बुधवार, 22 जुलाई 2015

इंसान का तराज़ू ~~!!

शीर्षक का नाम सुनते ही फिल्म इंसाफ का तराज़ू की याद आयी होगी, मगर यहाँ इस वक़्त इंसान का तराज़ू है, वो अदृश्य तराज़ू जो इंसान के दुनिया में आते ही उसके साथ लग जाती है, और इंसान मरते दम तक इसके साथ ही जीता है, वैज्ञानिक कह चुके हैं कि बच्चा गर्भ में अपनी माँ की आवाज़ सुनता है, और जब वो दुनिया में आता है तो माँ ही उसकी सबसे नज़दीकी और परिचित होती है, मगर जैसे जैसे वो देखना, समझना,रोना और मुस्कुराना शुरू करता है, तो उसे एक और व्यक्ति नज़र आता है वो होता है उसका पिता, जिसे वो जल्दी ही स्वीकार भी कर लेता है, और माँ-बाप के प्यार दुलार को तुलना शुरू कर देता है, और कह सकते हैं कि यहीं से उसके साथ एक अदृश्य तराज़ू साथ लग जाती है, और वो अपने माँ-बाप के बीच स्वयं द्वारा दिए जाने वाले पलों को तौलने लग जाता है, वो दोनों को अपना प्यार दुलार बांटना शुरू कर देता है, रिश्तों के बीच एक बैलेंस बनाने की जद्दो जहद यहीं से शुरू हो जाती है, बाद में धीरे धीरे यह दायरा बढ़ने लगता है, जैसे घर के अन्य सदस्य, दादा दादी, बड़े भाई बहन वगैरह, बच्चा जैसे जैसे बड़ा होता जाता है, संबंधों और भावनाओं के बैलेंस के लिए उसे उस अदृश्य तराज़ू की बार बार ज़रुरत पड़ने लगती है !


युवा होने का बाद वो कई मानसिक अवस्थाओं से गुज़रता है, कई प्रकार के भावनात्मक व वैचारिक बदलाव आते हैं, उसे अपनी पढ़ाई लिखाई के साथ अपने भविष्य को भी तराज़ू में रख कर तौलना पड़ता है, उसे अपनी शिक्षा, उसका खर्च, अपने लक्ष्य, भविष्य तथा माता पिता की आशाओं के बीच बैलेंस बनाना पड़ता है, हर चीज़ को हर आवश्यकता को हर मजबूरी को तौल कर देखना पड़ता है !


इस तराज़ू की सबसे बड़ी ज़रुरत पड़ती है शादी हो जाने के बाद, भले ही वो आदमी हो या औरत ...दाम्पत्य जीवन की शुरुआत से ही रिश्तों के पलड़ों का बैलेंस बनाने के लिए झूझने की अनवरत प्रक्रिया शुरू हो जाती है, पति को पत्नी के साथ संबंधों, कर्तव्यों और ज़िम्मेदारियों का बैलेंस बनाना होता है, तो दूसरी ओर घर परिवार के अन्य लोगों के साथ अपने नए परिवार के साथ भावनात्मक तथा मनोवैज्ञनिक बैलेंस बनाना होता है, यही कुछ औरत के साथ भी होता है, बल्कि औरत को उस सम्बन्ध रुपी तराज़ू के पलड़ों को समान रखने के लिए पुरुष से ज़्यादा जद्दो जहद करती पड़ती है, वो एक बेटी, एक बहन, एक पत्नी, एक माँ के बाद दादी और नानी तक का फ़र्ज़ अदा करती है, और भावनात्मक संतुलन को बार बार नाप तौल कर परखती भी है, दाम्पत्य जीवन की शुरुआत से ही हर रिश्ते को बैलेंस करने तथा पलड़े बराबर रखने के लिए सभी को बार बार इस तराज़ू की ज़रुरत पड़ती है !


कभी एक पलड़े में अपनी प्राथमिकताएं तो दूसरे पलड़े में ज़रूरतें तौली जाती हैं, तो कभी कर्तव्यों को एक पलड़े में तो मजबूरियों को दूसरे पलड़े में रख कर संतुलन बनाने की जी तोड़ कोशिश की जाती है !


जैसे जैसे ज़िन्दगी आगे बढ़ती है, बच्चों की ज़िम्मेदारियों उनके भविष्य तथा खुद के भविष्य का नाप तौल करने के लिए इंसान को बार बार इस तराज़ू की ज़रुरत पड़ती है, हर ज़िम्मेदारी और रिश्तों के वज़न से उठते गिरते पलड़ों का बैलेंस बनाते बनाते उसे पता ही नहीं चलता कि वो तो अपना सब कुछ बाँट चुका है और बिलकुल ही खाली हो चुका है, उसकी ज़िन्दगी की शाम भी आ चुकी है, वो थक हार कर आखरी बार उस तराज़ू के पलड़ों को गौर से देखता है और पाता है कि वो अभी भी बैलेंस में नहीं हैं, फिर भी कहीं कोई न कोई कमी रह ही जाती है, उस तराज़ू के इन ऊंचे नीचे होते पलड़ों को भीगी आँखों से ताकते हुए वो न जाने कब अपनी आखरी हिचकी लेकर ज़िन्दगी से अलविदा कह देता है, ऊंचे नीचे होते पलड़ों वाली वो अदृश्य तराज़ू छिटक कर टूट जाती है !


मगर ज़रा रुकिए...........मरने के बाद फिर उसे एक और तराज़ू का सामना करना पड़ता है, जहाँ दुनिया में किये गए उसके आमाल (किये गए अच्छे बुरे काम) को बारीकी से नापा तौला जाता है, और उसी नाप तौल के बाद ही नतीजा सुनाया जाता है ! इस तराज़ू के नाप तौल से भी कोई नहीं बच सकता, मगर इस तराज़ू के पलड़े बराबरी का बैलेंस नहीं मांगते......यहाँ सिर्फ नेकी पलड़ा भारी होना ही आपकी जीत है, नेकी का पलड़ा जितना भारी और बदी का पलड़ा जितना हल्का होगा...आपको उतनी ही राहत नसीब होगी, और यही आपकी आखरी बड़ी जीत भी होगी !!

सोमवार, 20 जुलाई 2015

pk को ताली, बजरंगी भाईजान को गाली, क्यों ?

सोशल मीडिया पर इन दिनों कई साईबर फतवे धारी प्रकट हुए हैं जो कि बजरंगी भाईजान फिल्म का प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष विरोध करते नज़र आ रहे हैं, एक से बढ़कर एक नसीहतें दी जा रही हैं, फोटोशॉप का फूहड़ उपयोग कर सलमान खान और फिल्म का मज़ाक उड़ाया जा रहा है !

मैं सलमान खान का प्रशंसक तो नहीं मगर इस प्रकार के पूर्वाःग्रहों के खिलाफ ज़रूर हूँ, मैंने pk फिल्म के समय भी सोशल मीडिया पर प्रतिक्रियाएं देखी हैं, मोदी महोदय के साथ सलमान के पतंग उड़ाने के बाद 'जय हो' फिल्म के समय भी प्रतिक्रियाएं देखी हैं, इनमें से कई लोगों द्वारा डर्टी पिक्चर का विश्लेषण भी सोशल मीडिया पर देखा और पढ़ा है और इन दिनों बजरंगी भाईजान पर नाज़िल हो रहे इन साईबर फतवों को भी देख रहा हूँ !

हैरानी इस बात पर होती है कि कभी pk के समय बढ़ चढ़ कर लोगों को pk देखने की नसीहतें देने वाले अधिकांश लोग अब बजरंगी भाईजान के खिलाफ उठ खड़े हुए हैं, यह क्या तमाशा है ?

इनका विरोध सिर्फ एक फिल्म के लिए है, चाहे आप बाहुबली देख आएं, मगर बजरंगी भाईजान ना देखें ! हास्यास्पद बात तो यह है कि यह इस फिल्म के विरोध के लिए फूहड़ तर्क देकर खुद ही उपहास का केंद्र बने हुए हैं !

फ़िल्में मनोरंजन का साधन है, यह किसी समूह के पूर्वाःग्रहों की संतुष्टि के लिए नहीं बनाई जाती हैं, हाँ यह बात अलग है कि फिल्म को कई बार मार्केटिंग के लिए विवाद का विषय बना कर लोगों का ध्यान आकर्षित करने का फंडा भी आज़माया जाने लगा है !

pk फिल्म पर तालियाँ बजाने वाले और बजरंगी भाईजान को गलियाने वाले अधिकांश लोग वही हैं जो भारत में बैन हुई फिल्म 50 Shades of Grey को यू ट्यूब पर देख कर शेखी बघार चुके हैं, डर्टी पिक्चर पर अपना विश्लेषण दे चुके हैं, और pk की तारीफ कर चुके हैं ! बजरंगी भाईजान का विरोध करने वाले लोग पहले अपने ड्राईंग रूम्स से टी.वी. उठकर फेंकें, केबल नोच डालें फिर आकर फतवेबाज़ी करें !

आज जहाँ एक ओर मंगल ग्रह पर बस्तियां बसाने की तैयारियां चल रही हैं, मस्तिष्क प्रत्यार्पण में सफलता पा ली गयी हो, मानव चाँद पर जाकर लौट आया हो, वहीँ दूसरी ओर इस प्रकार की कूप मंडूक मानसिकता तथा हास्यास्पद पूर्वाःग्रहों से ग्रसित लोग अपने फूहड़ एजेंडों को थोपने की नाकाम कोशिशें करते नज़र आ रहे हैं !

अफ़सोस !!

(बजरंगी भाईजान विरोधी मुझे अन्फ्रेंड कर सकते हैं, मुझे ख़ुशी होगी)

शनिवार, 18 जुलाई 2015

संयुक्त परिवारों से क्यों विमुख हो रहे हैं लोग !!

(कुछ इस प्रथा को अभी भी दांतों से पकडे हैं, और कई ऐसे हैं जिनके लिए यह जंजाल साबित हुआ है, और वो इसमें फंसे फड़फड़ा रहे हैं)

हर प्रकार के सामाजिक समूहों में परिवार सबसे अहम और व्यापक समूह होता है, और परिवार के बिना समाज की कल्पना नहीं की जा सकती, परिवार के भी कई रूप होते हैं, जैसे मोटे तौर पर देखा जाए तो पश्चिम में एकल परिवार (Nuclear Family) और हमारे देश में संयुक्त परिवार (Joint Family), हम सब में से भी अधिकांश इसी संयुक्त परिवार में पले बढे हैं, संयुक्त परिवार प्रथा कभी एक मज़बूत व्यवस्था मानी जाती थी, दो तीन पीढ़ियां एक साथ रहने के कारण सामाजिक मूल्यों का बराबर से प्रसार होता था, बुज़ुर्गों से नयी पीढ़ी संस्कार सीखती थी, आदर और सम्मान बना रहता था, सुरक्षा की भावना बनी रहती थी, सामाजिक कार्यकलापों में अग्रसर रहते थे, सभी सदस्यों में प्रेम भाव और समर्पण का जज़्बा बना रहता था, संयुक्त परिवार में बच्चों के लिए सर्वाधिक सुरक्षित और उचित शारीरिक एवं चारित्रिक विकास का अवसर प्राप्त होता है .बच्चे की इच्छाओं और आवश्यकताओं का अधिक ध्यान रखा जा सकता है .उसे अन्य बच्चों के साथ खेलने का मौका मिलता है .माता पिता के साथ साथ अन्य परिजनों विशेष तौर पर दादा ,दादी का प्यार भी मिलता है यही कारण है कि संयुक्त परिवारों में पले बढे बच्चे अधिक संस्कारी और और आज्ञाकारी होते है !

मगर अचानक से लोगों का संयुक्त परिवार से मोह भंग होने लगा है, और इस को देखते हुए समाजशास्त्री चिंतित भी हैं, इसके मूल में कई कारण हैं जैसे कि रोज़गार धंधे के लिए लोगों का गाँवों और शहरों से पलायन, परिवार के लोगों की बढ़ती महत्वकांक्षाएं, निजता की अधिक चिंता, आर्थिक असमानताएं, परिवार के सदस्यों के बीच त्याग, समर्पण की ख़त्म होती भावना, ज़िम्मेदारियों से पल्ला झाड़ना, निजी स्वार्थों को परिवार से अधिक महत्त्व देना, संयुक्त परिवार के मुखिया के पक्षपात पूर्ण निर्णयों से भी बड़ी समस्या उत्पन्न होती है, Generation Gap को ढंग से नहीं पाटना, सामूहिक हित की अनदेखी करने से भी पारिवारिक सहयोग समाप्त होता है, अमीर सदस्य या उच्च पद वाले सदस्य के प्रति मुखिया का नर्म रवैय्या, किसी भी पारिवारिक समस्या को सुलझाने में मुखिया के संदेहास्पद निर्णय से परिवार में कलह की स्थिति उत्पन्न होती है, सदस्यों में असंतोष पनपता है, जो कि आगे जाकर विस्फोटक भी हो जाता है, जिस घर में कलह और किट किट आम हो जाए तो उस परिवार में पारिवारिक मूल्यों का क्षरण तो होता ही है, नयी पीढ़ी भी इससे प्रभावित होती है !

बुजुर्ग लोग दुनिया में आ रहे सामाजिक बदलाव को अनदेखा कर युवा पीढ़ी के परंपरा विरोधी व्यव्हार से क्षुब्ध रहते हैं। उसके लिए सिर्फ और सिर्फ अपनी संतान को दोषी मानते हैं। वे उनकी तर्क पूर्ण बातों को बुजुर्गों का अपमान मानते हैं। वे युवा पीढ़ी की बदली जीवन शैली से व्यथित होते हैं। नयी जीवन शैली की आलोचना करते हैं। क्योंकि आज की युवा पीढ़ी अपने बुजुर्गों का सम्मान तो करना चाहती है या करती है परन्तु चापलूसी के विरुद्ध , परन्तु बुजुर्ग उनके बदल रहे व्यव्हार को अपने निरादर के रूप में देखते हैं। बुजुर्गो के अनुसार उनकी संतान को परंपरागत तरीके से अपने माता पिता की सेवा करनी चाहिए, नित्य उनके पैर दबाने चाहियें उनकी तबियत बिगड़ने पर हमारी मिजाजपुर्सी को प्राथमिकता पर रखना चाहिए। उन्हें सब काम धंधे छोड़ कर उनकी सेवा में लग जाना चाहिए और यही उनके जीवन का अंतिम लक्ष्य होना चाहिए। यही संतान का कर्तव्य होता है। उनके अनुसार संतान की व्यक्तिगत जिन्दगी, उसकी अपनी खुशियाँ, उसका अपना रोजगार, उसका अपना परिवार कोई मायेने नहीं रखता। और जब संतान उनकी अपेक्षाओं पर खरी नहीं उतरती तो वे उन्हें अहसान फरामोश ठहराते हैं। 

कभी कभी घर के बुजुर्ग व्यक्ति अपनी संतान के मन में उनके लिए सम्मान को, अपनी मर्जी थोपने के लिए इस्तेमाल करते हैं उन्हें भावनात्मक रूप से ब्लेक मेल करते हैं। इस प्रकार से वे अपनी संतान के भविष्य के साथ तो खिलवाड करते ही हैं, उनके मन में अपने लिए सम्मान भी कम कर देते हैं। और उपेक्षा के शिकार होने लगते हैं। अतः प्रत्येक बुजुर्ग के लिए आवश्यक है की कोई भी निर्णय लेने से पूर्व अपने हित से अधिक संतान के हित के बारे में सोचें ताकि उनके भविष्य को कोई नुकसान न हो या कम से कम हो।

साधारणतयः परिवार में युवा पुरुष या दंपत्ति परिवार की आय का स्रोत होते है, जिसके द्वारा अर्जित धन से वह अपने बीबी बच्चों के साथ घर के बुजुर्गों के भरण पोषण की जिम्मेदारी भी उठाता है। इसलिए उसका नजरिया भी महत्वपूर्ण होता है। वह अपने बुजुर्गों के प्रति क्या विचार रखता है? उन्हें कितना सम्मान देना चाहता है,वह अपने बीबी बच्चों और बुजुर्गों को कितना समय दे पाने में समर्थ है,और क्यों ? वह अपने परिवार के प्रति, समाज के प्रति क्या नजरिया रखता है ? वह नए ज़माने को किस नजरिये से देख रहा है? क्योंकि वर्तमान बुजुर्ग जब युवा थे उस समय और आज की जीवन शैली और सोच में महत्वपूर्ण परिवर्तन आ चुका है।

अक्सर देखा गया है की बुजुर्गों का अपने बच्चों के प्रति नकारात्मक नजरिया उनकी समस्याओं का कारण बनता है। वे अपनी संतान को अपने अहसानों के लिए कर्जदार मानते हैं। उनकी विचारधारा के अनुसार उन्होंने अपनी संतान को बचपन से लेकर युवावस्था तक लालन पालन करने में अनेक प्रकार के कष्टों से गुजरना पड़ा,जिसके लिए उन्हें अपने खर्चे काट कर उनकी सुविधाओं का ध्यान रखा, उनकी आवश्यकताओं के लिए अपनी क्षमता से अधिक प्रयास किये। ताकि भविष्य में ये बच्चे हमारे बुढ़ापे का सहारा बने। जब आज वे स्वयं कमाई करने लगे हैं तो उन्हें सिर्फ हमारे लिए सोचना चाहिए, हमारी सेवा करनी चाहिए। कभी कभी तो बुजुर्ग लोग संतान को ज़र खरीद गुलाम के रूप में देखते हैं।

यह भी एक हकीकत है कि संयुक्त परिवारों के टूटने के गंभीर परिणाम सबसे ज़्यादा बुज़ुर्गों को ही भुगतने पड़ते हैं ! इसलिए अगर पारिवारिक मूल्यों को सहेज कर रखना है, और संयुक्त परिवार प्रथा को बनाये रखना है तो हाथ दोनों ओर से ही बढ़ाने होंगे, बुज़ुर्गों और परिवार के सदस्यों को नि:स्वार्थ सहयोग, सम्मान और बलिदान के लिए आगे आना होगा, अन्यथा आने वाले दशकों में यह दुर्लभ प्रथा देखने या दिखाने को हमें गांवों और ढाणियों में जाना पड़ेगा !!