कहीं भागकर नहीं जाने वाले, और जो समर्थक नहीं है, वो ऐसी नसीहतों से समर्थक नहीं बनने वाले !

इसलिए अगर कोई अन्याय के और व्यवस्था के खिलाफ आवाज़ उठा रहा है, तो उसकी आवाज़ में आवाज़ मिलाने का अधिकार सबको है, इसपर रोक लगाना मेरे ख्याल से लोगों की व्यक्तिगत स्वतंत्रता का हनन ही कहा जायेगा !

फिर भी मुसलमानो को ऐसे मुद्दों पर इस या आगे किसीऔर कन्हैया का समर्थन करने से रोकेंगे तो फिर भक्तों में आप लोगों में क्या फ़र्क़ रह जायेगा भला ?