शनिवार, 31 अक्टूबर 2015

सोशल मीडिया बनाम वास्तविक संसार !!


जब हम सोशल मीडिया पर होते हैं, तो हम दुनिया को उसी चश्मे से देखते हैं, पूरे दिन भले ही हम कैसे ही दृष्टिकोण ले कर जियें, मगर जैसे ही हम आभासी दुनिया में दाखिल होते हैं, हमारा नजरिया और बर्ताव धीरे धीरे बदलने लगता है, यहाँ के भीड़ भरे, आक्रोशित और चीख पुकार करते आभासी संसार में हम अपनी वास्तविकता से कहीं कटने लगते हैं !

फिर हम भी बहुत जल्दी उसी भीड़ का एक हिस्सा बन कर इस कोलाहल में शामिल हो जाते हैं, हमें देश खतरे में नज़र आने लगता है, किसी को हिन्दू तो किसी को मुस्लिम खतरे में नज़र आने लगता है !

ऐसा नहीं है कि सोशल मीडिया पर हम या सभी यूज़र्स फालतू मुद्दों पर समय खराब करते हैं, अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम बन चुके इस मंच की धमक से सरकारें कई बार सहमति भी देखी गयी हैं ! यह जानकारी और ज्ञान का अकूत भण्डार है, करंट टॉपिक्स से जुड़ने और समझने तथा विचार बनाने का नायाब जरिया भी है !

मगर न जाने क्यों जब हम सोशल मीडिया से दूर बाहरी दुनिया में होते हैं, तो बहुत ही शांत, बेफिक्र और समस्याओं से काफी हद तक दूर रहते हैं, ना ही कोई पाकिस्तान होता है, ना ही कोई ISIS होता है, ना ही संघ परेशान करता है, ना ही मोदी जी कहीं नज़र आते हैं, ना ही केजरीवाल की चर्चा कहीं होती है, ना कोई बिहार चुनाव पर हमसे लड़ता है !

इसलिए कोशिश कीजिये कि आभासी दुनिया को वास्तविक दुनिया में अपने साथ लेकर नहीं जाएँ, जब भी लॉगआउट करें, सभी कुछ यही छोड़ दें, और वास्तविक दुनिया की वास्तविकता के मज़े लें ! जहाँ सभी अपने में मस्त होकर दाल रोटी के जुगाड़ में मस्त है, जहाँ आपको किसी से like की ज़रुरत नहीं, किसी को टैग करने की ज़रुरत नहीं, किसी लिंक को पेश करने की ज़रुरत नहीं ! जहाँ ना हिन्दू खतरे में नज़र आएगा ना ही कोई मुसलमान कहते में मुस्लमान खतरे में नज़र आएगा ! कोशिश यही करें कि वास्तिवक दुनिया में जाएँ तो सोशल मीडिया का चश्मा साथ लेकर नहीं जाएँ !

आभासी दुनिया और वास्तविक दुनिया के इस फर्क को आप सोशल मीडिया से कुछ दिन या महीने दूर रहकर आप इस तब्दीली को महसूस कर के देख सकते हैं !!


शनिवार, 10 अक्टूबर 2015

बेशक ..यह हिंदुस्तान आपका भी है मगर ~~~!!

सभी का खून है शामिल यहाँ की मिटटी में !
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किसी  के  बाप का  हिन्दोस्तान  थोड़ी  है   !!

राहत इंदौरी साहब का यह शेर....सोशल मीडिया पर मुसलमान भाई कई बार तैश में आकर शेयर करते हैं....करना भी चाहिए और हक़ बात भी है, यह मुल्क किसी की बपौती थोड़े ही है !

मगर ज़रा रुकिए....और सोचिये कि जिस मुल्क में हम पैदा हुए जो मुल्क हमारा मादरे वतन है, हमने उसके लिए क्या किया ? मुल्क के आर्थिक, सामाजिक, शैक्षिक, औद्यौगिक, राजनैतिक, तकनीकी विकास में हमारा योगदान कितना प्रतिशत है ?

कभी सोचा है कि 18 करोड़ की हमारी आबादी इस मुल्क के लिए क्या योगदान दे रही है ?  

कभी नज़र सानी की है कि  हमारी आधी आबादी यानी मुस्लिम औरतें शैक्षणिक और आर्थिक तौर पर कितनी मज़बूत हैं ?

सरकारी आंकड़ों के मुताबिक भारत की लगभग 60 फीसदी मुस्लिम महिलाएं शिक्षा से वंचित हैं, इनमें से 10 फीसदी महिलाएं ही उच्च शिक्षा ग्रहण कर पाती हैं जबकि शेष 30 फीसदी महिलाएं दसवीं कक्षा तक अथवा उससे भी कम तक की शिक्षा पाकर घर की बहु बनने के लिए मजबूर हो जाती हैं !

सच्चर समिति की रिपोर्ट के अनुसार भारतीय पुलिस सेवा में मुसलमान केवल 4 प्रतिशत, प्रशासनिक सेवा में 3 फीसदी और विदेश सेवा में मात्र 1.8 प्रतिशत हैं, यही नहीं देश के सबसे बड़े नियोक्ता के तौर पर मशहूर रेलवे के कुल कर्मचारियों में से महज 4.5 फीसदी मुसलमान हैं !


हम थोड़ी देर के लिए देश को एक संयुक्त परिवार की तरह मान लें, तो परिवार के दूसरे सदस्यों के योगदान की तुलना में, परिवार के लिए हमारे द्वारा दिए गए योगदान को कहाँ रख पाएंगे ?

कब तक हम इतिहास की पोटली खोल खोल कर लोगों के इतिहास के नामी मुसलमानो के अज़ीम योगदान को दिखाते रहेंगे ?

ज़रा सोचिये कि डा. ज़ाकिर हुसैन, फखरुद्दीन अली अहमद साहब, सर सय्यद अहमद, मौलाना अबुल कलाम आज़ाद या कलाम साहब जैसे लोग क्यों पैदा होना बंद हो गये ? ?

यह याद रखिये कि जो जंग तलवार, बन्दुक, तोप और रॉकेट से नहीं जीत सकते वो जंग आप 'तालीम' से जीत सकते हैं !!



बुधवार, 22 जुलाई 2015

इंसान का तराज़ू ~~!!

शीर्षक का नाम सुनते ही फिल्म इंसाफ का तराज़ू की याद आयी होगी, मगर यहाँ इस वक़्त इंसान का तराज़ू है, वो अदृश्य तराज़ू जो इंसान के दुनिया में आते ही उसके साथ लग जाती है, और इंसान मरते दम तक इसके साथ ही जीता है, वैज्ञानिक कह चुके हैं कि बच्चा गर्भ में अपनी माँ की आवाज़ सुनता है, और जब वो दुनिया में आता है तो माँ ही उसकी सबसे नज़दीकी और परिचित होती है, मगर जैसे जैसे वो देखना, समझना,रोना और मुस्कुराना शुरू करता है, तो उसे एक और व्यक्ति नज़र आता है वो होता है उसका पिता, जिसे वो जल्दी ही स्वीकार भी कर लेता है, और माँ-बाप के प्यार दुलार को तुलना शुरू कर देता है, और कह सकते हैं कि यहीं से उसके साथ एक अदृश्य तराज़ू साथ लग जाती है, और वो अपने माँ-बाप के बीच स्वयं द्वारा दिए जाने वाले पलों को तौलने लग जाता है, वो दोनों को अपना प्यार दुलार बांटना शुरू कर देता है, रिश्तों के बीच एक बैलेंस बनाने की जद्दो जहद यहीं से शुरू हो जाती है, बाद में धीरे धीरे यह दायरा बढ़ने लगता है, जैसे घर के अन्य सदस्य, दादा दादी, बड़े भाई बहन वगैरह, बच्चा जैसे जैसे बड़ा होता जाता है, संबंधों और भावनाओं के बैलेंस के लिए उसे उस अदृश्य तराज़ू की बार बार ज़रुरत पड़ने लगती है !


युवा होने का बाद वो कई मानसिक अवस्थाओं से गुज़रता है, कई प्रकार के भावनात्मक व वैचारिक बदलाव आते हैं, उसे अपनी पढ़ाई लिखाई के साथ अपने भविष्य को भी तराज़ू में रख कर तौलना पड़ता है, उसे अपनी शिक्षा, उसका खर्च, अपने लक्ष्य, भविष्य तथा माता पिता की आशाओं के बीच बैलेंस बनाना पड़ता है, हर चीज़ को हर आवश्यकता को हर मजबूरी को तौल कर देखना पड़ता है !


इस तराज़ू की सबसे बड़ी ज़रुरत पड़ती है शादी हो जाने के बाद, भले ही वो आदमी हो या औरत ...दाम्पत्य जीवन की शुरुआत से ही रिश्तों के पलड़ों का बैलेंस बनाने के लिए झूझने की अनवरत प्रक्रिया शुरू हो जाती है, पति को पत्नी के साथ संबंधों, कर्तव्यों और ज़िम्मेदारियों का बैलेंस बनाना होता है, तो दूसरी ओर घर परिवार के अन्य लोगों के साथ अपने नए परिवार के साथ भावनात्मक तथा मनोवैज्ञनिक बैलेंस बनाना होता है, यही कुछ औरत के साथ भी होता है, बल्कि औरत को उस सम्बन्ध रुपी तराज़ू के पलड़ों को समान रखने के लिए पुरुष से ज़्यादा जद्दो जहद करती पड़ती है, वो एक बेटी, एक बहन, एक पत्नी, एक माँ के बाद दादी और नानी तक का फ़र्ज़ अदा करती है, और भावनात्मक संतुलन को बार बार नाप तौल कर परखती भी है, दाम्पत्य जीवन की शुरुआत से ही हर रिश्ते को बैलेंस करने तथा पलड़े बराबर रखने के लिए सभी को बार बार इस तराज़ू की ज़रुरत पड़ती है !


कभी एक पलड़े में अपनी प्राथमिकताएं तो दूसरे पलड़े में ज़रूरतें तौली जाती हैं, तो कभी कर्तव्यों को एक पलड़े में तो मजबूरियों को दूसरे पलड़े में रख कर संतुलन बनाने की जी तोड़ कोशिश की जाती है !


जैसे जैसे ज़िन्दगी आगे बढ़ती है, बच्चों की ज़िम्मेदारियों उनके भविष्य तथा खुद के भविष्य का नाप तौल करने के लिए इंसान को बार बार इस तराज़ू की ज़रुरत पड़ती है, हर ज़िम्मेदारी और रिश्तों के वज़न से उठते गिरते पलड़ों का बैलेंस बनाते बनाते उसे पता ही नहीं चलता कि वो तो अपना सब कुछ बाँट चुका है और बिलकुल ही खाली हो चुका है, उसकी ज़िन्दगी की शाम भी आ चुकी है, वो थक हार कर आखरी बार उस तराज़ू के पलड़ों को गौर से देखता है और पाता है कि वो अभी भी बैलेंस में नहीं हैं, फिर भी कहीं कोई न कोई कमी रह ही जाती है, उस तराज़ू के इन ऊंचे नीचे होते पलड़ों को भीगी आँखों से ताकते हुए वो न जाने कब अपनी आखरी हिचकी लेकर ज़िन्दगी से अलविदा कह देता है, ऊंचे नीचे होते पलड़ों वाली वो अदृश्य तराज़ू छिटक कर टूट जाती है !


मगर ज़रा रुकिए...........मरने के बाद फिर उसे एक और तराज़ू का सामना करना पड़ता है, जहाँ दुनिया में किये गए उसके आमाल (किये गए अच्छे बुरे काम) को बारीकी से नापा तौला जाता है, और उसी नाप तौल के बाद ही नतीजा सुनाया जाता है ! इस तराज़ू के नाप तौल से भी कोई नहीं बच सकता, मगर इस तराज़ू के पलड़े बराबरी का बैलेंस नहीं मांगते......यहाँ सिर्फ नेकी पलड़ा भारी होना ही आपकी जीत है, नेकी का पलड़ा जितना भारी और बदी का पलड़ा जितना हल्का होगा...आपको उतनी ही राहत नसीब होगी, और यही आपकी आखरी बड़ी जीत भी होगी !!

सोमवार, 20 जुलाई 2015

pk को ताली, बजरंगी भाईजान को गाली, क्यों ?

सोशल मीडिया पर इन दिनों कई साईबर फतवे धारी प्रकट हुए हैं जो कि बजरंगी भाईजान फिल्म का प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष विरोध करते नज़र आ रहे हैं, एक से बढ़कर एक नसीहतें दी जा रही हैं, फोटोशॉप का फूहड़ उपयोग कर सलमान खान और फिल्म का मज़ाक उड़ाया जा रहा है !

मैं सलमान खान का प्रशंसक तो नहीं मगर इस प्रकार के पूर्वाःग्रहों के खिलाफ ज़रूर हूँ, मैंने pk फिल्म के समय भी सोशल मीडिया पर प्रतिक्रियाएं देखी हैं, मोदी महोदय के साथ सलमान के पतंग उड़ाने के बाद 'जय हो' फिल्म के समय भी प्रतिक्रियाएं देखी हैं, इनमें से कई लोगों द्वारा डर्टी पिक्चर का विश्लेषण भी सोशल मीडिया पर देखा और पढ़ा है और इन दिनों बजरंगी भाईजान पर नाज़िल हो रहे इन साईबर फतवों को भी देख रहा हूँ !

हैरानी इस बात पर होती है कि कभी pk के समय बढ़ चढ़ कर लोगों को pk देखने की नसीहतें देने वाले अधिकांश लोग अब बजरंगी भाईजान के खिलाफ उठ खड़े हुए हैं, यह क्या तमाशा है ?

इनका विरोध सिर्फ एक फिल्म के लिए है, चाहे आप बाहुबली देख आएं, मगर बजरंगी भाईजान ना देखें ! हास्यास्पद बात तो यह है कि यह इस फिल्म के विरोध के लिए फूहड़ तर्क देकर खुद ही उपहास का केंद्र बने हुए हैं !

फ़िल्में मनोरंजन का साधन है, यह किसी समूह के पूर्वाःग्रहों की संतुष्टि के लिए नहीं बनाई जाती हैं, हाँ यह बात अलग है कि फिल्म को कई बार मार्केटिंग के लिए विवाद का विषय बना कर लोगों का ध्यान आकर्षित करने का फंडा भी आज़माया जाने लगा है !

pk फिल्म पर तालियाँ बजाने वाले और बजरंगी भाईजान को गलियाने वाले अधिकांश लोग वही हैं जो भारत में बैन हुई फिल्म 50 Shades of Grey को यू ट्यूब पर देख कर शेखी बघार चुके हैं, डर्टी पिक्चर पर अपना विश्लेषण दे चुके हैं, और pk की तारीफ कर चुके हैं ! बजरंगी भाईजान का विरोध करने वाले लोग पहले अपने ड्राईंग रूम्स से टी.वी. उठकर फेंकें, केबल नोच डालें फिर आकर फतवेबाज़ी करें !

आज जहाँ एक ओर मंगल ग्रह पर बस्तियां बसाने की तैयारियां चल रही हैं, मस्तिष्क प्रत्यार्पण में सफलता पा ली गयी हो, मानव चाँद पर जाकर लौट आया हो, वहीँ दूसरी ओर इस प्रकार की कूप मंडूक मानसिकता तथा हास्यास्पद पूर्वाःग्रहों से ग्रसित लोग अपने फूहड़ एजेंडों को थोपने की नाकाम कोशिशें करते नज़र आ रहे हैं !

अफ़सोस !!

(बजरंगी भाईजान विरोधी मुझे अन्फ्रेंड कर सकते हैं, मुझे ख़ुशी होगी)

शनिवार, 18 जुलाई 2015

संयुक्त परिवारों से क्यों विमुख हो रहे हैं लोग !!

(कुछ इस प्रथा को अभी भी दांतों से पकडे हैं, और कई ऐसे हैं जिनके लिए यह जंजाल साबित हुआ है, और वो इसमें फंसे फड़फड़ा रहे हैं)

हर प्रकार के सामाजिक समूहों में परिवार सबसे अहम और व्यापक समूह होता है, और परिवार के बिना समाज की कल्पना नहीं की जा सकती, परिवार के भी कई रूप होते हैं, जैसे मोटे तौर पर देखा जाए तो पश्चिम में एकल परिवार (Nuclear Family) और हमारे देश में संयुक्त परिवार (Joint Family), हम सब में से भी अधिकांश इसी संयुक्त परिवार में पले बढे हैं, संयुक्त परिवार प्रथा कभी एक मज़बूत व्यवस्था मानी जाती थी, दो तीन पीढ़ियां एक साथ रहने के कारण सामाजिक मूल्यों का बराबर से प्रसार होता था, बुज़ुर्गों से नयी पीढ़ी संस्कार सीखती थी, आदर और सम्मान बना रहता था, सुरक्षा की भावना बनी रहती थी, सामाजिक कार्यकलापों में अग्रसर रहते थे, सभी सदस्यों में प्रेम भाव और समर्पण का जज़्बा बना रहता था, संयुक्त परिवार में बच्चों के लिए सर्वाधिक सुरक्षित और उचित शारीरिक एवं चारित्रिक विकास का अवसर प्राप्त होता है .बच्चे की इच्छाओं और आवश्यकताओं का अधिक ध्यान रखा जा सकता है .उसे अन्य बच्चों के साथ खेलने का मौका मिलता है .माता पिता के साथ साथ अन्य परिजनों विशेष तौर पर दादा ,दादी का प्यार भी मिलता है यही कारण है कि संयुक्त परिवारों में पले बढे बच्चे अधिक संस्कारी और और आज्ञाकारी होते है !

मगर अचानक से लोगों का संयुक्त परिवार से मोह भंग होने लगा है, और इस को देखते हुए समाजशास्त्री चिंतित भी हैं, इसके मूल में कई कारण हैं जैसे कि रोज़गार धंधे के लिए लोगों का गाँवों और शहरों से पलायन, परिवार के लोगों की बढ़ती महत्वकांक्षाएं, निजता की अधिक चिंता, आर्थिक असमानताएं, परिवार के सदस्यों के बीच त्याग, समर्पण की ख़त्म होती भावना, ज़िम्मेदारियों से पल्ला झाड़ना, निजी स्वार्थों को परिवार से अधिक महत्त्व देना, संयुक्त परिवार के मुखिया के पक्षपात पूर्ण निर्णयों से भी बड़ी समस्या उत्पन्न होती है, Generation Gap को ढंग से नहीं पाटना, सामूहिक हित की अनदेखी करने से भी पारिवारिक सहयोग समाप्त होता है, अमीर सदस्य या उच्च पद वाले सदस्य के प्रति मुखिया का नर्म रवैय्या, किसी भी पारिवारिक समस्या को सुलझाने में मुखिया के संदेहास्पद निर्णय से परिवार में कलह की स्थिति उत्पन्न होती है, सदस्यों में असंतोष पनपता है, जो कि आगे जाकर विस्फोटक भी हो जाता है, जिस घर में कलह और किट किट आम हो जाए तो उस परिवार में पारिवारिक मूल्यों का क्षरण तो होता ही है, नयी पीढ़ी भी इससे प्रभावित होती है !

बुजुर्ग लोग दुनिया में आ रहे सामाजिक बदलाव को अनदेखा कर युवा पीढ़ी के परंपरा विरोधी व्यव्हार से क्षुब्ध रहते हैं। उसके लिए सिर्फ और सिर्फ अपनी संतान को दोषी मानते हैं। वे उनकी तर्क पूर्ण बातों को बुजुर्गों का अपमान मानते हैं। वे युवा पीढ़ी की बदली जीवन शैली से व्यथित होते हैं। नयी जीवन शैली की आलोचना करते हैं। क्योंकि आज की युवा पीढ़ी अपने बुजुर्गों का सम्मान तो करना चाहती है या करती है परन्तु चापलूसी के विरुद्ध , परन्तु बुजुर्ग उनके बदल रहे व्यव्हार को अपने निरादर के रूप में देखते हैं। बुजुर्गो के अनुसार उनकी संतान को परंपरागत तरीके से अपने माता पिता की सेवा करनी चाहिए, नित्य उनके पैर दबाने चाहियें उनकी तबियत बिगड़ने पर हमारी मिजाजपुर्सी को प्राथमिकता पर रखना चाहिए। उन्हें सब काम धंधे छोड़ कर उनकी सेवा में लग जाना चाहिए और यही उनके जीवन का अंतिम लक्ष्य होना चाहिए। यही संतान का कर्तव्य होता है। उनके अनुसार संतान की व्यक्तिगत जिन्दगी, उसकी अपनी खुशियाँ, उसका अपना रोजगार, उसका अपना परिवार कोई मायेने नहीं रखता। और जब संतान उनकी अपेक्षाओं पर खरी नहीं उतरती तो वे उन्हें अहसान फरामोश ठहराते हैं। 

कभी कभी घर के बुजुर्ग व्यक्ति अपनी संतान के मन में उनके लिए सम्मान को, अपनी मर्जी थोपने के लिए इस्तेमाल करते हैं उन्हें भावनात्मक रूप से ब्लेक मेल करते हैं। इस प्रकार से वे अपनी संतान के भविष्य के साथ तो खिलवाड करते ही हैं, उनके मन में अपने लिए सम्मान भी कम कर देते हैं। और उपेक्षा के शिकार होने लगते हैं। अतः प्रत्येक बुजुर्ग के लिए आवश्यक है की कोई भी निर्णय लेने से पूर्व अपने हित से अधिक संतान के हित के बारे में सोचें ताकि उनके भविष्य को कोई नुकसान न हो या कम से कम हो।

साधारणतयः परिवार में युवा पुरुष या दंपत्ति परिवार की आय का स्रोत होते है, जिसके द्वारा अर्जित धन से वह अपने बीबी बच्चों के साथ घर के बुजुर्गों के भरण पोषण की जिम्मेदारी भी उठाता है। इसलिए उसका नजरिया भी महत्वपूर्ण होता है। वह अपने बुजुर्गों के प्रति क्या विचार रखता है? उन्हें कितना सम्मान देना चाहता है,वह अपने बीबी बच्चों और बुजुर्गों को कितना समय दे पाने में समर्थ है,और क्यों ? वह अपने परिवार के प्रति, समाज के प्रति क्या नजरिया रखता है ? वह नए ज़माने को किस नजरिये से देख रहा है? क्योंकि वर्तमान बुजुर्ग जब युवा थे उस समय और आज की जीवन शैली और सोच में महत्वपूर्ण परिवर्तन आ चुका है।

अक्सर देखा गया है की बुजुर्गों का अपने बच्चों के प्रति नकारात्मक नजरिया उनकी समस्याओं का कारण बनता है। वे अपनी संतान को अपने अहसानों के लिए कर्जदार मानते हैं। उनकी विचारधारा के अनुसार उन्होंने अपनी संतान को बचपन से लेकर युवावस्था तक लालन पालन करने में अनेक प्रकार के कष्टों से गुजरना पड़ा,जिसके लिए उन्हें अपने खर्चे काट कर उनकी सुविधाओं का ध्यान रखा, उनकी आवश्यकताओं के लिए अपनी क्षमता से अधिक प्रयास किये। ताकि भविष्य में ये बच्चे हमारे बुढ़ापे का सहारा बने। जब आज वे स्वयं कमाई करने लगे हैं तो उन्हें सिर्फ हमारे लिए सोचना चाहिए, हमारी सेवा करनी चाहिए। कभी कभी तो बुजुर्ग लोग संतान को ज़र खरीद गुलाम के रूप में देखते हैं।

यह भी एक हकीकत है कि संयुक्त परिवारों के टूटने के गंभीर परिणाम सबसे ज़्यादा बुज़ुर्गों को ही भुगतने पड़ते हैं ! इसलिए अगर पारिवारिक मूल्यों को सहेज कर रखना है, और संयुक्त परिवार प्रथा को बनाये रखना है तो हाथ दोनों ओर से ही बढ़ाने होंगे, बुज़ुर्गों और परिवार के सदस्यों को नि:स्वार्थ सहयोग, सम्मान और बलिदान के लिए आगे आना होगा, अन्यथा आने वाले दशकों में यह दुर्लभ प्रथा देखने या दिखाने को हमें गांवों और ढाणियों में जाना पड़ेगा !!

रविवार, 7 जून 2015

वास्तविक दुनिया से कटने का जरिया बना स्मार्ट फोन !!

स्मार्ट फोन हमारी ज़िन्दगी का एक अहम हिस्सा होने के साथ साथ हमारी कमज़ोरी भी बनते जा रहे हैं, और साथ ही हमें वास्तविक दुनिया से काटने का जरिया भी बनते नज़र आ रहे हैं, हम सड़कों पर, बस स्टैंड्स, रेलवे स्टेशंस पर, शादियों में, पार्टियों में....लोगों को आस पास के लोगों से बेखबर अपनी आभासी दुनिया में खोया हुआ देख सकते हैं !

पहले हम पारिवारिक आयोजनो में जाने अनजाने लोगों से मिलने जुलने में जितना समय बिताते थे, अब उस समय में कहीं कटौती नज़र आने लगी है ! हर आदमी अब स्मार्ट फोन को अधिक समय देता नज़र आने लगा है ! हर आदमी कहीं न कहीं अकेला अपने स्मार्ट फोन को सहलाता नज़र आता है !

इसके साथ ही हर वक्त अपडेट-अपडेट देखना, नया अपलोड करना है, किसने क्या, कमैंट किया है, ये ऐसी चीजें हो गई हैं जो हर समय दिमाग में घूमती रहती हैं, यह सब साइबर सिकनेस, फेसबुक डिप्रैशन और इंटरनैट एडिक्शन डिसऑर्डर जैसी मनोवैज्ञानिक बीमारियां ही हैं, जिन्हें इसके आदी लोग मानने को तैयार नहीं होते !

इस साइबर सिकनेस का बड़ा कारण इंटरनेट और सोशल मीडिया है, जिसे वैज्ञानिकों ने डिजिटल शराब का भी खिताब दिया है, युवा पीढ़ी इस लत के खुमार का सबसे ज़्यादा शिकार नज़र आ रही है ! यह भी सच है कि सूचना क्रांति के इस दौर में हम सब इससे अछूते नहीं रह सकते, मगर इस लत पर कंट्रोल करना हमारे ही हाथ में है, कोशिश करना चाहिए कि इस लत की गुलामी से आज़ाद होने के तरीकों को वक़्त वक़्त पर आज़माया जाए, और बच्चों को भी इसके दुष्प्रभावों से बचाने की कोशिश की जाए !

जानिये रोहिंग्या मुसलमानो और उनके क़त्ले आम की वजहों के बारे में !!

रोहिंग्या म‍ुस्लिम प्रमुख रूप से म्यांमार (बर्मा) के अराकान (जिसे राखिन के नाम से भी जाना जाता है) प्रांत में बसने वाले अल्पसंख्यक मुस्लिम लोग हैं ! अराकान म्यांमार की पश्चिमी सीमा पर है और यह आज के बांग्लादेश (जो कि पूर्व में बंगाल का एक हिस्सा था) की सीमा के पास है !

म्यांमार में करीब 8 लाख रोहिंग्या मुस्लिम रहते हैं जो कि बर्मा की आबादी का 5 प्रतिशत ही है, और वे इस देश में सदियों से रहते आए हैं, लेकिन बर्मा के लोग और वहां की सरकार इन लोगों को अपना नागरिक नहीं मानती है ! बिना किसी देश के इन रोहिंग्या लोगों को म्यांमार में भीषण दमन का सामना करना पड़ता है ! बड़ी संख्या में रोहिंग्या लोग बांग्लादेश और थाईलैंड की सीमा पर स्थित शरणार्थी शिविरों में अमानवीय स्थितियों में रहने को विवश हैं !

1400 के आसपास ये लोग ऐसे पहले मुस्लिम्स हैं जो कि बर्मा के अराकान प्रांत में आकर बस गए थे !इनमें से बहुत से लोग 1430 में अराकान पर शासन करने वाले बौद्ध राजा नारामीखला (बर्मीज में मिन सा मुन) के राज दरबार में नौकर थे !

वर्ष 1785 में बर्मा के बौद्ध लोगों ने देश के दक्षिणी हिस्से अराकान पर कब्जा कर लिया, तब उन्होंने रोहिंग्या मुस्लिमों को या तो इलाके से बाहर खदेड़ दिया या फिर उनकी हत्या कर दी ! इस अवधि में अराकान के करीब 35 हजार लोग बंगाल भाग गए जो कि तब अंग्रेजों के अधिकार क्षेत्र में था। वर्ष 1824 से लेकर 1826 तक चले एंग्लो-बर्मीज युद्ध के बाद 1826 में अराकान अंग्रेजों के नियंत्रण में आ गया !

तब अंग्रेजों ने बंगाल के स्थानीय बंगालियों को प्रोत्साहित किया कि वे अराकान ने जनसंख्या रहित क्षेत्र में जाकर बस जाएं ! रोहिंग्या मूल के मुस्लिमों और बंगालियों को प्रोत्साहित किया गया कि वे अराकान (राखिन) में बसें ! ब्रिटिश भारत से बड़ी संख्या में इन प्रवासियों को लेकर स्थानीय बौद्ध राखिन लोगों में विद्वेष की भावना पनपी और तभी से जातीय तनाव पनपा जो कि अभी तक चल रहा है !

दूसरे द्वितीव विश्व युद्ध के दौरान दक्षिण पूर्व एशिया में जापान के बढ़ते दबदबे से आतंकित अंग्रेजों ने अराकान छोड़ दिया और उनके हटते ही मुस्लिमों और बौद्ध लोगों में एक दूसरे का कत्ले आम करने की प्रतियोगिता शुरू हो गई। इस दौर में बहुत से रोहिंग्या मुस्लिमों को उम्मीद थी कि वे ‍अंग्रेजों से सुरक्षा और संरक्षण पा सकते हैं। इस कारण से इन लोगों ने एलाइड ताकतों के लिए जापानी सैनिकों की जासूसी की। जब जापानियों को यह बात पता लगी तो उन्होंने रोहिंग्या मुस्लिमों के खिलाफ यातनाएं देने, हत्याएं और बलात्कार करने का कार्यक्रम शुरू किया। इससे डर कर अराकान से लाखों रोहिंग्या मुस्लिम फिर एक बार बंगाल भाग गए।

द्वितीय विश्वयुद्ध की समाप्त‍ि और 1962 में जनरल नेविन के नेतृत्व में तख्तापलट की कार्रवाई के दौर में रोहिंग्या मुस्लिमों ने अराकान में एक अलग रोहिंग्या देश बनाने की मांग रखी, लेकिन तत्कालीन बर्मी सेना के शासन ने यांगून (पूर्व का रंगून) पर कब्जा करते ही अलगाववादी और गैर राजनीतिक दोनों ही प्रकार के रोहिंग्या लोगों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई की। सैनिक शासन ने रोहिंग्या लोगों को नागरिकता देने से इनकार कर दिया और इन्हें बिना देश वाला (स्टेट लैस) बंगाली घोषित कर दिया।

तब से स्थिति में कोई सुधार नहीं आया है। संयुक्त राष्ट्र की कई रिपोर्टों में कहा गया है कि रोहिंग्या दुनिया के ऐसे अल्पसंख्यक लोग हैं, जिनका लगातार सबसे अधिक दमन किया गया है। बर्मा के सैनिक शासकों ने 1982 के नागरिकता कानून के आधार पर उनसे नागरिकों के सारे अधिकार छीन लिए हैं। ये लोग सुन्नी इस्लाम को मानते हैं और बर्मा में इन पर सरकारी प्रतिबंधों के कारण ये पढ़-लिख भी नहीं पाते हैं तथा केवल बुनियादी इस्लामी तालीम हासिल कर पाते हैं।

बर्मा के शासकों और सै‍‍न्य सत्ता ने इनका कई बार नरसंहार किया, इनकी बस्तियों को जलाया गया, इनकी जमीन को हड़प लिया गया, मस्जिदों को बर्बाद कर दिया गया और इन्हें देश से बाहर खदेड़ दिया गया। ऐसी स्थिति में ये बांग्लादेश की सीमा में प्रवेश कर जाते हैं, थाईलैंड की सीमावर्ती क्षेत्रों में घुसते हैं या फिर सीमा पर ही शिविर लगाकर बने रहते हैं। 1991-92 में दमन के दौर में करीब ढाई लाख रोहिंग्या बांग्लादेश भाग गए थे। इससे पहले इनको सेना ने बंधुआ मजदूर बनाकर रखा, लोगों की हत्याएं भी की गईं, यातनाएं दी गईं और बड़ी संख्या में महिलाओं से बलात्कार किए गए।

संयुक्त राष्ट्र, एमनेस्टी इंटरनेशनल जैसी संस्थाएं रोहिंया लोगों की नारकीय स्थितियों के लिए म्यांमार की सरकारों को दोषी ठहराती रही हैं, लेकिन सरकारों पर कोई असर नहीं पड़ता है। पिछले बीस वर्षों के दौरान किसी भी रोहिंग्या स्कूल या मस्जिद की मरम्मत करने का आदेश नहीं दिया गया है। नए स्कूल, मकान, दुकानें और मस्जिदों को बनाने की इन्हें इजाजत ही नहीं दी जाती है।

इनके मामले में म्यांमार की सेना ही क्या वरन देश में लोकतंत्र की स्थापना का श्रेय लेने वाली आंग सान सूकी का भी मानना है कि रोहिंग्या मुस्लिम म्यांमार के नागरिक ही नहीं हैं। वे भी देश की राष्ट्रपति बनना चाहती हैं, लेकिन उन्हें भी रोहिंग्या लोगों के वोटों की दरकार नहीं है, इसलिए वे इन लोगों के भविष्य को लेकर तनिक भी चिंता नहीं पालती हैं। उन्हें भी राष्ट्रपति की कुर्सी की खातिर केवल सैनिक शासकों के साथ बेतहर तालमेल बैठाने की चिंता रहती है।

उन्होंने कई बार रोहिंग्या लोगों की हालत पर चिंता जाहिर की, लेकिन कभी भी सैनिक शासकों की आलोचना करने का साहस नहीं जुटा सकीं। इसी तरह उन्होंने रोहिंग्या लोगों के लिए केवल दो बच्चे पैदा करने के नियम को मानवाधिकारों का उल्लंघन बताया, लेकिन उन्होंने इसका संसद में विरोध करने की जरूरत नहीं समझी।

रोहिंग्या लोगों के खिलाफ बौद्ध लोगों की हिंसा तो समझ में आती है, लेकिन आश्चर्य की बात यह है कि इस हिंसा में अब बौद्ध भिक्षु भी भाग लेने लगे हैं। इस स्थिति को देखने के बाद भी आंग सान सूकी म्यांमार के लोकतंत्र के लिए संघर्ष में भारत की चुप्पी की कटु आलोचना करती हैं, लेकिन लोकतांत्रिक मूल्यों की यह वैश्विक नायिका रोहिंग्या मुस्लिमों के बारे में कभी एक बात भी नहीं बोतली हैं। और अगर बोलती हैं तो केवल यह कि रोहिंग्या म्यांमार के नागरिक नहीं हैं और कोई भी उन्हें देश का नागरिक बनाने की इच्छी भी नहीं रखता है।

यह सचाई है कि बर्मा में बहुसंख्यक बौद्ध आबादी के बीच पिछले एक-दो सालों से ऐसा कट्टरपंथी प्रचार अभियान चलाया जा रहा है, जिसका शिकार वहां के सभी अल्पसंख्यकों को होना पड़ रहा है। बर्मा के फौजी शासकों ने आंग सान सू की के नेतृत्व वाले लोकतांत्रिक आंदोलन का असर कम करने के लिए दो फॉर्मूलों पर अमल किया है। एक तो चीन के साथ नजदीकी बनाकर भारत के लोकतंत्र समर्थक रुझान को कुंद कर दिया और दूसरा, बहुसंख्यक कट्टरपंथ की पीठ पर अपना हाथ रखकर खुद को धर्म-संस्कृति और राष्ट्रीय अखंडता के एकमात्र प्रतिनिधि के रूप में पेश किया।

ऐसे माहौल में दखल देना भारत के लिए आसान तो नहीं है, लेकिन इसके लिए वह दुनिया भर के लोकतांत्रिक और जन अधिकार संगठनों को अपना खुला समर्थन जरूर दे सकता है। म्यांमार के सत्तारूढ़ सैनिक शासकों को हर स्तर पर यह संदेश दिया जाना चाहिए कि उसकी चालबाजियां दुनिया की नजर से छुपी नहीं हैं, और उसके इशारे पर चलने वाले धार्मिक गिरोह सालों साल अपने ही देश के एक जन-समुदाय के खिलाफ इस तरह का बर्ताव नहीं कर सकते !!

(विभिन्नं स्त्रोतों से मिली जानकारी से साभार)

आज याद आ गयीं वो अकेली योद्धा सुनीता नारायण ~~!!

कितनी हैरानी की बात है कि आज मैगी नूडल पर लेड की मात्र अधिक होने के कारण हंगामा मचा हुआ है, और उधर पेप्सिको की सी.ई.ओ. इंदिरा नुई को पद्मभूषण पुरस्कार दिया गया है, यह वही पेप्सी है जिसके लिए कभी सुनीता नारायण ने (जो कि भारत की प्रसिद्ध पर्यावरणविद है और जिन्हे कि 2005 को पद्धश्री से भी अलंकृत किया गया था) एक अरसा पहले पेप्सी और कोक जैसे साफ्ट ड्रिंक में खतरनाक रसायनों की उपस्थिति की बात कहकर पूरे देश में तूफान पैदा कर दिया था !

उस मुद्दे की तपिश से संसद भी गरमा गई थी ! सुनीता नारायणन ने साबित किया था कि शीतल पेयों में कीटनाशकों की भारी मात्रा मौजूद है और ये मात्रा पहले की तुलना में अधिक है ! उन्होंने शीतल पेयों के 11 ब्रांडों के 57 नमूनों को चेक किया था, और उनमें से सभी में तीन से छह कीटनाशक मिले थे !

यह मामला इतना गरमा गया था कि सुप्रीम कोर्ट तक जा पहुंचा था......सुनीता नारायण यह चाहती थीं कि इसके लिए कोई मानक बने.....मगर यह मामला इन बहु राष्ट्रिय कंपनियों के भारी दबाव और सराकर के उदासीन रवैये के चलते ठन्डे बस्ते में चला गया !

शुक्रवार, 5 जून 2015

मुस्लिम औरतों की बदहाल शैक्षणिक और आर्थिक स्थिति के लिए ज़िम्मेदार है 'बशर्ते' !!

किसी आलिम का क़ौल है कि :-
तुमने अगर एक बच्चे को पढाया तो मात्र एक व्यक्ति को पढ़ाया ! लेकिन अगर एक बच्ची को पढाया तो एक खानदान को और एक नस्ल को पढ़ाया !

“When you educate a man, you educate an individual and when you educate a woman, you educate an entire family.” 

कार्ल मार्क्स ने कहा था :- 

अगर किसी समाज की हालत और प्रगति के बारे में जानना हो तो यह देखें की उस समाज में औरतें किस स्थिति में हैं !

जो जंग तलवार, बन्दुक, तोप और रोकेट नहीं जीत सकते वो जंग आप तालीम से जीत सकते हैं !

इंडोनेशिया के बाद भारत ही वो देश है जहा मुसलमानो की दूसरी सबसे बड़ी आबादी रहती है :-

मोटे तौर पर भारत में 18 करोड़ मुसलमान हैं, जो कि  देश की आबादी का 14.88% हैं ! और इस 18 करोड़ की 'आधी आबादी' यानी मुस्लिम औरतें शिक्षा, आर्थिक स्तर से लेकर सामाजिक और पारिवारिक तथा स्वावलम्बन के मामले में बदतर हालत में हैं ! 


ताज्ज़ुब है वो कौम इल्म से दूर है जिस क़ौम के कलाम की शुरुआत ही "इक़रा " (पढ़ो) से होती है, जिस मज़हब मैं कहा गया हो कि इल्म हासिल करने के लिए चीन भी जाना पड़े तो जाओ !

सरकारी आंकड़ों के मुताबिक भारत की लगभग 60 फीसदी मुस्लिम महिलाएं शिक्षा से वंचित हैं, इनमें से 10 फीसदी महिलाएं ही उच्च शिक्षा ग्रहण कर पाती हैं जबकि शेष 30 फीसदी महिलाएं दसवीं कक्षा तक अथवा उससे भी कम तक की शिक्षा पाकर घर की बहु बनने के लिए मजबूर हो जाती हैं !

सच्चर समिति की रिपोर्ट के मुताबिक़ देश भर में मुस्लिम महिलाओं की साक्षरता दर 53.7 फ़ीसदी है, इनमें से अधिकांश महिलाएं केवल अक्षर ज्ञान तक ही सीमित हैं ! सात से 16 वर्ष आयु वर्ग की स्कूल जाने वाली लड़कियों की दर केवल 3.11 फ़ीसदी है, शहरी इलाक़ों में 4.3 फ़ीसदी और ग्रामीण इलाक़ों में 2.26 फ़ीसदी लड़कियां ही स्कूल जाती हैं !

शिक्षा की तरह आत्मनिर्भरता के मामले में भी मुस्लिम महिलाओं की हालत चिंताजनक है, सच्चर समिति की रिपोर्ट के मुताबिक़ हिंदू महिलाओं (46.1 फ़ीसदी) के मुक़ाबले केवल 25.2 फ़ीसदी मुस्लिम महिलाएं ही रोज़गार के क्षेत्र में हैं, अधिकांश मुस्लिम महिलाओं को पैसों के लिए अपने परिवारीजनों पर ही निर्भर रहना पड़ता है, जिसके चलते वे अपनी मर्ज़ी से अपने ऊपर एक भी पैसा ख़र्च नहीं कर पातीं !

यह सभी आंकड़े बहुत न सिर्फ चौंकाने वाले हैं, बलि बहुत ही डरावने हैं, और मुस्लिम समाज के लिए एक चेतावनी भी हैं !

यह एक कड़वी सच्चाई है कि मुस्लिम महिलाओं की बदहाली के लिए कठमुल्लों द्वारा तोड़े मरोड़े गए कई धार्मिक कारण काफ़ी हद तक ज़िम्मेदार हैं, मुल्ला मौलवियों द्वारा इसकी मन मर्ज़ी से व्याख्या करने से भी है, जिसमें पर्दा भी है, मगर पर्दा इल्म हासिल करने में रुकावट बिलकुल भी नहीं है, रुकावट कुछ रूढ़िवादी समाजी सोच भी है, लोग कहते हैं कि लड़कियों को क्यों पढ़ाएं ? ससुराल में जाकर चूल्हा-चौका ही तो संभालना है. और यह कि लड़की अगर ज़्यादा पढ़ लिख जाएगी तो शादी के लिए रिश्ते नहीं आएंगे, इस सोच के चलते कई बार लड़कियां खुद तालीम हासिल करने से पीछे हट जाती हैं ! 

मुस्लिमो ने तालीम पर सारा गोरो फ़िक्र और अमल सिर्फ और सिर्फ दीनी तालीम तक ही समेट कर रख दिया हैं ! अब वक़्त की जरूरत हैं के दीनी तालीम की रौशनी में दुनियावी तालीम हासिल की जाये जिससे हम दुनिया के मुकाबिल भी एक नजीर बने और हमारी आखिरत भी कामयाब हो ! 

शरीयत औरत को इस काबिल देखना चाहती है कि वह अपने और अपने जैसे दूसरे इंसानों की खिदमत अपनी कमाई से कर सके, हज़रत मुहम्मद (स.अ.व.)  के दौर में मुस्लिम औरतें मस्जिदों में जाकर नमाज़ पढ़ती थीं ! ‘‘हज़रत खदीजा इसकी मिसाल है कि उन्होंने समाज मे आर्थिक क्रियाकलापों को बढ़ाया ! सियासत में भी मुस्लिम महिलाओं ने सराहनीय काम किए !

रज़िया सुल्तान हिंदुस्तान की पहली मुस्लिम महिला शासक बनीं, नूरजहां भी अपने वक़्त की ख्यातिप्राप्त मुस्लिम राजनीतिज्ञ रहीं, जो शासन का अधिकांश कामकाज देखती थीं, अवध के नवाब वाजिद अली शाह की पत्नी बेगम हज़रत महल ने हिंदू-मुस्लिम एकता को मज़बूत करने के लिए उत्कृष्ट कार्य किए थे !


फिर आज क्यों उसी मुस्लिम समाज में औरत की यह बदतर हालत है ? 
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इसकी सबसे बड़ी वजह है मुस्लिम समाज में लड़कियों की शिक्षा के प्रति बेरुखी, मज़हब की गलत व्याख्या और मज़हबी ठेकेदारों द्वारा दिए गए फतवे,पर्दे पर ज़्यादा ज़ोर, तथा लोग क्या कहेंगे जैसी सोच ! 

जब इस बाबत लोगों से बातचीत की गयी और उनके सामूहिक विचार जाने तो दो एक बातें निकल कर सामने आईं, पहली तो यह कि मुस्लिम औरतों को तालीम दिलाने से किसी को कोई ऐतराज़ नहीं, कुछ चाहते हैं कि वो बस इतना पढ़ ले कि काम चल जाए, कुछ यह चाहते हैं, कि खूब पढ़े, आगे जाकर नौकरियां करें, मर्दों के कंधे से कन्धा मिलकर चलें, आर्थिक तौर पर मज़बूत हो, स्वावलम्बी बने,  ! 

यहाँ एक ख़ास बात यह नज़र आयी कि कुछ कट्टर मुसलमान But, मगर, लेकिन, किन्तु परन्तु करते भी नज़र आये, और यही कहते पाये गए कि औरतों को तालीम ज़रूर दिलाना चाहिए बशर्ते कि ..'यह'  और बशर्ते कि ..... 'वो'  !! 

यह जो यहाँ 'बशर्ते'  है, यह बहुत बड़े मायने समेटे हुए है,....और यह सिर्फ भारत में ही नहीं है, अफगानिस्तान और पाकिस्तान में भी पाया जाता है, जो कि खुद में मुस्लिम देश है, पाकिस्तान में औरतों की शैक्षिक/आर्थिक स्थिति और भी बदहाल है, वहां महिला शहरी क्षेत्र में साक्षरता का प्रतिशत 30% है, जबकि गावों में 5% है ! मुस्लिम देश अफगानिस्तान में औरतों की साक्षरता का प्रतिशत और भी डरावना 32 फ़ीसदी है  ! 

यह 'बशर्ते' की विचारधारा अफगानिस्तान वाया पाकिस्तान अपने मुल्क में भी काम करती चली आ रही है, और शायद करती भी रहे, अगर हम नहीं चेते तो ! 

यह #बशर्ते ही कहीं न कहीं मुस्लिम औरतों की शैक्षणिक/आर्थिक स्थिति और सामाजिक बदहाली के लिए ज़िम्मेदार है, यह खुद में ही एक क़ानून है, यह खुद में एक अप्रत्यक्ष फतवा है, एक भूल भुलईयाँ, एक जाल है, जिसे मज़हबी ठेकेदारों ने इस तरह से सामने रखा है कि आप सहम जाते हैं, भ्रमित हो जाते हैं !

ज़रुरत है इस ‘बशर्ते’ की बारीकियां समझने की, ‘बशर्ते’ के पीछे छुपे स्वार्थ और मक्कारियों को समझने की, और मक़सद को बूझने की ! जितनी जल्दी इस ‘बशर्ते’ को डिकोड करेंगे, उतना ही आपका फायदा है !  वक़्त आ गया है कि मज़हबी हुदूद में रहते हुए इस 'बशर्ते' को डिकोड कर बेटियां - बहने आगे बढे....खूब पढ़ें, आला तालीम लें, स्वावलम्बी बने,  खुद के पैरों पर खड़ी हों, अपना मुस्तक़बिल बनायें, समाज में मुल्क में अपनी बा-वक़ार, बा-इज़्ज़त मौजूदगी दर्ज कराएं, और फिर बेहतर और बेहतर समाज और क़ौम  का निर्माण करें, और साथ ही इस पढ़ने की आज़ादी का गलत इस्तेमाल ना करें, तहज़ीब, शर्मो हया और अदब के साथ इल्म हासिल करें, कोई काम ऐसा ना करें कि म'आशरे में वालदैन का सर नीचे हो !  

औरत किसी समाज भी की बुनियाद होती है और जब किसी ईमारत की बुनियाद ही कमजोर होगी  तो बुलंद ईमारत की सोच भी बेमानी होगी !

मैं अपनी बात शायर जनाब असरारुल हक़ मजाज़ के इस शेर के साथ ख़त्म करता हूँ :-

तेरे  माथे पे ये  आँचल  बहुत  ही खूब है,  लेकिन  !
.
तू इस आँचल से एक परचम बना लेती तो अच्छा था !!


बुधवार, 15 अप्रैल 2015

राजनीति और क्रिकेट एक सामान ??

राजनीति और क्रिकेट एक सामान हो चली है, जहाँ मोदी का मंदिर बनाकर उनकी मूर्ती को मंदिर में स्थापित किया गया है, वहीँ दूसरी ओर सचिन को उसके प्रशंसकों द्वारा क्रिकेट का भगवान घोषित कर देश पर थोप दिया गया है , भले ही बाक़ी देश वासी इससे सहमत हों या ना हों, दूसरी ओर धोनी के भक्तों ने धोनी को विष्णु अवतार में दिखाने वाला पोस्टर ही जारी कर दिया था, उस वाले पोस्टर पर भी विवाद खड़ा हो गया था, और उनकी गिरफ्तारी वारंट तक निकल गए थे !


अब हाल यह हो गया है की राजनीति और क्रिकेट एक दूसरे के पूरक हो चुके हैं, लोगों के इस जूनून को बाजार और राजनीति जमकर बेच रहे है, जैसे नेताओं की हर दौर में चांदी है, ठीक उसी तरह क्रिकेट खिलाडियों की चांदी है, न सिर्फ चांदी है बल्कि रोकड़े का अम्बार लगा हुआ है, और इसमें कार्पोरेट मीडिया बड़ा रोल अदा कर रही है, देश का राष्ट्रिय खेल हॉकी और देश के परंपरागत खेल अपने ही घर में उपेक्षित और बदहाल आखरी साँसे गिन रहे हैं, भले ही हाल ही में हॉकी लीग जैसे आयोजनो से राष्ट्रिय खेल को ऑक्सीजन ज़रूर मिली हो, मगर फिर भी उसका वो सम्माननीय स्तर नहीं है, जो क्रिकेट को मिला हुआ है ! इसमें महिला हॉकी की हालत तो और भी खस्ता है ! 


खैर....... राष्ट्रवाद का तक़ाज़ा है ...वर्ल्ड कप क्रिकेट भी चालू है, सो किरकेट की जय जय कार करते रहिये, वरना आप की राष्ट्रभक्ति पर उँगलियाँ उठते देर नहीं लगेंगी ! सचिन की जय, धोनी की जय, विराट की जय !

BCCI की क्रिकेट टीम ज़िंदाबाद !!  पाकिस्तान मुर्दाबाद !! 

आखिर यह #पर्दादारी क्यों ~~~ ???

फेसबुक पर लगभग 30 प्रतिशत यूज़र अपने आपको छुपाकर पेश करते हैं, उसमें सबसे पहले आता है DP , यानी प्रोफाइल पर लगा फोटो ! उसके बाद आता है नाम, कई लोग अपने वास्तविक नाम नहीं रख कर अजीब अजीब नाम रखते हैं, उसके बाद आता है Gender , कई नाम ऐसे होते हैं, जिनका Gender समझ में नहीं आता, उनसे कमेंट में मुखातिब करते समय कन्फ्यूज़ ही रहते हैं कि इन्हे जनाब कहें या फिर मोहतरमा !

कई लोग अपने आपको छुपाने में इतने माहिर होते हैं कि उनकी टाइम लाइन पर अगर आप चार पांच साल पहले की टाइम लाइन पोस्ट से लेकर आज तक की पोस्ट और प्रोफाइल फोटो देखें तो भी उनका एक भी प्रोफाइल फोटो नहीं ढूंढ सकते !

इस पर्दादारी में पुरुष यूज़र्स की संख्या इसमें ज़्यादा है, अधिकांश महिला फेसबुक यूज़र्स अपना वास्तविक फोटो डालने से परहेज़ करती हैं, वजह आप सब जानते हैं, मैं कई ऐसी खूबसूरत महिलाओं को जनता हूँ, जो अपना फोटो न लगाकर कुछ और लगाये हैं !

महिलाएं पर्दादारी करें तो समझ आती है, मगर पुरुष यूज़र्स ऐसा करें तो समझ से बाहर है !

मैं उन दोस्तों की बहुत ज़्यादा क़द्र करता हूँ जो हर कमी - बेशी के साथ अपने वास्तविक फोटो और नाम के साथ मेरी फ्रेंड लिस्ट में मौजूद हैं ! और सभी पुरुष मित्रों से भी यही गुज़ारिश करता हूँ कि जब दोस्त बने हैं तो इतनी पर्दादारी किसलिए ? जहाँ तक हो सके कम से कम अपना वास्तविक फोटो ज़रूर लगाएं भले ही बचपन का ही क्यों ना हो !

(किसी मित्र को #टैग चाहिए तो आवाज़ लगाए :))

दीवार फिल्म के डायलॉग.. AAP की अंतर्कलह पर !!

होली पर लोगों ने सोशल मीडिया पर नेताओं पर खूब चुटकियाँ लीं, सोचा एक चुटकी अपनी भी सही, सो एक व्यंग्य कि यदि दीवार फिल्म के संवाद आप की अंतर्कलह पर फिट किये जाएँ तो कैसा रहे :-
(यहाँ : AK - अरविन्द केजरीवाल / YY - योगेन्द्र यादव/ PB - प्रशांत भूषण)  

पहला दृश्य ~~!!
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AK :- पहले मैं यह जानना चाहता हूँ कि मेरे साथ कोई आपिये बात कर रहे है, या फिर कोई बवाली ?

YY/PB :- जब तक एक आपिया बोलेगा एक आपिया सुनेगा, जब एक घाघ नेता बोलेगा, दूध का दूध ...पानी का पानी करने वाला बोलेगा !

AK :- लगता है हमारे बीच जो दीवार है, वो इस यमुना ब्रिज से कहीं ऊंची है ! YY/PB तुम जानते हो कि दोनों जिस बागी रास्ते पर चल रहे हो उसका अंजाम क्या हो सकता है ?

YY/PB :- जिस रास्ते पर हम चल रहे हैं उसका अंजाम शायद बुरा भी हो सकता है, लेकिन जिस रस्ते पर तुम चल रहे हो उसका अंजाम सिर्फ बुरा ही होता है भाई AK !
AK : मैं तो अपनी बाज़ी खेल चुका हूँ, अब हारूँ या जीतूं ! लेकिन तुम्हारे पास तो अभी चाँस है, इस पार्टी के अलावा देश में और भी तो पार्टियां हैं, उन्हें ज्वाइन क्यों नहीं कर लेते ?

YY/PB :- नहीं हमारे उसूल हमारे आदर्श इसकी तनिक भी आज्ञा नहीं देते !!

AK :- उफ़्फ़्फ़्फ़्फ़्फ़्फ़्फ़ तुम्हारे उसूल तुम्हारे आदर्श !! किस काम के हैं तुम्हारे आदर्श तुम्हारे उसूल ? तुम्हारे सारे उसूलों को गूंध कर एक महीने का चंदा नहीं मिल सकता ! मेरे इलाज का खर्चा नहीं निकल सकता, क्या दिया है तुम्हारे उसूलों ने आदर्शों ने ? राजनैतिक विश्लेषक का तमगा, आठ दस चमचे, विद्रोही का खिताब ?? देखो इधर देखो, यह वही मैं हूँ और यह वही तुम हो, हम तीनो ने एक साथ पार्टी बनायी थी, लेकिन आज तुम कहाँ रह गए और मैं कहाँ आ गया हूँ, आज मेरे पास अंजलि दामनिया है, कुमार विश्वास है, मनीष सिसोदिया है, आशुतोष है, संजय सिंह है, मुख्यमंत्री पद है, सरकारी बांग्ला है, Z-plus सिक्योरिटी है, सरकारी गाडी है, चमचों की फ़ौज है, पार्टी का चंदा है ! क्या है तुम्हारे पास ?

YY/PB :- हमारे पास देश की जनता का समर्थन है, नैतिकता है, सिद्धांत हैं, पारदर्शिता है, सच्चाई है, और इन सबसे आगे.....हमारे पास मयंक गांधी है, जो ब्लॉग लिख लिख कर तुम्हारी नाक में दम करते रहेंगे !!

दूसरा दृश्य~~~!!
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YY/PB :- AK से, तुम पार्टी संयोजक पद से इस्तीफे पर साइन करोगे या नहीं ?

AK :- हाँ मैं साइन करूंगा, मगर अकेले नहीं करूंगा, जाओ पहले उस आदमी के साइन लेकर आओ जिसकी वजह से मैं नौकरी छोड़ कर राजनीति की कबड्डी खेलने को मजबूर हो गया, जाओ पहले उन लोगों के साइन लेकर आओ जिन्होंने मेरे माथे पर यह ठप्पा लगा दिया कि मैं ही एक मात्र राष्ट्रिय ईमानदार हूँ, उसके बाद मेरे भाइयों तुम दोनों जिस कागज़ पर कहोगे मैं साइन करूंगा !

YY/PB :- दूसरों को घाघ नेता कहने से यह सच्चाई नहीं बदल जाती AK भाई कि अब तुम भी पूरे घाघ नेता बन चुके हो, और यही सच्चाई तुम्हारे हमारे बीच एक दीवार है, और जब तक यह दीवार है, हम तीनो एक पार्टी में नहीं रह सकते, हम PAC से जा तो रहे हैं, मगर अब जो रायता फ़ैल चुका है, उसे कैसे समेटोगे ?? 

(व्यंग्य मात्र है, किसी की भावनाओं को आहत करने का उद्देश्य बिलकुल नहीं है)

सुनो ओ विकास विरोधी किसानो !!!!

यह क्या चिल्ल पों मचा रखी है तुमने ? भूमि अधिग्रहण क़ानून के खिलाफ ..हैं ...? भूल गए क्या मोदी जी ने क्या कहा था ? सबका साथ - सबका विकास, अब विकास के लिए जब मोदी जी तुम्हारा #साथ मांग रहे हैं तो पीछे क्यों हट रहे हो ?

भूल गए मोदी जी की #कड़वी गोली ? किस किस ने खाई हाथ उठाओ ? 

किसी ने नहीं, फिर काहे हल्ला गुल्ला ? बिना कड़वी गोली खाए तुम्हे आवाज़ निकालने का अधिकार नहीं !

क्या कहा मोदी जी के #वायदे ? 

देखो भैया विकास एक सतत प्रक्रिया है, एक दम से नहीं होगा, धीरे धीर होगा, कांग्रेस को साठ साल दिए, मोदी जी को केवल #दस साल नहीं दे सकते क्या ? जिसे देखो मोदी जी के पीछे पड़ा है, अब तुम्हारा भी भेजा सटक गया लगता है, भैया थोड़ी तो प्रतीक्षा करेँ !! 

यह कौन बोला ..... #काला_धन ??
अमित शाह जी ने क्या कहा भूल गए क्या ? वैसे रामदेव जी इस काले धन को लाने के लिए कोई नया आसन इन्वेन्ट करने वाले हैं, वो आसन करने के बाद इस काले धन के आगमन की प्रबल सम्भावना है !


यह #धारा_370 की आवाज़ किधर से आयी, कौन है यह #जाहिल ?
खैर जिसने भी आवाज़ लगाईं है, सुन ले ... शासन चलाना इतना आसान नहीं है, कई समझौत्ते करना पड़ते हैं, दिल्ली तो हाथ से गयी, क्या जम्मू कश्मीर भी हाथ से जाने देते ? 

आईये अब वापस भूमि अधिग्रहण क़ानून पर आते हैं, यह धरती माता, धरती माता क्या लगा रखा है ? सब चुप हो जाओ ..काम की बात अब बता रहे हैं !

देखो तुम सब बावले हो भावनाओं में बह रहे हो, सोचो क्या रखा है खेती बाड़ी में ? बीज लेने के लिए यदि पैसे नहीं तो लोन लेने बैंकों के चक्कर काटोगे, पैसे मिल गए तो यूरिया के लिए लाइन में लगना होगा, डंडे खाना होंगे, अगर यूरिया मिल भी गया तो उसके बाद खेतों में पानी का जुगाड़, और अगर वर्षा ने धोखा दे दिया तो फिर ? हो गया ना सब चौपट !!

इसलिए विकास की अवधारणा को समझो, विकास और अच्छे दिन ऐसे ही थोड़े आएंगे, सरकार तुम्हारी यह फालतू ज़मीने खरीद कर तुम्हे अच्छे पैसे देगी ! 

तुम और तुम्हारे बच्चे कब तक गांवों की कच्ची सड़कों पर बैलगाड़ियों में धक्के खाते फिरेंगे ? उस पैसे से तुम लोग अपने लिए सफारी, डस्टर, फ़ॉर्चूनर जैसी गाड़ियां खरीदो, शहरों में अपार्टमेंट्स लो, बच्चों को छोटी मोटी कारें दिलवाओ, मैकडोनाल्ड्स और kfc खिलाओ !

शेयर मार्किट में पैसा लगाओ, स्मार्ट सिटियाँ देखो, बुलेट ट्रेनों में घूमो, बच्चों को शॉपिंग मॉल दिखाओ, फ़िल्में दिखाओ, डोमिनो पिज़्ज़ा खाकर देखो कभी ! 

तब तुम्हे पता चलेगा कि भूमि अधिग्रहण क़ानून कितना अच्छा था !
आयी बात समझ में कि नहीं ?? 

अबे अब यह U टर्न कौन बोला ?  खबरदार जो किसी ने अब U टर्न का नाम लिया तो !!

(व्यंग्य मात्र है, कृपया अपने विवेक से काम लें)

'AAP' से यह उम्मीद नहीं थी ~~~!!

मुझे आज भी सन 2011 के अन्ना आंदोलन के वो दिन याद हैं जब मेरी बिटिया ने मुझे एक sms कर अन्ना आंदोलन में शामिल होने के लिए कहा था, उस sms का सार कुछ यह था कि " एक बूढ़ा व्यक्ति देश से भ्रष्टाचार मिटाने के लिए कई दिन से भूखे पेट अनशन पर है, आप भरे पेट ही सही उस व्यक्ति के लिए घर से निकलिए, उस बूढ़े व्यक्ति की आवाज़ से आवाज़ मिलाइये, सोशल मीडिया पर इस आंदोलन के साथ जुड़िये, ताकि आने वाली पीढ़ियों को जवाब दे सकें कि आप भी इस शुद्धिकरण प्रक्रिया का एक अंग रहे थे ! "


हालांकि बिटिया को यह पता नहीं था कि हम पहले ही मार्च 2011 से इस आंदोलन से जुड़ गए थे, और इस आंदोलन के समर्थन में जमकर आर्टिकल और ब्लॉग लिखे थे ! आज वही बच्चे अन्ना का नाम सुनकर दायें बाएं हो जाते हैं,  कारण लिखना ज़रूरी नहीं है, सभी जानते हैं !


कल फिर से ऐसा ही कुछ हुआ है, राजनीति के क्षितिज में तेज़ी से उभरे केजरीवाल और जनता के बीच विश्वसनीयता बनाये उनकी AAP से फिर से लोगों की ठीक वैसी ही आशा बंधी थी, जैसे कभी अन्ना आंदोलन से बंधी थी, इस बार दिल्ली का चुनाव जीतकर काफी हद तक यह आशाएं पूरी भी हुई थी, मगर जिस प्रकार से AAP में अंतर्कलह सामने आयी  और दो वरिष्ठ सदस्यों को PAC से अपमानित कर निकाला गया उससे काफी समर्थकों और कार्यकर्ताओं में काफी निराशा और भ्रम है !


भले ही इसे कड़े अनुशासन का मुखौटा पहना कर जनता के सामने रखा गया है, मगर यह सच नहीं है, इसके मूल में जो भी कूटनीति है वो भी चौराहे पर आ गयी है ! हर बात जनता से पूछ कर करने वाली पार्टी ने बंद कमरे में बिना कारण बताओं नोटिस के ही इन दोनों को बाहर का रास्ता दिखा दिया, और सबसे बड़ी बात कि खुद पार्टी संयोजक .....ऐसे बड़े निर्णायक समय में स्वास्थ्य लाभ का बहाना कर शामिल नहीं हुए थे, यह तो वही बात हुई कि घर में आग लगी हो और घर का मुखिया दूर जाकर बैठ जाए !


खैर, देश की दलगत राजनीति से अलग राजनीति का जो दावा AAP ने किया था, वो चकनाचूर होता नज़र आ रहा है, मैं, मेरी पार्टी, मेरे समर्थक.........यानी सुप्रीमो वाली बात कहीं न कहीं सच होती नज़र आ रही है, चमचों और चापलूसों का जमावड़ा बढ़ गया है, और आंतरिक लोकतंत्र नाम का गुब्बारा भी फुट चुका है,  सवाल उठाने वाले को पार्टी विरोधी क़रार दिया जाने लगा है, उन्हें अपमानित किया जाने लगा है !!


दूसरी सबसे बड़ी बात यह कि इस आम आदमी पार्टी को हर सदस्य और कार्यकर्ता ने अपने खून पसीने से सींच कर बड़ा किया है, लोगों ने न सिर्फ देश में बल्कि विदेश में भी अपनी बड़ी बड़ी नौकरियां छोड़ी हैं, धंधे छोड़े हैं, और तन मन धन से इस पार्टी के साथ जुड़े हैं, अब ऐसे में जब यह कलह सामने आयी है तो इन सबके सपनो पर कुठाराघात हुआ है, जो कि पार्टी के लिए बिलकुल भी हितकारी नहीं कहा जा सकता, और दूसरी बात कि इस पार्टी में अभी भी कई योगेन्द्र यादव और प्रशांत भूषण मौजूद हैं, किस किस को निकालिएगा !!


आज केजरीवाल ....AAP में वही जगह ले चुके हैं, जो कि भाजपा में मोदी की है !! और केजरीवाल के कट्टर समर्थक वही स्थान ले चुके हैं जो कि सोशल मीडिया पर #भक्तों को दिया गया है ! यह AAP के केंद्र में पैदा हुए एक 'ब्लैक होल' के सामान ही एक प्रक्रिया कही जा सकती है !!


राजनीति में एक ताज़ा झोंके की तरह आयी इस पार्टी से कहीं न कहीं जनता को अभी भी उम्मीदें हैं, और सभी यह दुआ कर रहे हैं कि कैसे भी करके इस कलह का सार्थक परिणाम निकले, नींव की ईंटों का दरकना किसी भी मज़बूत से मज़बूत इमारत के लिए सिर्फ हानि और विध्वंस का ही सबब बनता है, निर्माण और स्थायित्व का नहीं, भले ही मरम्मत कर कुछ देर के लिए डैमेज कंट्रोल ही क्यों न कर लिया जाए !!

हम फ्रेंड रिक्वेस्ट भेजते क्यों हैं ??

फेसबुक पर कई लोग फ्रेंड रिक्वेस्ट इसलिए भेजते हैं कि वो हमारी किसी पोस्ट या स्टेटस को पसंद करते हैं, या लिखे गए किसी नोट या शेरो शायरी को पसंद करते हैं, तो कुछ लोग फ्रेंड रिक्वेस्ट सिर्फ और सिर्फ इसलिए भेजते हैं कि हम उनकी पोस्ट पढ़ें ... कि वो हमारी, कुछ लोग फ्रेंड रिक्वेस्ट इसलिए भेजते हैं कि वो हमें टैग कर सकें, तो कुछ लोग फ्रेंड रिक्वेस्ट इसलिए भेजते हैं कि पोस्ट चोरी कर सकें, तो कुछ लोग फ्रेंड रिक्वेस्ट इसलिए भेजते हैं कि कुछ खुफियापंथी कर सकें ! ऐसे कुछ खुफियापंथी करने वाले लोग फ्रेंड रिक्वेस्ट भजेकर फॉलोवर्स भी बनते देखे गए हैं, मैंने ही 300 से ज़्यादा फॉलोवर्स से छुटकारा पाया है !

कुछ लोग सिर्फ फ्रेंड रिक्वेस्ट इसलिए भेजते हैं कि उनकी फ्रेंड लिस्ट लम्बी हो सके, और कुछ लोग सिर्फ फोटो या नाम देखकर भी फ्रेंड रिक्वेस्ट भेजते हैं.....मगर सिर्फ महिलाओं की ! कुछ लोग फ्रेंड रेक्वेस्ट्स सिर्फ इसलिए भेजते हैं कि हमें दोस्त बनते ही पकड़ कर किसी ग्रुप में ठेल दें ! वैचारिक आदान प्रदान के लिए ही दोस्त बनाने वालों का प्रतिशत यहाँ दिन प्रतिदिन कम होता जा रहा है !

इसका बड़ा कारण यही है कि कोई भी नया फेसबुक यूज़र महीने भर में स्वघोषित सेलिब्रिटी हो जाता है, जैसे जैसे दोस्तों (समर्थकों) की संख्या बढ़ती जाती है, उनमे सेलिब्रिटी पन आने लगता है, उनका फेसबुकिया व्यवहार बदलने लगता है, ऐसे ही कुछ सेलिब्रिटी टाइप लोग फ़ौरन ही अपना पेज या ग्रुप बना लेता है, जहाँ उसे सदस्यों के बीच पूर्ण संतुष्टि की प्राप्ति होती है ! जैसे जैसे दोस्तों की संख्या बढ़ती जाती है.....उनके कॉलर ऊंचे होते जाते हैं...लोग उनकी एक like के लिए तरस जाते हैं, कमेंट तो बहुत दूर की बात हो जाती है !!

यही एक आम फेसबुकिये दस्तूर हो चला है, इसमें फेसबुक के पीछे का मनोविज्ञान ही काम करता है, यूज़र तो एक खिलौना बन कर अपना किरदार निभाता रहता है !

इन सबके बाद और इस फेसबुकिये दस्तूर से अछूते और शेष बचे खुचे लोग......अपने दोस्तों के सहारे लोग फेसबुक पर अपनी महफ़िलें सजाने की कोशिश करते देखे जाते हैं !!