गुरुवार, 22 नवंबर 2018

Women Empowerment की ख़िज़ाँ में 'बहार' हैं कुछ मिसालें ! ========================================

शैक्षणिक और आर्थिक यानी तालीम और आत्मनिर्भरता के मामले में हमारी आधी आबादी (मुस्लिम औरतों) की हालत किसी से छुपी नहीं है, जब भी इस मुद्दे पर विचार विमर्श होता है, अगर मगर किन्तु परन्तु और कुतर्कों की बाढ़ आ जाती है !

मुस्लिम समाज में औरतों की तालीम का प्रतिशत डरावना है, आंकड़ों को पेश न करते हुए यही बात सामने रखने की कोशिश है कि बदलाव आ तो रहा है मगर इस डरावने प्रतिशत को देखते हुए बहुत ही कम रफ़्तार है, शैक्षणिक और आर्थिक (आत्मनिर्भरता) के मोर्चे पर मुस्लिम औरतों को अभी और बड़ी जंग लड़नी है !

बेटियों को दीनी तालीम के साथ दुनियावी तालीम से आरास्ता करना ज़रूरी है, उन्हें शैक्षणिक मोर्चे पर इतना मज़बूत करना है कि वो आगे जाकर किसी भी विपरीत परिस्थितियों में उसका डटकर मुक़ाबला कर सके, तालीम होगी तो बेटियां आर्थिक आत्मनिर्भरता के मोर्चे पर भी मज़बूतो होंगी !

अपने इर्द गिर्द और समाज में सोशल मीडिया में जब इस बदलाव की आहट सुनता हूँ तो ख़ुशी होती है, ऐसी ही एक मिसाल नज़र आयी फेसबुक पर दोस्त बनी असम राज्य की रहने वाली बहन डॉक्टर नील बहार बेगम के तौर पर, जब वो कोटा शहर में मेडिकल कोचिंग ले रही अपनी बिटिया से मिलने आईं और मुझे मेसेज कर इसकी इत्तिला दी, जब उनसे मिला तो पता लगा कि एक मुस्लिम औरत का शिक्षित होना और आर्थिक मोर्चे पर आत्मनिर्भर होना कितना ज़रूर है !

डॉक्टर नील बहार बेगम सहित सात बहने हैं, बचपन से ही उनके वाल्दैन ने उन्हें पढ़ाने के लिए किसी तरह की कोई कमी नहीं रखी, खास तौर पर उनकी वालिदा ने अपनी सातों बेटियों को पढ़ाने के लिए हमेशा से हौंसला दिया, और इस मामले में सातों बेटियों ने उनकी उम्मीदें पूरी कीं, सातों बहनें ग्रेजुएट हैं !

डॉक्टर नील बहार बेगम एक वेटनरी डॉक्टर हैं, उनका खुद का क्लिनिक है और साथ में ही डेरी फार्म भी है, जिसे वो अपने वेटनरी डॉक्टर शौहर के साथ मिलकर संभालती हैं, मैं यहाँ उनका ज़िक्र इसलिए ख़ास तौर पर कर रहा हूँ कि उन्होंने इस साल चार पांच महीने जो जद्दो जहद की है वो किसी आम औरत के बस की बात नहीं, इस बुरे वक़्त में उनकी तालीम और आत्मनिर्भरता ही उनके काम आई !

नील बहार बेगम के शौहर का 19 मढ़ 2018 को दरभंगा में रात दो बजे भयंकर कार एक्सीडेंट हुआ था,जिसमें वो गंभीर रूप से घायल हो गए थे, कार ड्राइवर उन्हें घायल हालत में छोड़कर भाग गया था, वो कार में ही फंसे रहे, हाई वे के आस पास वाले लोगों ने उनके एक लाख से ज़्यादा रूपये लूट लिए, मोबाइल छीन लिए मगर मदद नहीं की !

असम से दरभंगा जाकर अपने शौहर को संभाला और वहां से उनकी अस्थाई चिकित्सा कराकर असम लेकर आईं, जहाँ उनके चार ऑपरेशन हुए, इसी दौरान उन्होंने हॉस्टल में रहकर पढाई कर रही अपनी छोटी बेटी को गौहाटी जाकर संभाला, कोटा आकर अपनी दूसरी बेटी के कोचिंग एडमिशन की मालूमात की, एक वक़्त ऐसा आया कि जिस वक़्त वो कोटा में अपनी बिटिया का एडमिशन करा रही थीं उस वक़्त उनके शौहर को ऑपरेशन थिएटर में ले जाया रहा था !

कोटा (राजस्थान) में विमान सेवा नहीं होने की वजह से डॉक्टर नील बहार बेगम हवाई जहाज़ द्वारा आसाम से जयपुर आती हैं उसके बाद ट्रैन का सफर कर कोटा आती हैं, और अपनी बिटिया को संभाल कर उसी रुट से वापस अपने शहर जाती हैं !

दो बेटियों की मां डॉक्टर नील बहार बेगम के साथ फोटो में खड़ी हैं वो उनकी छोटी बहन जासमीन बहार हैं और सरकारी विभाग में शिक्षिका हैं, वो अपनी बहन के लिए एक हौंसला भी हैं, सात बहनों में पांच बहने जॉब में हैं, दो बहनें हाउस वाइफ हैं, डॉक्टर नील बहार बेगम के अलावा चारों बहने अध्यापन के क्षेत्र में हैं ! 

जब नील बहार बेगम के सामने आईं कठिन परिस्थितियाँ पर और उनके हौंसले पर नज़र डालते हैं तो समझ आता है कि इस बुरे वक़्त में उनकी तालीम और आत्मनिर्भरता ही काम आयी, जबकि इससे पहले वो कभी अकेले न बिहार गयीं थीं ना ही हवाई जहाज़ से सफर कर कोटा आईं थीं, इन पिछले चार महीने उन्होंने न सिर्फ अपने शौहर को संभाला बल्कि उन्हें बिहार से लेकर आसाम लेकर आईं, उनके चार ऑपरेशन कराये, अपना क्लिनिक संभाला, अपना डेरी फार्म संभाला, बच्चों की तालीम और एडमिशन वगैरह का काम संभाला, आर्थिक स्त्रोतों को जारी रखा, किसी तरह की आर्थिक परेशानी नहीं आने दी !

कहानी बहुत लम्बी हो चली है, निष्कर्ष यही है कि मुस्लिम महिलाएं अगर तालीम और आत्मनिर्भरता के क्षेत्र में आगे बढ़ती हैं तो वो मौक़ा आने पर किसी भी तरह की विपरीत परिस्थतियों को डटकर सामना कर सकती हैं, मर्दों के साथ कंधे से कन्धा मिलाकर चल सकती हैं !

डॉक्टर नील बहार बेगम के साथ बीती ये घटनाएं और उनका संघर्ष सही मायनों में Women Empowerment का जीता जागता उदाहरण है, और साथ में ये उन लोगों के मुंह पर भी तमाचा है जिन्हे Women Empowerment के नाम पर उबकाइयां आती हैं, महिला सशक्तिकरण के नाम पर अंडर गारमेंट बेचती अधनंगी औरतें याद आती हैं या फिर नालियों में पड़े भ्रूण नज़र आते हैं या फिर सनी लेओनी याद आती है मगर उन्हें ये याद नहीं आता कि मशहूर मैगज़ीन Forbes ने 2016 में अपनी '13th annual World’s 100 Most Powerful Women' की लिस्ट जारी की थी उन 100 शक्तिशाली औरतों में 6 मुस्लिम औरतों ने अपनी बा-वक़ार मौजूदगी दर्ज कराई थी !

मैंने इस लेख का शीर्षक नील बहार बेगम के नाम पर "Women Empowerment की ख़िज़ाँ में 'बहार' हैं कुछ मिसालें !" ही दिया है, बहन डॉक्टर नील बहार बेगम के संघर्ष और हिम्मत को सलाम, दुआ करता हूँ कि उनकी बिटिया भी पढ़ लिख कर डॉक्टर बने, अपने वाल्दैन के सपने पूरे करे और मुश्किलों से डटकर मुक़ाबला करने वाली अपनी मां जैसी मिसाल बने !!

बुधवार, 15 अगस्त 2018

मिलिए पूर्व RBI गवर्नर रघुराम राजन के गुरु रहे प्रोफ़ेसर आलोक सागर से !!


उलझे हुए बढे बाल, बढ़ी हुई दाढ़ी, हाथ में एक झोला और पैरों में टायर की बनी चप्पल.... यह हुलिया आईआईटी दिल्ली के एक प्रोफेसर आलोक सागर का है, जो गरीब आदिवासियों को जिंदगी बदलने का तरीका सिखाने उनके बीच अपनी पहचान छुपाकर रह रहे हैं !  आलोक RBI गवर्नर रहे रघुराम राजन सहित कई जानी-मानी हस्तियों को अमरीका में पढ़ा भी चुके हैं !

हाल ही में उनका नाम खबरों में तब छाया जब इंटेलिजेंस ने उनसे संदिग्ध व्यक्ति समझ अपनी पहचान बताने को कहा, जब प्रोफेसर आलोक सागर ने अपने बारे में बतया तो बस फिर क्या था उनकी हाई एजुकेशन और इस तरह की लाइफस्टाइल को देखकर तो इंटेलिजेंस के लोग भी हैरान रह गए, और फिर ये खबर पूरे देश में आग की तरह फ़ैल गयी !


उनका दिल्ली से अमेरिका तक का सफर :
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प्रोफेसर आलोक सागर का जन्म 20 जनवरी 1950 को दिल्ली में हुआ. आईआईटी दिल्ली में इलेक्ट्रॉनिक इंजीनियरिंग की !

1977 में अमेरिका के हृयूस्टन यूनिवर्सिटी टेक्सास से शोध डिग्री ली !
टेक्सास यूनिवर्सिटी से डेंटल ब्रांच में पोस्ट डाक्टरेट और समाजशास्त्र विभाग !
डलहौजी यूनिवर्सिटी, कनाडा में फैलोशिप भी की !


पढ़ाई पूरी करने के बाद आईआईटी दिल्ली में प्रोफेसर बन गए, यहां मन नहीं लगा तो नौकरी छोड़ दी, इस बीच वे यूपी, मप्र, महाराष्ट्र में रहे. आलोक सागर के भाई-बहनों के पास भी उच्च डिग्रियां है !

कई भाषाओं का ज्ञान :
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आलोक सागर के पिता सीमा व उत्पाद शुल्क विभाग में कार्यरत थे. एक छोटा भाई अंबुज सागर आईआईटी दिल्ली में प्रोफेसर है, एक बहन अमेरिका कनाडा में तो एक बहन जेएनयू में कार्यरत थी, सागर बहुभाषी है और कई विदेशी भाषाओं के साथ ही वे आदिवासियों से उन्हीं की भाषा में बात करते हैं !

25 सालों से रह रहे हैं आदिवासियों के बीच :
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आलोक सागर 25 सालों से आदिवासियों के बीच रह रहे हैं, उनका पहनावा भी आदिवासियों की तरह ही है, उनके बारे में किसी को जानकारी भी नहीं होती अगर बीते दिनों घोड़ाडोंगरी उपचुनाव में उनके खिलाफ कुछ लोगों द्वारा बाहरी व्यक्ति के तौर पर शिकायत नहीं की गई होती, पुलिस से शिकायत के बाद जांच पड़ताल के लिए उन्हें थाने बुलाया गया था. तब पता चला कि यह व्यक्ति कोई सामान्य ग्रामीण नहीं बल्कि एक पूर्व उच्च शिक्षित प्रोफेसर हैं !


26 साल पहले डिग्रियां संदूक में बंद कर दीं :
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आलोक सागर ने 1990 से अपनी तमाम डिग्रियां संदूक में बंदकर रख दी थीं, बैतूल जिले में वे सालों से आदिवासियों के साथ सादगी भरा जीवन बीता रहे हैं, वे आदिवासियों के सामाजिक, आर्थिक और अधिकारों की लड़ाई लड़ते हैं, इसके अलावा गांव में फलदार पौधे लगाते हैं !

अब हजारों फलदार पौधे लगाकर आदिवासियों में गरीबी से लड़ने की उम्मीद जगा रहे हैं, उन्होंने ग्रामीणों के साथ मिलकर चीकू, लीची, अंजीर, नीबू, चकोतरा, मौसंबी, किन्नू, संतरा, रीठा, मुनगा, आम, महुआ, आचार, जामुन, काजू, कटहल, सीताफल के सैकड़ों पेड़ लगाए हैं !

साइकिल से घूमते हैं और बच्चों को पढ़ाते हैं :
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प्रोफ़ेसर आलोक आज भी साइकिल से पूरे गांव में घूमते हैं, आदिवासी बच्चों को पढ़ाना और पौधों की देखरेख करना उनकी दिनचर्या में शामिल है, कोचमहू आने के पहले वे उत्तरप्रदेश के बांदा, जमशेदपुर, सिंह भूमि, होशंगाबाद के रसूलिया, केसला में भी रहे हैं. इसके बाद 1990 से वे कोचमहू गांव में आए और यहीं बस गए !

अंतर्राष्ट्रीय स्तर के इस प्रतिभाशाली व्यक्ति ने अपना सब कुछ त्याग कर ज़मीनी तौर पर गांवों और आदिवासियों के बीच रहकर उनके जीवन स्तर और जीवन यापन के सुधार के लिए अपने आपको झोंक रखा है, वो भी बिना किसी सरकारी मदद और सहायता के, ये निस्वार्थ सेवा भाव उन्हें और महान बनाता है !


मेरे लिए प्रोफ़ेसर आलोक सागर एक सुपर हीरो हैं उनके त्याग उनकी सेवा के लिए उनको दिल से लाखों सलाम !! 🙏 🙏

गुरुवार, 22 मार्च 2018

क्रिकेट टीम को टीम इंडिया नहीं बल्कि टीम BCCI कहिये !!


मैं क्रिकेट नहीं देखता, कभी बीस साल पहले थोड़ा देख लिया करता था, तब भी क्रिकेट देखने की वजह मेरा पसंदीदा खिलाड़ी विवियन रिचर्डस था, क्रिकेट न देखने की बड़ी वजह ये है कि जिसे आप टीम इंडिया कहते हैं वो क़ानूनी तौर‌ पर टीम BCCI है, भारत देश की टीम नहीं है !

BCCI ने आरम्भ से अपने आपको बड़ी चतुराई से किसी भी सरकारी नियंत्रण से मुक्त रखा है, जबकि BCCI करोड़ों रुपयों की मनोरंजन कर में छूट सरकार से ही लेती है, इसके अलावा लीज़ पर ज़मीनें, और दूसरी और BCCI  इनकम टेक्स, कस्टम ड्यूटी और अन्य कई प्रकार की छूट सरकार से ही लेती है, और हर छोटे बड़े खेल आयोजन पर सुरक्षा और अन्य नागरिक सुविधाओं की ज़िम्मेदार भी सरकार ही उठाती आयी है !

https://www.indiatoday.in/magazine/india/story/20130610-how-indian-cricket-is-controlled-bcci-srinivasan-meiyappan-763934-1999-11-30

BCCI बोले तो राजनेताओं और पूंजीपतियों जैसे मगरमच्छों के गठबंधन से खड़ा किया गया स्वायत्त बोर्ड, जो न भारत सरकार के खेल मंत्रालय के अधीन है, ना भारतीय खेल अधिनियम के ना भारतीय ओलंपिक संघ से और ना ही आरटीआई के दायरे में आता है !



BCCI को कोई अधिकार नहीं है कि वो एक स्वायत्त बोर्ड द्वारा चयनित टीम को टीम इंडिया का नाम दे :-
https://www.thehindubusinessline.com/2004/10/01/stories/2004100103330400.htm 

यही एक ऐसा खेल है जिसमें भारत के खेल मंत्रालय की कोई भूमिका नहीं होती, भारतीय ओलंपिक संघ से कोई मतलब नहीं होता, पर भारत सरकार से छूट और सुविधाएं सारी ली जाती हैं, यहां तक कि स्टेडियम से लेकर टिकट पर टैक्स तक की करोड़ों की रकम BCCI हर मैच में चाट जाती है !


इसी BCCI ने क्रिकेट को बेचने के लिए इसे टीम इंडिया का नाम देकर इस को राष्ट्रवाद से जोड़ा, और उसके बाद इसके IPL T-20 जैसे वर्जन लाकर जमकर बेचा और तगड़ा मुनाफा कूटा !

जब भी BCCI को 'टीम इंडिया' शब्द प्रयोग करने से रोकने, भारतीय खेल अधिनियम और आरटीआई के अंतर्गत लाने की बात उठती है तो संसद में मौजूद सियासी घाघ जो BCCI में पदों पर बैठकर मलाई खा रहे हैं, फौरन विरोध करने एकजुट हो जाते हैं !

राजनेताओं और पूंजीपतियों के गठबंधन से खड़े किए गए आॅटोनोमस बोर्ड BCCI द्वारा खड़ी की गई टीम को मैं कभी टीम इंडिया नहीं कहूंगा !

एक इसी लिए मैंने टीम BCCI के मैच देखना बंद कर दिये हैं, जब 'टीम इंडिया' खेलेगी तो देखूंगा ज़रूर, तब तक देशद्रोही ही सही !!

बुधवार, 21 मार्च 2018

तालीम के लिए जद्दो जहद की एक मिसाल !!


CNN में छपी इस खबर ने वैश्विक जगत का ध्यान अपनी ओर खींचा है, अपनी गोदी में 2 महीने के बच्चे को लिए फर्श पर बैठ कर परीक्षा दे रही औरत का ये फोटो अफ़्ग़ानिस्तान के डाकुण्डी प्रान्त का है, और ये सोशल मीडिया पर कल से हज़ारों की संख्या में शेयर हो रहा है, 25 साल की जहां ताब नाम की ये महिला सोशल साइंस विषय की प्रवेश परीक्षा के लिए यूनिवर्सिटी सेंटर पर फर्श पर बैठकर एग्जाम दे रही है, जबकि बाक़ी परीक्षार्थी मेज़ कुर्सियों पर बैठकर परीक्षा दे रहे हैं, और जहां ताब के बराबर एग्जामिनर भी कुर्सी पर बैठी हैं !
ताब जहाँ का दो माह का बच्चा भी है, जिसे वो अकेला घर नहीं छोड़ सकती थी, अत: वो उसे अपने साथ परीक्षा केंद्र ले आयी, परीक्षा के दौरान जब बच्चा रोने लगा तो जहां ताब अपनी कुर्सी छोड़ कर फर्श पर बैठ गयी और बच्चे को गोदी में लेकर चुप कराती रही और साथ में परीक्षा भी देती रही !
इस परीक्षा को देने के लिए ताब जहां आठ घंटे का सफर कर परीक्षा केंद्र तक पहुंची थी !
ये दृश्य इतना दिल को छू लेने वाला था कि यूनिवर्सिटी के लेक्चरर इरफ़ान ने इस फोटो को क्लिक कर फेसबुक पर अपलोड कर दिया, देखते ही देखते ये फोटो फेसबुक के साथ कई सोशल मीडिया साइट्स पर भी वायरल हो गया, हालाँकि इरफ़ान ने बाद में फेसबुक से अपनी वो पोस्ट डिलीट कर दी, मगर ताब जहाँ के ये फोटो सोशल मीडिया के साथ दुनिया के अखबारों और मीडिया में सुर्खियां बटोर रहे हैं !
CNN पर इस खबर को यहाँ पढ़ सकते हैं :-

इरफ़ान के अनुसार ताब जहाँ इस प्रवेश परीक्षा में पास हो गयी है, और वो अब अपनी उच्च शिक्षा के लिए यूनिवर्सिटी में पढ़ना चाहती है, मगर दुःख की बात ये है कि वो बहुत ही गरीब परिवार से आती है, और उसका पति किसान है तथा गरीब भी है, जबकि यूनिवर्सिटी फीस 10,000 से 12,000 अफगानी रुपयों में यानी $143 से $172 के बराबर है, जो वो वहां नहीं कर सकते, ताब जहाँ यूनिवर्सिटी प्रशासन से आग्रह कर रही है कि वो उसकी फीस में रियायत दे दें ताकि पढाई का उसका सपना पूरा हो सके !

इसी बीच ताब जहाँ की कहानी विश्व भर में वायरल होने के बाद एक ब्रिटिश आर्गेनाईजेशन और अफ़ग़ान यूथ एसोसिएशन ने मिलकर ताब जहाँ की आगे पढ़ाई के लिए फण्ड रेज़िंग कैंपेन चलाया है, जिसका नाम दिया गया है 'GoFundMe' !
ख़ुशी और राहत की बात ये है कि ताब जहाँ के लिए चलाये जा रही 'GoFundMe' मुहिम के तहत अभी तक 1125 पाउंड्स जमा हो चुके हैं, जबकि इस मुहिम का टारगेट है 5000 पाउंड्स !!
ट्वीटर पर ताब जहाँ के लिए लोग जुट गए हैं, और #JahanTaab हैशटैग ट्रेंड करने लगा है :-

'GoFundMe' मुहिम को आप इस लिंक पर जाकर देख सकते हैं, और मदद भी कर सकते हैं :-

इस मुहीम को शुरू करने वाले कहते हैं कि अपने दो महीने के बच्चे को गोद में लिए तालीम के लिए जद्दो जहद करती इस ताब जहाँ को अपने ख्वाब पूरे करने में कोई रुकावट नहीं आना चाहिए, इसके लिए हम ताब जहाँ की फीस के लिए मुहीम चला रहे हैं, साथ ही मुहीम से जुड़े लोग अफ़्ग़ानिस्तान के क्लब्स, यूनिवर्सिटीज और संस्थाओं से भी इस मुहीम को कामयाब बनाने के लिए आगे आने का आग्रह कर रहे हैं !
दुनिया में किसी को तालीम घर के दरवाज़े पर मिल जाती है, ऑनलाइन पढ़ सकते हैं, और ताब जहाँ जैसी कुछ ऐसी भी हैं जिन्हे तालीम के लिए हर क़दम पर जद्दो जहद करना पड़ती है !!
ताब जहाँ के इस जज़्बे को दिल से सलाम, और दुआ करता हूँ कि अल्लाह उसे अपने मक़सद में कामयाबी अता फरमाए, उसके ख्वाब पूरे हों !

मंगलवार, 20 मार्च 2018

जानिये 'स्टॉकहोम सिंड्रोम' के बारे में !!


भारत का तो मुझे ज़्यादा मालूम नहीं, लेकिन पाकिस्तान में मुर्गी का गोश्त बेचने वाले हर कसाई की दुकान पर एक बड़ा सा लोहे का पिंजड़ा पड़ा रहता है, ये पिंजड़ा इतना भारी होता है कि चुराना भी मुश्किल होता है !

सुबह-सुबह मुर्गियों से भरा एक ट्रक आता है और खाली पिंजड़ा ऊपर तक भर जाता है. और फिर कसाई का हाथ इस पिंजड़े में आता है जाता है, जाता है आता है !

वो अपनी मर्ज़ी की मुर्गी नंगे हाथ से पकड़कर बाहर निकालता है !

एक भी मुर्गी उसके हाथ पर चोंच नहीं मारती, बस डरकर सहम जाती हैं और फिर शायद ये सोचकर नॉर्मल हो जाती है कि हो सकता है हमारी बारी न आए !

लेकिन फिर हर शाम को पिंजड़ा खाली होता और सुबह फिर भर जाता है !

कुछ लोग बंदी बनने के बावजूद भी विरोध करना पसंद नहीं करते, बल्कि कई को तो बंदी बनाने वाले से प्यार हो जाता है !
पढ़े-लिखे लोग इसे स्टॉकहोम सिंड्रोम कहते हैं. पर मुझे लगता है कि ये सिंड्रोम सबसे ज़्यादा हमारे देशों में ही पाया जाता है !
(वुसतुल्लाह खान साहब के इसी ब्लॉग से) :-
https://www.bbc.com/hindi/international-38790379

अब आगे जानिये इस 'स्टॉकहोम सिंड्रोम' के बारे में :-
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'स्टॉकहोम सिंड्रोम' नाम मिला था 23 अगस्त 1973 की एक घटना की वजह से !

उस दिन स्वीडन में एक बैंक डकैती हुई थी, दो लोग मशीन गन ले के घुसे थे, घुसते ही बोले कि पार्टी तो अभी शुरू हुई है. बैंक के लोग डर गए, फिर सोचे कि ये लोग चले जायेंगे कुछ देर में, पर हुआ कुछ ऐसा कि मामला 6 दिन खिंच गया, 23 अगस्त से लेकर 28 अगस्त तक, बैंक के स्टाफ बैंक के ही वॉल्ट में बंधुआ बने बैठे थे, और डकैत पुलिस से मोलाई कर रहे थे !

बाहर लोग चिंतित थे कि अन्दर के स्टाफ कितने दर्द में होंगे. क्या सोच रहे होंगे, पर जब स्टाफ बाहर आये तो उनके मन में कोई गुस्सा नहीं था !

बल्कि उलटे डकैतों से उनको बड़ी सहानुभूति हो गई थी. इतनी कि एक स्टाफ ने तो एक डकैत से सगाई कर ली, एक दूसरे स्टाफ ने चंदा लगाकर फंड बनवाया. ताकि डकैतों का केस लड़ा जा सके !

इसके लक्षण किडनैपिंग के अलावा दूसरी बातों में भी देखे जाते हैं. जैसे इंजीनियरिंग के छात्रों में. जब आप पूछेंगे कि रैगिंग कैसी लगती थी ? तो बोलेंगे कि सर, बड़ा मजा आता है, सीनियर लोगों ने जिंदगी जीना सिखा दिया ! जबकि सच्चाई ये थी कि उनको कई बार नंगा कर पीटा भी जाता था !

फिर ये लक्षण रिश्तों में भी देखे जाते हैं, कई जगह हम लोग ये देखते हैं कि पति-पत्नी में मार मची हुई है, हम सोचते हैं कि ये लोग एक-दूसरे से अलग क्यों नहीं हो जाते. क्योंकि कुछ भी जाए, दोनों साथ ही रहते हैं !

इस सिंड्रोम के चलते लोगों को अपने abusers (कष्ट देने वाले) से ही लगाव हो जाता है ! यह एक सुनियोजित ब्रेन वाशिंग रणनीति भी कही जाती है !

और यही लक्षण अब राजनीति में भी परिलिक्षित होते नज़र आने लगे हैं, कभी गैस तो कभी पेट्रोल तो कभी डीज़ल की कीमतें बढ़ती हैं, कभी टैक्स बढ़ता है, तो कभी रेल किराए बढ़ते हैं लोग महंगाई, भुखमरी, नोटबंदी, बेरोज़गारी, साम्प्रदायिकता, किसानों की आत्म हत्याएं और बढ़ती असहिष्णुता के कष्ट उठाने के बावजूद लोग सरकार के गुण गाते नज़र आते हैं !!

'स्टॉकहोम सिंड्रोम' के बारे में विस्तार से यहाँ पढ़ सकते हैं :-
http://www.bbc.com/news/magazine-22447726

सोमवार, 19 मार्च 2018

'वो' मुसलमान और 'हम' मुसलमान !!


शायद ही कोई होगा जिसने ये ख़बर नहीं पढ़ी होगी कि यूरोप और अमरीका में इस्लाम तेज़ी से फ़ैल रहा है, और इस्लाम ही एक ऐसा मज़हब है जिसे लोग सबसे ज़्यादा अपना रहे हैं, 2010 में अमरीका में हुई धार्मिक संगणना के आंकड़ों के अनुसार अमरीका में सबसे तेज़ी से फैलने वाला मज़हब इस्लाम है :-
http://www.nydailynews.com/news/national/number-muslims-u-s-doubles-9-11-article-1.1071895
और सबसे ख़ास बात ये कि 9 /11 हमलों के बाद इसमें काफी तेज़ी आयी है !
यही कुछ हाल यूरोप का भी है, पीयू रिसर्च के आंकड़ों के अनुसार यूरोप में भी इस्लाम तेज़ी से फ़ैल रहा है, यूरोपियन यूनियन जिसमें (नॉर्वे और स्विट्ज़रलेंड भी आता है) के देशों में मोटे तौर पर इनका प्रतिशत 3.8% से बढ़कर 4.9% पहुँच गया है :-
यह सब बदलाव और तेज़ी 9 /11 हमलों के बाद ही हुई है, आज अमरीका में ही मुसलमनो की तादाद 9 /11 हमलों के बाद से दोगुनी है :-

इसके पीछे की वजहों पर नज़र डालेंगे तो कई फैक्टर्स नज़र आएंगे, 9 /11 हमलों के बाद अमरीका और यूरोप में मुसलमानो के खिलाफ नफरत का पहाड़ टूट पड़ा, सैंकड़ों गिरफ्तारियां हुईं, इनके खिलाफ नस्लीय हिंसा हुई, मस्जिदें जलाई गयीं, और इस्लामोफोबिया का क़हर पूरे अमरीका और यूरोप के मुसलमानो पर टूट पड़ा !

यहाँ बात इस्लामोफोबिया की आयी है तो इस पर भी रुक कर नज़र डाल लीजिये, इस लफ्ज़ को पैदा करने वाले और इसे शातिराना ढंग से दुनिया भर में फ़ैलाने के पीछे कई दक्षिणपंथी अमरीकी, इज़राईली और नव नाज़ी ग्रुप्स काम कर रहे हैं !
सेंटर फॉर अमेरिकन प्रॅाग्रेस द्वारा जारी एक रिपोर्ट के मुताबिक अमेरिका में मुसलमानों का ख़ौफ़ फैलाने के लिए चलाये गये दस साल लंबे अभियान के पीछे एक छोटा सा समूह है जिसमें एक दूसरे से ताल्‍लुक रखने वाले कुछ संस्‍थान, ‘थिंक टैंक’, बुद्धिजीवी और ‘ब्‍लॉगर’ शामिल हैं !
‘फीयर, इंक: द रूट ऑफ द इस्‍लामोफोबिया नेटवर्क इन अमेरिका’ शीर्षक वाली 130 पन्‍नों की रिपोर्ट में सात सस्‍थाओं की शिनाख्‍़त की गई है जिन्‍होंने चुपचाप 4 करोड़ 20 लाख डालर ऐसे व्‍यक्‍तियों और संगठनों को दिये जिन्‍होंने वर्ष 2001 से 2009 के बीच मुसलमानों के खिलाफ इस्लामोफोबिया मु‍हिम चलाई !
इनमें ऐसी वित्‍तपोषी संस्‍थायें शामिल हैं जो लंबे समय से अमेरिका में चरम दक्षिणपंथ से जुड़ी हुई हैं और कई यहूदी पारिवारिक संस्‍‍थायें भी शामिल हैं जिन्‍होंने इज़राइल में दक्षिणपंथी और उपनिवेशी समूहोंका समर्थन किया है, इनमें से ‘फीयर, इंक' की रिपोर्ट के अनुसार मुख्य कुछ इस तरह से हैं :-
Some of these foundations and wealthy donors also provide direct funding to anti-Islam grassroots groups. According to our extensive analysis, here are the top seven contributors to promoting Islamophobia in our country:
1 Donors Capital Fund.
2 Richard Mellon Scaife foundations.
3 Lynde and Harry Bradley Foundation.
4 Newton D. & Rochelle F. Becker foundations and charitable trust.
5 Russell Berrie Foundation.
6 Anchorage Charitable Fund and William Rosenwald Family Fund.
7 Fairbrook Foundation.
इस कुटिल षड्यंत्र ‘फीयर, इंक' के बारे में विस्तार से आप यहाँ पढ़ सकते हैं :-
और यहाँ भी पढ़ सकते हैं :-
इस कुटिल इस्लामोफोबिया मुहिम को ऑक्सीजन तब मिली जब अमरीका में 9 /11 हमला हुआ, अमरीका सहित यूरोप में मुसलमानों के खिलाफ नफरत और हिंसा का बाज़ार गर्म हो गया, इस 'इस्लामोफोबिया मुहिम' के पीछे काम कर रहे लोगों ने इसे खूब भुनाया !
इनकी इस मुहिम को झटका तब लगा जब 2011 में नॉर्वे में आंद्रे ब्रेविक ने ऐसे ही इस्लामॉफ़ोबिक ग्रुप्स की नफरत से प्रेरित होकर 79 बेक़ुसूर लोगों को मौत की घाट उतार दिया :-
अमरीका और यूरोप सहित कई देशों में आंतरिक तौर पर इस तरह के मुस्लिम विरोधी, आब्रजक विरोधी, नस्ली हिंसा फ़ैलाने वाले दक्षिणपंथी संगठनों पर रोक और लगाम लगाने की कोशिशें की जाने लगीं !
अब वापस आते हैं अमरीका और यूरोप में तेज़ी से फैलते इस्लाम और इसकी वजहों के बारे में, 9 /11 हमलों के बाद जब दुनिया भर में मुसलमानो के खिलाफ नफरत का बाज़ार गर्म था, तब वहां के मुसलमानों ने बहुत सब्र और तहम्मुल से काम लिया, ऐसी हज़ारों कहानियां हैं जिसमें मुसलमानो ने उस मुश्किल दौर में इस नफरती लहर से सलीक़े से टक्कर ली !
उन्होंने वहां के लोगों के गुस्से और नाराज़गी को समझा, उनके साथ उस दुःख की घडी में खड़े हुए, नफरत को दरकिनार करते हुए दीन पर क़ायम रहकर उन्हें अम्नो अमान का पाठ पढ़ाया, अपने आमाल से उन्हें दिखाया कि जो इस्लाम की भ्रांतियां वो मुसलमानो के खिलाफ दिमाग में लिए घूम रहे हैं वो सही इस्लाम नहीं है सही इस्लाम हमसे सीखिये !
9 /11 के हमले के बाद भी अमरीका और यूरोप में कई और आतंकी हमले हुए, और वहां के मुसलमान हर बार वहां के लोगों के निशाने पर आये, मगर मुसलमानो ने हार नहीं मानी, वो हर बार इस नफरत की काट करने मिलकर एकजुट होकर हर मुल्क में एक साथ खड़े हुए, अपने खिलाफ लोगों के दिलों से इस्लाम के बारे में गलतफहमियां दूर कीं !
कहीं भी ले लीजिये, चाहे अमरीका हो, ऑस्ट्रेलिया हो, ब्रिटैन हो, स्पेन हो, फ़्रांस हो, जर्मनी हो, कहीं भी इस तरह की इस्लामॉफ़ोबिक लहर उठी है तो वहां के मुसलमानों ने इसे असल इस्लाम से ही ध्वस्त किया है !
ब्रिटैन के मुसलमानो को ही लीजिये, ब्रिटेन में करीब 30 लाख मुसलमान हैं जो देश की कुल जनसंख्या का 5% है, वहां की मुस्लिम कौंसिल ऑफ़ ब्रिटेन ने 2015 में 20 मस्जिदों को लेकर #VisitMyMosque 'मेरी मस्जिद में तशरीफ़ लाईये' अभियान शुरू किया था, और तब से ये लगातार जारी है, अब इस अभियान में ब्रिटेन की 200 से ज़्यादा मस्जिदें शामिल हो गयीं हैं, इस मुहिम के बारे में आप इस लिंक पर देख सकते हैं :-

यहाँ भी पढ़ सकते हैं :-
इस 'Visit My Mosque' मुहिम का मक़सद है इस्लामी नज़रिये से ही 'इस्लामोफोबिया' की काट, जितनी मस्जिदें हिस्सा लेती हैं उन सब में एक दिन 'ओपन डे' रखा जाता है, इस दिन मस्जिदों के दरवाज़े सभी के लिए खुल जाते हैं, मस्जिद में आने वाले लोगों के लिए चाय नाश्ते का इंतेज़ाम रहता है, उन्हें नमाज़ और उसके तरीकों के बारे में बताया जाता है, मस्जिद का दौरा कराया जाता है, साथ ही इस्लाम के लिए उनके दिल में बसी दुर्भावनाओं और भ्रांतियों पर खुलकर चर्चा होती है और उनको दूर किया जाता है !
'Visit My Mosque' मुहिम ब्रिटेन में सभी वर्गों का ज़बरदस्त समर्थन मिल रहा है, इससे आप अंदाज़ा लगा सकते हैं कि मुसलमान चाहें तो अपने आमाल और नज़रिये से किसी भी गैर मुस्लिम को इस्लाम की सही तस्वीर पेश कर सकता है !
पोस्ट काफी लम्बी हो गयी है, इसका मक़सद या निचोड़ यहाँ आखरी दो पैराग्राफ में सामने रखने की कोशिश करता हूँ, सबसे ज्यादा मुस्लिम आबादी वाले देशों की सूची में भारत अभी इंडोनेशिया के बाद दूसरे नंबर पर है, अमरीका और यूरोप के मुसलमानो और भारत के मुसलमानो के बीच अगर तुलनात्मक तौर पर देखें तो वहां के मुक़ाबले यहाँ गैर मुस्लिमों द्वारा इस्लाम क़ुबूल करने वालों की तादाद अभी भी उनके मुक़ाबले कुछ भी नहीं है, इसकी वजहों पर ग़ौर कीजिये !
हम पाएंगे कि जहाँ वो लोग गैर मुस्लिमों के लिए मस्जिदों के दरवाज़े खोल रहे हैं, इस्लाम की सही तालीम गैर मुस्लिमों तक पहुंचा रहे हैं, वहीँ भारत के मुसलमान मस्जिदों के दरवाज़े फ़िरक़ों के हिसाब से खोल और बंद कर रहे हैं, मस्जिदों की दीवारों पर बोर्ड लटका रहे हैं कि फलां फ़िरक़े वालों के लिए मस्जिद खुली है, और फलां के लिए बंद है !

सोशल मीडिया को ही लीजिये, यहाँ हम मुसलमानों ने क्या कमी रखी है ? सियासी नज़रिये में फ़र्क़ होते ही एक मुसलमान दूसरे मुसलमान को मुनाफ़िक़, नास्तिक जैसे तमगे दे जाता है, फ़िरक़े बाज़ी, मसलक बाजी मुसलमानो का आम शुगल हो गया है, जुलाहे, सय्यद, पठान मुद्दों पर ही आपस में एक दूसरे पर थूक रहे हैं और गैर मुस्लिम इस तमाशे को देखकर न सिर्फ हंस रहे हैं बल्कि हमारे कारनामों के ज़रिये पेश किये जा रहे इस्लाम के प्रति अपना नजरिया भी बना रहे हैं, ऐसे में कौन इस्लाम क़ुबूल करेगा ??

मान लीजिए कर भी लिया तो कल को उससे मस्जिद में घुसने से पहले फ़िरक़ा पूछा जायेगा, वो मस्जिदों के दरवाज़ों पर लगे उन नोटिस बोर्ड्स को पढ़कर हैरान रह जायेगा जिसमें फलां फ़िरक़े की एंट्री है और फलां फ़िरक़े की नहीं, यही फ़र्क़ है 'उन' मुसलमानों में और 'हम' मुसलमानों में !!
इस्लाम अपने आप में न सिर्फ एक मज़हब है बल्कि जीवन यापन का मुकम्मल तरीक़ा भी है, इस्लाम को गैर मुस्लिम उनके पहनावे, दाढ़ी, टोपी या बुर्क़े से नहीं समझते बल्कि मुसलमान के आमाल से पहचानते हैं जो कि इस्लाम की रूह ही है !
इस्लाम में अमल को ही अहमियत दी गयी है, अगर आपके पास इल्म है और अमल नहीं तो बेकार है, और दुनिया से इंसान अपने साथ अपने आमाल ही लेकर जाता है !
उम्मीद है मेरी इस लम्बी पोस्ट का मक़सद आप तक पहुँच गया होगा, तो आज से तय कर लीजिये कि हम अपने आमाल से गैर मुसलिमों को कौनसा इस्लाम पेश करना चाहते हैं !!

शनिवार, 17 मार्च 2018

विश्व में अधिकांश देश सोशल मीडिया पर हेट स्पीच के खिलाफ तत्पर, मगर भारत ??



अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए सोशल मीडिया विश्व में बहुत बड़ी भूमिका निभा रहा है, हर साल सोशल मीडिया पर लाखों करोड़ों लोग इस मंच से जुड़ते हैं, मगर जहाँ ये मंच लोगों को कनेक्ट करने में अहम् भूमिका निभाने के लिए रोल अदा कर रहा है, वहीँ विश्व में पिछले सालों में इसका दुरूपयोग करने के मामलों में बड़ी तेज़ी से वृद्धि हुई है !

विश्व में सोशल मीडिया के प्रसार के साथ घृणा और हिंसा के प्रसार में भी उसका इस्तेमाल होने लगा है, कई देश इस दुरूपयोग से चिंतित हैं और इसके खिलाफ तत्परता से संज्ञान ले रहे हैं, दुनिया के दूसरे देशों की तरह जर्मनी भी सोशल मीडिया पर नफरत फैलाने वालों से तंग है, और इसके खिलाफ कड़े क़दम उठाना शुरू भी कर दिए हैं !


इसी के चलते जर्मनी की धुर दक्षिणपंथी महिला सांसद को नए साल की पूर्व संध्या पर सोशल मीडिया पर मुस्लिम विरोधी भड़काऊ टिप्पणी करने पर पुलिस जांच का सामना करना पड़ रहा है !

ऐसे नफरती गैंग के लोगों को काबू करने के लिए जर्मनी में पहली जनवरी से एक नया कानून लागू किया गया, इस कानून के मुताबिक सोशल मीडिया वेबसाइटों ने अगर रिपोर्ट करने के बाद भी 24 घंटे के भीतर हेट स्पीच वाली सामग्री को नहीं हटाया तो उन पर पांच करोड़ यूरो (यानि 380 करोड़ रुपए) का जुर्माना लग सकता है :-
http://www.bbc.com/news/technology-42510868

इसी क़ानून के डर के चलते ट्विटर ने झटपट कई मुस्लिम विरोधी और प्रवासी विरोधी ट्वीट हटा दिए थे !

जर्मनी की इस पहल के बाद फ़्रांस के राष्ट्रपति इमानुअल मेक्रोन ने भी सोशल मीडिया के दुरूपयोग और ऑनलाइन फेक न्यूज़ के खिलाफ कड़े क़दम उठाये हैं :-
http://en.rfi.fr/france/20180104-new-media-law-france-target-fake-news-and-social-media-meddling 


ब्रिटैन ने भी फेसबुक के साथ मिलकर सोशल मीडिया पर पांव फैला रहे नफरती गैंग्स और उनके घृणित एजेंडों पर लगाम लगाने की पहल की है और Britain First जैसे दक्षिणपंथी संगठन और उसके पदाधिकारियों के अकाउंट ससपेंड कर दिए हैं :-
https://www.aljazeera.com/news/2018/03/anti-islam-britain-group-banned-facebook-180314134502964.html


13 मार्च 2018 को अल-जज़ीरा ने ही खबर दी थी UN फैक्ट फाइंडिंग टीम ने कहा है कि म्यांमार में रोहिंग्या मुसलमानो के क़त्ले आम में फेसबुक ने बड़ा रोल अदा किया है :-
https://www.aljazeera.com/news/2018/03/facebook-role-rohingya-genocide-180313161609822.html 

श्रीलंका में अतिवादी बौद्धों और मुसलमानो के बीच हुए दंगों में भी इसी फेसबुक ने रोल अदा किया था, श्रीलंकन पुलिस ने बताया था कि सोशल मीडिया ने इस हिंसा को बढ़ने में अहम् रोल अदा किया था, इसी के चलते वहां सोशल मीडिया पर रोक लगा दी गयी थी जिसे सोशल मीडिया साइट्स के आश्वासन के चलते एक हफ्ते बाद उठाया गया :-
http://www.business-standard.com/article/international/sri-lanka-lifts-ban-on-facebook-after-assurance-from-social-media-giant-118031500791_1.html 

अरब देशों में वैसे भी सोशल मीडिया पर दुष्प्रचार, हेट स्पीच और हिंसक पोस्ट्स के खिलाफ कड़े क़ानून हैं, अभी मार्च 2017 की ही बात है कि दुबई में मालाबार गोल्ड एंड डायमंड में कार्यरत एक भारतीय को दुष्प्रचार करने ट्रॉलिंग करने के आरोप में गिरफ्तार कर उस पर 250,000 दिरहम का जुर्माना लगा कर भारत डिपोर्ट कर दिया गया था :-
http://www.qatarday.com/news/international/-deportation-dh250000-fine-for-facebook-abuse/47629 


कई देशों के कई उदाहरण है, जहाँ सोशल मीडिया पर हेट स्पीच, दुष्प्रचार, धार्मिक नफरत फ़ैलाने से तंग आकर कड़े क़ानून और सज़ाएं दी जा रही हैं, मगर भारत में इसका उल्टा हो रहा है, सोशल मीडिया पर नफरती गैंग्स को आशीर्वादों, और फॉलोविंग से नवाज़ा जा रहा है !

भारत में सोशल मीडिया का दुरूपयोग, इस मंच से नफरत, साम्प्रदायिकता फ़ैलाने, दुष्प्रचार करने, अफवाहें फ़ैलाने के लिए खुल कर इस्तेमाल हो रहा है, मुज़फ्फरनगर दंगा किसे याद नहीं है, एक फेक वीडियो को वायरल कर पूरे यूपी को दंगों की आग में झोंक दिया गया था :-
https://www.hindustantimes.com/india/muzaffarnagar-riots-fake-video-spreads-hate-on-social-media/story-WEOKBAcCOQcRb7X9Wb28qL.html


इसके अलावा भी हज़ारों उदाहरण हैं, जहाँ इस मंच के ज़रिये झूठ, साम्प्रदायिकता, दुष्प्रचार, नेताओं के चरित्र पर झूठे लांछन, फ़र्ज़ी और फोटोशॉप खबरे  समाज और सौहार्द को तोड़ने हिंसा फैलाई गयी है, और ये क्रम जारी है !

सबेस दुखद बात ये है कि कई मामलों में खुद सत्ता पर क़ाबिज़ सियासी दल और उनके आईटी सेल इसमें भूमिका निभाते पाए गए, सोशल मीडिया पर नकेल या दुरूपयोग के लिए बने क़ानून का इस्तेमाल सत्ता में बैठे लोग, राजनैतिक प्रतिद्वंदियों और विरोधियों को डराने, दमन करने के लिए इस्तेमाल करते हैं !


अब भी अगर विश्व में अन्य देशों की तरह भारत में सोशल मीडिया के इस निरंकुश दुरूपयोग पर नकेल नहीं कसी गयी तो लोगों को आपस में जोड़ने के लिए बना ये मंच लोगों को तोड़ने, समाज, सौहार्द, सद्भाव, और लोकतंत्र के लिए बड़ा खतरा बनकर खड़ा हो जायेगा, तब तक देर हो चुकी होगी !!

मंगलवार, 13 मार्च 2018

मिलिए मुल्क को 900 + डॉक्टर्स देने वाले डा. अब्दुल क़दीर साहब से !!


आज मुल्क की एक ऐसी मशहूर-ओ-मारूफ शख्सियत से मिलने का शर्फ हासिल हुआ, जिनके बारे में सिर्फ सुना ही था, और वो हैं “शाहीन ग्रुप ऑफ इंस्टीटूशन्स” के फाउंडर जनाब डा. अब्दुल क़दीर साहब !
डा. अब्दुल क़दीर साहब का नाम मुल्क में तालीमी बेदारी के आइकॉन के तौर पर लिया जाता है, और उनके तालीमी इदारे “शाहीन ग्रुप ऑफ इंस्टीटूशन्स” का नाम दुनिया भर में बेहतरीन तालीम और कोचिंग के लिए जाना जाता है !
डा. अब्दुल क़दीर साहब का कोटा (राजस्थान) में अल-बयान पब्लिक स्कूल के उद्घाटन के सिलसिले में आना हुआ, इस स्कूल के सरपरस्त असिस्टेंट प्रोफ़ेसर (उर्दू) जनाब डा. मोहम्मद नईम साहब हैं !
डा. अब्दुल क़दीर साहब एक इंजिनियर हैं, मगर इन्होने मुल्क में तालीमी बेदारी के साथ साथ एक नेक इंसान बनाने की मुहीम के लिए काम करने का फैसला लिया, और 1989 में एक छोटे से कमरे में 17 स्टूडेंट्स के साथ कोचिंग इंस्टिट्यूट की शुरुआत की, आज इस इंस्टिट्यूट के अंतर्गत 16 प्री यूनिवर्सिटी कॉलेज और 9 कॉलेज चल रहें हैं साथ ही एक डिग्री कॉलेज भी चलाया जा रहा हैं जिसकी ब्रांच बंगलौर और मैसूर में है !
“शाहीन ग्रुप ऑफ इंस्टीटूशन्स” में 50 फ़ीसदी स्टूडेंट्स गैर मुस्लिम हैं, और यहाँ लड़कियों के लिए Bsc और BA की तालीम का अलग से इंतज़ाम भी है, और ये इंस्टीटूशन ऑटोमोबाइल और मोबाइल फ्री है !
डा. अब्दुल क़दीर साहब का कहना था कि आजकल लोग अपने लिए बड़े बड़े मकान तामीर कर रहे हैं, और इस तामीर पर दिल खोलकर खर्च कर रहे हैं, मगर लोग अपनी नस्ल की तामीर के लिए बिलकुल भी फिक्रमंद नहीं हैं, जबकि नस्ल की तामीर मकान की तामीर से ज़्यादा अहम् है, उनका कहना था कि एक बच्चे/बच्ची को पढ़ाया तो समझिये कि एक नस्ल को शिक्षित कर दिया !
शाहीन ग्रुप ऑफ़ इंस्टिट्यूट के अंतर्गत KG से लेकर ग्रेजुएशन तक की शिक्षा के साथ साथ प्रोफेशनल कोर्सेज की कोचिंग भी दी जाती है, 2012 में इस इंस्टिट्यूट के 71 स्टूडेंट्स ने, 2014 में 89 , 2015 में 93 स्टूडेंट्स, 2015 में 111, 2016 में 158 और 2017 में 2000 से ज़्यादा स्टूडेंट्स ने प्रतियोगी परीक्षाओं में कामयाबी हासिल की !
2008 से इस इंस्टिट्यूट के 1764 स्टूडेंट्स ने प्रतियोगी परीक्षाओं में सफल होकर मेडिकल, इंजीनियरिंग और बाक़ी के प्रोफेशनल गवर्नमेंट कोर्सेज में प्रवेश लिया ! शाहीन इंस्टिट्यूट के 900 स्टूडेंट्स ने MBBS में सफलता हासिल कर एक रिकॉर्ड बनाया है !

डा. अब्दुल क़दीर साहब का कहना था कि हमारे लिए एक एक बच्चा क़ीमती है, तालीम से कोई बच्चा या बच्ची महरूम ना रहे, वो हर तबके को तालीम देने के लिए हमेशा तैयार रहते हैं, इसके लिए उन्होंने स्कालरशिप प्रोग्राम्स चला रखे हैं !
शाहीन इंस्टिट्यूट में न सिर्फ प्रोफेशनल कोर्सेज के लिए कोचिंग दी जाती है, बल्कि स्कूल्स में उन्हें तालीम के साथ एक नेक इंसान और सभ्य नागरिक, आज्ञाकारी संतान बनाने पर भी ज़ोर दिया जाता है, सबसे अहम् बात डा. अब्दुल क़दीर साहब ने ये बताई कि आज उनके इंस्टिट्यूट में कई बड़े भाजपा नेताओं, संघ से जुड़े पदाधिकारियों के बच्चे पढ़ते और कोचिंग लेते हैं, और ख़ास बात ये कि उन बच्चों के नैतिक व्यवहार के सुधर पर खुद वो आकर डा. साहब का शुक्रिया अदा करते हैं !
आज उनके इंस्टिट्यूट में 25 राज्यों के बच्चे मेडिकल कोचिंग के लिए प्रवेश लेने आते हैं और साथ ही विदेशों से भी लोग अपने बच्चों को पढ़ने और मेडिकल और इंजीनियरिंग की कोचिंग के लिए भेजते हैं !
हर साल 200 से ज़्यादा मेडिकल स्टूडेंट्स सफल होकर सरकारी कॉलेजेज़ में सीट हासिल करते हैं, अब डा. अब्दुल क़दीर साहब ने शाहीन ग्रुप ऑफ़ इंस्टिट्यूट को विस्तार दिया है, और शिमोगा, बेलगावी, मैसूर, गुलबर्गा, कोलार, राइचूर, पटना, औरंगाबाद और लखनऊ में अपनी ब्रांचेज खोली हैं, और जयपुर (राजस्थान) में भी इसकी जल्दी ही शुरुआत की जाने की बात कही है !
डा. अब्दुल क़दीर साहब ने अपने “शाहीन ग्रुप ऑफ इंस्टीटूशन्स” में ही 'हिफज़ुल क़ुरआन' का एक अलग ही तीन चार तरह के कोर्सेज भी शुरू किये हुए है, इसके अलावा वो मुल्क के तमाम हुफ़्फ़ाज़ (हाफिजों) के लिए B A Bsc ,और प्रोफेशनल कोर्सेज भी शुरू किये हुए हैं, साथ ही इन्हे कोर्सेज ख़त्म करने के बाद प्लेसमेंट में भी पूरी मदद की जाती है !
और इसी के साथ उन्होंने बताया कि अप्रेल 2018 में जयपुर (राजस्थान) में राजस्थान के तमाम हुफ़्फ़ाज़ (जिनकी उम्र 17 साल या उससे कम हैं) का एक बड़ा प्रोग्राम आयोजित किया जाएगा !
डा. अब्दुल क़दीर साहब को शिक्षा और निस्वार्थ समाज सेवा के लिए प्रतिष्ठित 'गुरुकुल अवार्ड', टीचिंग रत्न प्रशस्ति पत्र, और 'डा. मुलताज खान अवार्ड' के साथ साथ कर्नाटक उर्दू अकादमी से भी पुरस्कार दिए जा चुके हैं !

डा. अब्दुल क़दीर साहब और उनके जज़्बे के लिए डा. अल्लामा इकबास साहब का एक शेर पेश है :-
तू शाहीन है, परवाज़ है काम तेरा !
.
तेरे सामने आसमां और भी हैं !!

मुझे ख़ुशी है कि कोटा शहर भी अल-बयान पब्लिक स्कूल की तालीम से रोशन होगा !

अगर आप “शाहीन ग्रुप ऑफ इंस्टीटूशन” के बारे में कुछ जानना चाहते हैं, कुछ मालूमात करना चाहते हैं, तो उनके इस आधिकारिक लिंक पर जाकर देख सकते हैं :- 

अरब क्रांति अब तक सीरिया की चौखट पर सर क्यों पटक रही है ??






अगर आपको सीरिया संकट समझना है तो 2010 और उससे पहले जाकर वहां से शुरू कीजिये, बल्कि शुरू कीजिये सद्दाम हुसैन को WMD के बहाने बदनाम कर उन्हें फांसी दिए जाए से, शुरू कीजिये अरब क्रांति, या अरब बसंत, या जासमीन क्रांति से, निशाने पर लिए गए कुछ अरब देशों की जनता को लोकतंत्र का लॉलीपॉप थमा कर शुरू की गयी अरब क्रांति से !

और फिर उसके बाद पहचानिये इस क्रांति के जनक, प्रायोजकों, फाइनेंसरों को, फिर आपको ISIS की पैदाइश उसकी वजहों और उसके प्रायोजकों, फाइनेंसरों को समझना होगा, जहाँ जहाँ अरब क्रांति ने तबाही मचाई, वहां वहां इस ISIS ने बाद में लूट और तबाही मचाई, अरब क्रांति के विरोधियों का क़त्ले आम किया गया !

अब आते हैं 'अरब क्रांति' पर, 18 दिसम्बर 2010 को एक सब्ज़ी विक्रेता मोहम्मद बउज़िज़ी के आत्मदाह से इसकी शुरूआत ट्यूनीशिया से हुई थी, इसकी आग की लपटें पहले-पहल मिस्र में तहरीर चौक के तौर पर, फिर लीबिया, यमन, बहरीन तक पहुंची, हालाँकि यह क्रान्ति अलग-अलग देशों में हो रही थी, परंतु इनके विरोध प्रदर्शनो के तौर-तरीके में कई समानता थी - हड़ताल, धरना, मार्च एवं रैली, अमूमन, जुमे को विशाल एवं संगठित भारी विरोध प्रदर्शन होता, जब जुमे की नमाज़ अदा कर सड़कों पर आम नागरिक इकठ्ठित होते थे !

सोशल मीडिया का अरब क्रांति में अनोखा एवं अभूतपूर्व योगदान था, इसे एक हथियार के तौर पर इस्तेमाल किया गया, एक बेहद ही ढ़ाँचागत तरीके से दूर-दराज के लोगों को क्रांति से जोड़ने के लिए सोशल मीडिया का भरपूर इस्तेमाल हुआ था !

अरब क्रांति के क्रन्तिकारियों को सरकार, सरकार-समर्थित हथियारबंद लड़ाके एवं अन्य विरोधियों से दमन का सामना करना पड़ा, लेकिन ये अपने नारे 'Ash-sha`b yurid isqat an-nizam' (अंग्रेज़ी में - "the people want to bring down the regime"; हिन्दी में - 'जनता की पुकार-शासन का खात्मा हो') के साथ आगे बढ़ते रहें !

अरब क्रांति ने पूरी दुनिया का आकर्षण अपनी ओर खींचा, तवाकोल करमान (Tawakkol Karman), यमनवासी, अरब क्रांति के प्रमुख योद्धाओं में एक, 2011 शान्ति नोबल पुरस्कार विजेता थी, दिसमबर 2011 में 'टाईम' पत्रिका ने अरब विरोधियों को 'द परसन ऑफ द ईयर' (The Person of the Year) की उपाधि भी दी गयी थी !

अब आईये अरब क्रांति के जनक, प्रायोजकों, फाइनेंसरों पर तो इसके लिए आपको कई इंग्लिश वेब साइट्स को पढ़ना होगा, विकीलीक्स के इस अरब क्रांति पर किये गए खुलासों को पढ़ना होगा !

जैसा कि साफ़ है कि अरब क्रांति का जनक अमरीका है, साथ में ब्रिटैन, इज़राईल हैं और इसमें सऊदी अरब का गायबाना हाथ था, यानी अप्रत्यक्ष सहयोग और समर्थन प्राप्त था :-


और इसके लिए आसान टैग लाइन वाली एक खबर आपको पढ़ना चाहिए वो है : "The Arab Spring: Made in the USA" इससे ही आप समझ गए होंगे कि खेल शुरू किसने किया, अल्जीरियन पत्रकार और लेखक अहमद बेनसादा की लिखी किताब 'Arabesque$', उसमें दिए गए तथ्यों को समझ कर पढ़ना होगा:-
https://dissidentvoice.org/2015/10/the-arab-spring-made-in-the-usa/


अहमद बेनसादा विकीलीक्स के हवाले से लिखते हैं कि ये अरब स्प्रिंग या अरब क्रांति अमरीका की सोची समझी पांच वर्षीय योजना थी, साथ में ब्रिटैन, इज़राईल थे, तथा इसमें सऊदी अरब का गायबाना हाथ था, यानी अप्रत्यक्ष सहयोग और समर्थन प्राप्त था :-

और इस अरब स्प्रिंग को सुचारु रूप से शुरू करने के लिए अमरीका में सीआईए, अमरीका का स्टेट डिपार्टमेंट, और 2008 में ओबामा के सफल चुनाव कैम्पेन वाली टीम ने बाक़ायदा सोशल मीडिया को मारक हथियार को इस्तेमाल करने के तरीकों पर अमरीका में वर्कशॉप्स और कॉन्फ्रेंस आयोजित किये जिसमें अरब क्रांति के बाद वाले नायकों ने हिस्सा लिया, और इस पर जमकर पैसा बहाया गया !
अहमद बेनसादा आगे चलकर विकीलीक्स के हवाले से बताते हैं कि Washington Post ने बताया था कि तहरीर चौक आंदोलन शुरू करने से पहले 10,000 युवकों को NED (National Endowment for Democracy) और USAID (US Agency for International Development) संगठन के बैनर तले ट्रेनिंग दी गयी थे, इस ट्रेनिंग का विषय था सोशल मीडिया तकनीक का अहिंसात्मक संगठनात्मक उपयोग कैसे किया जाये ?
इसके लिए मिस्त्र के एक पूर्व पुलिस अधिकारी ओमर अफीफी सुलेमान जो अमरीका में रह रहा था, उसने वाशिंगटन डीसी से इस ट्रेनिंग की कमान संभाली हुई थी, और इसके लिए अमरीका ने ओमर अफीफी सुलेमान को 2008 से लेकर 2011 तक हर साल 200,000 लाख डॉलर का भुगतान किया था !
https://dissidentvoice.org/2015/10/the-arab-spring-made-in-the-usa/

मिस्त्र के साथ ही लीबिया और सीरिया में अरब क्रांति की आग भड़काने के लिए सोशल मीडिया यौद्धाओं को ट्रेनिंग देने के साथ साथ सीआईए, मोसाद और सऊदी अरब द्वारा प्रायोजित गुरिल्ला हमलों के ट्रेनिंग कैम्प्स भी लगाए गए, कुछ ही महीनो बाद लीबिया में कर्नल गद्दाफी को मार डाला गया, इसके बाद इस अरब क्रांति सोशल मीडिया को हथियार बनाकर अपने गुरिल्ला मिलिटेंट के साथ सीरिया की चौखट पर पहुंची जहाँ राष्ट्रपति असद ने होस्नी मुबारक और कर्नल गद्दाफी का हश्र देख कर इस अरब क्रांति को सीरिया के दरवाज़े पर ही रोक दिया !
सीरिया के ख़ुफ़िया विभाग और राष्ट्रपति असद ने अरब क्रांति के पीछे की कुटिलता को भांप लिया था, और उन्होंने सद्दाम हुसैन, कर्नल गद्दाफी, के बाद मिस्र और लीबिया का हाल भी देख लिया था और तबाह बर्बाद मिस्र और लीबिया और उससे पहले के इराक को भी, तो जब मार्च 2011 में सीरिया के दक्षिणी शहर दाराआ में भी लोकतंत्र के समर्थन में आंदोलन शुरू हुआ तो असद इस प्रायोजित आंदोलन को कुचलने के लिए क्रूरता दिखाई, इसका ठीक असर वैसे ही हुआ जैसा कि अरब क्रांति वाले चाहते थे, सरकार के बल प्रयोग के ख़िलाफ़ सीरिया में राष्ट्रीय स्तर पर विरोध-प्रदर्शन शुरू हो गया और लोगों ने बशर अल-असद से इस्तीफे की मांग शुरू कर दी !
अरब क्रांति को कैसे सीरिया में दाखिल नहीं होने दिया गया, और अरब क्रांति से लेकर लेकर वर्तमान सीरिया संकट तक अगर आपको फैक्ट्स के साथ सब जानकारियां पढ़ी हैं तो अल-जज़ीरा के इस लेख को ज़रूर पढ़िए :-
https://www.aljazeera.com/news/2016/05/syria-civil-war-explained-160505084119966.html

वक़्त के साथ आंदोलन लगातार तेज होता गया, विरोधियों ने हथियार उठा लिए, विरोधियों ने इन हथियारों से पहले अपनी रक्षा की और बाद में अपने इलाक़ों से सरकारी सुरक्षाबलों को निकालना शुरू किया !
असद ने इस विद्रोह को 'विदेश समर्थित आतंकवाद' करार दिया और इसे कुचलने का संकल्प लिया, उन्होंने फिर से देश में अपना नियंत्रण कायम करने की कवायद शुरू की. दूसरी तरफ विद्रोहियों का ग़ुस्सा थमा नहीं था, विद्रोही भी आरपार की लड़ाई लड़ने के लिए पूरी तरह से तैयार रहे. इस वजह से दोनों पक्षों के बीच हिंसा लगातार बढ़ती गई !
विकीलीक्स में अनुसार अमरीका ने 2008 से 2010 के बीच असद विरोधियों को असद के खिलाफ माहौल बनाने और विद्रोह को उकसाने के लिए 12 मिलियन डॉलर्स जैसी भारी भरकम रक़म दी थी ! वाशिंगटन पोस्ट में छपी वो खबर यहाँ पढ़ सकते हैं :-
https://www.washingtonpost.com/world/us-secretly-backed-syrian-opposition-groups-cables-released-by-wikileaks-show/2011/04/14/AF1p9hwD_story.html?utm_term=.c469f4cf0d73

और साथ ही सीरिया से निर्वासित कुछ लोगों को ब्रिटैन में असद विरोधी एक TV चैनल शुरू करने के लिए आर्थिक मदद की थी, जिसका नाम था Barada TV, ताकि वो सीरिया में असद विरोधी माहौल बना सके, इस चैनल के बारे में यहाँ पढ़ सकते हैं :-

यहाँ विकीलीक्स ने एक शब्द का इस्तेमाल किया है 'MEPI' जिसका मतलब है 'Middle East Partnership Initiative' ये अमरीका की खुराफात है, और प्रत्यक्ष रूप से तो इसकी स्थापना मिडिल ईस्ट में लोकतंत्र की स्थापना, आर्थिक और राजनैतिक स्थिरता क़ायम करना है, मगर इसके बहाने ये किसी भी देश में उसके नागरिकों को उकसाकर भड़काकर विद्रोह भी करा सकता है, किसी भी देश के विरोधी दल को फाइनेंस करके आंदोलन, सत्ता पलट जैसे कारनामें करा सकता है !
इस 'MEPI' के बारे में विस्तार से यहाँ पढ़ सकते हैं :-

इसके साथ ही विकीलीक्स ने एक शब्द और सामने रखा है 'MJD' यानि 'Movement for Justice and Development in Syria', حركة العدالة والبناء في سورية
ये एक सियासी पार्टी है जिसकी स्थापना 2006 में लंदन (UK) में की गयी थी, इसके चरिमान हैं अनस अल अबदाह, सका नाम समझ कर ही अंदाज़ा लगा सकते हैं कि ब्रिटैन में बैठकर सीरिया में ये कैसा जस्टिस और कैसा डेवलपमेंट करना चाहते हैं ! इस MJD के बारे में विस्तार से यहाँ पढ़ सकते हैं :-
https://en.wikipedia.org/wiki/Movement_for_Justice_and_Development_in_Syria

इज़रायल की गुप्तचर एजेंसी मोसाद के भूतपूर्व निदेशक इफ्रेम हलेवी ने न्यूयॉर्क टाइम्स में हाल ही में लिखा कि सीरिया में अमेरिका को सैन्य हस्तक्षेप करके असद की सत्ता को गिरा देना चाहिए क्योंकि इससे मध्य-पूर्व में ईरान अपने एकमात्र बड़े सहयोगी को खो देगा और उसके बाद ईरान पर हमला करना आसान हो जायेगा और पूरा शक्ति सन्तुलन अमेरिका और इज़रायल के पक्ष में आ जायेगा :-

उम्मीद है इतने लम्बे लेख और कुछ सबूतों के ज़रिये आप सीरिया संकट के शुरू होने और उसके जारी रहने की वजहें समझ गए होंगे, सद्दाम को रास्ते से हटाने से लेकर अरब क्रांति के बहाने होस्नी मुबारक से लेकर कर्नल गद्दाफी को क़त्ल किये जाने, और सीरिया संकट शुरू करने तक अमरीका, इज़राईल ब्रिटैन और सऊदी अरब सबके रोल सामने आ गए होंगे !
अरब क्रांति से पहले सीरिया में किसी को कोई समस्या नहीं थी, और न सिर्फ सीरिया बल्कि ट्यूनीसिया, यमन, मिस्त्र, लीबिया में भी शासक और जनता चैन से ही थी, अब आप देख सकते हैं कि जहाँ जहाँ अरब क्रांति ने आग लगाईं उन देशों का क्या हाल है, (ट्यूनीसिया को छोड़कर) यमन, मिस्त्र, लीबिया के हाल आपके सामने हैं, और इसी विध्वंसक अरब क्रांति की आग के सीरिया में न घुस पाने की खुन्नस अरब क्रांति के जनक सीरिया से निकाल रहे हैं !

अब सीरिया इसी प्रायोजित अरब क्रांति की जीत और हार का आख़री मैदान बना हुआ है !

आप जितना चाहें इस ARAB SPRING, Jasmine Revolution के बारे में पढ़िए, इसके जनक, प्रायोजकों और कारणों पर पढ़िए आपको यही तथ्य नज़र आएंगे, मैंने ये लेख इंटरनेशनल कूटनीति, लपलपाती साम्राज्यवादी भूख, तेल की न बुझने वाली अमरीकी प्यास, ब्रिटिश-अमरीका की मिडिल ईस्ट पालिसी की खुराफात को सामने रख कर लिखा है !
लिखने को तो इस पर एक पूरी किताब भी लिखी जा सकती है जैसे कि अहमद बेनसादा ने अपनी किताब 'Arabesque$' लिखी थी, मगर इस सीरिया संकट को समझने के लिए अगर समझना चाहें तो इतना भी बहुत है !!