हर बार की तरह अभी कल की है खबर थी कि गुलबर्गा, कर्नाटक के फार्मेसी सेकेंड ईयर के स्टूडेंट निसार को 23 साल जेल में रहने के बाद रिहा कर दिया गया है, उन्हें 5 जनवरी, 1994 को उनके घर से हैदराबाद पुलिस ने उठाया था !
निसार उन तीन लोगों में से एक हैं जिन्हें सुप्रीम कोर्ट ने सभी आरोपों से बरी कर दिया था। देश की सबसे बड़ी अदालत ने उन्हें सुनाई गई उम्रकैद की सजा को रद्द किया और 11 मई को तुरंत रिहा करने का आदेश दिया। तीनों को बाबरी मस्जिद ढहाए जाने की पहली बरसी पर हुए ट्रेन बम धमाकों के सिलसिले में उठाया गया था !
यह उन सैंकड़ों मामलों में से एक है जो बाबरी मस्जिद के शहीद होने के बाद चले एक ट्रेंड के तहत गिरफ्तार किये गए, और दस बीस सालों बाद बेगुनाह साबित होने के बाद रिहा किये गए, और इन रिहाइयों से पहले और बाद इनके पारिवारिक, आर्थिक, सामाजिक और शैक्षणिक जीवन पूरी तरह से नष्ट हो गए !
आईये ऐसे ही कुछ और मामलों पर नज़र डालते हैं :-
मामला पिछले साल 27 अक्तूबर का है. बीजेपी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी बिहार की राजधानी पटना में हुंकार भरने वाले थे. लेकिन गांधी मैदान में एक के बाद एक कई बम धमाके हुए. बीजेपी ने इसका सियासी फायदा उठाया तो राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआइए) समेत कई राज्यों की पुलिस वारदात को अंजाम देने वालों की धर-पकड़ में जुट गई.
एनआइए ने बिहार से सटे झरखंड की राजधानी रांची में दबिश दी तो कथित तौर पर संदिग्ध फरार हो गए. उन्हें पकडऩे का दावा बीजेपी शासित राज्य छत्तीसगढ़ की पुलिस ने किया. उसने सिमी के कुल 16 संदिग्धों को गिरफ्तार किया. लेकिन 24 मार्च को स्थानीय अदालत ने उनमें से 14 संदिग्धों को जमानत दे दी. इस मामले ने एक बार फिर से यह बहस छेड़ दी है कि आखिर मुसलमानों को ही पुलिस राष्ट्रविरोधी मामलों में क्यों गिरफ्तार करती है, जब उसके पास अदालत में साबित करने का कोई आधार ही नहीं होता ?
हालांकि छत्तीसगढ़ पुलिस अब भी कदम पीछे खींचने को तैयार नहीं दिखती. पुलिस की दलील है कि तकनीकी आधार पर इन आरोपियों को जमानत मिल गई है. दलील है-गैर-कानूनी गतिविधि निरोधक कानून (यूएपीए) के तहत ऐसे संगीन मामलों में 90 दिन के भीतर चालान पेश करना होता है. पुलिस ऐसा नहीं कर पाई तो स्थानीय अदालत से इसे 180 दिन बढ़वा लिया. लेकिन आरोपियों ने इस फैसले को जिला अदालत में चुनौती दी,
जहां सीजेएम कोर्ट की ओर से चालान पेश करने की अवधि बढ़ाए जाने का फैसला निरस्त हो गया. इसके बाद 14 आरोपियों को जमानत मिल गई. रायपुर पुलिस के आइजी जी.पी. सिंह इंडिया टुडे से कहते हैं, ‘‘मामला न्यायिक प्रक्रिया में है और सरकार आगे अपील करेगी.’’ उन्होंने बताया कि पकड़े गए सभी संदिग्ध पटना-बोधगया धमाके से जुड़े नहीं हैं, लेकिन छत्तीसगढ़ में सिमी का बड़ा नेटवर्क था और सब उसके सदस्य हैं.
पटना में मोदी की हुंकार रैली में हुए धमाकों के सिलसिले में सिमी के जिन 16 संदिग्धों को पिछले साल रायपुर पुलिस ने गिरफ्तार किया, उन पर उसने देशद्रोह जैसे गंभीर आरोप लगाए हैं. लेकिन उसे साबित करने का आधार उसे 90 दिन में भी नहीं मिल पाया. ऐसे में सवाल उठता है कि पुलिस ने संदिग्धों को सिमी का सदस्य बताकर गिरफ्तार किया और उन पर ढेर सारे इलजाम लगा दिए, लेकिन वह उसे साबित करना तो दूर, अदालत में चार्जशीट तक पेश नहीं कर पाई.
अब सवाल उठता है कि पुलिस ने 16 लोगों पर इतने गंभीर आरोप किस आधार पर लगाए? इनमें से अधिकांश युवा हैं. उन पर अगर वाकई कोई आधार था तो पुलिस उसे कानून की ओर से तय मियाद में कोर्ट के सामने क्यों नहीं रख पाई? मामला इसलिए भी संदेह पैदा करता है क्योंकि छत्तीसगढ़ में बीजेपी की सरकार है और पुलिस के आरोपों को ही लें तो पकड़े गए संदिग्धों में से कई सीधे तौर पर बीजेपी के पीएम उम्मीदवार नरेंद्र मोदी को निशाना बनाना चाह रहे थे.
ऐसे में पुलिस 90 दिन से ज्यादा की अवधि बीत जाने के बाद भी साजिश की कड़ी को जोड़कर चार्जशीट नहीं बना पाई. छत्तीसगढ़ पुलिस जिस तकनीकी आधार पर जमानत मिलने की दलील दे रही है, अगर उसे कानूनी आधार पर मान भी लिया जाए तो पहले के कई मामले अपने देश की पुलिस की नीयत पर संदेह पैदा करते हैं. न्यायिक सक्रियता के दौर में कई ऐसे मामले सामने आ चुके हैं, जिसमें पुलिस ने बेगुनाह मुस्लिम युवकों को आतंकवाद के आरोप में जेल में डाल दिया, लेकिन कई वर्षों के बाद अदालत ने उन्हें बाइज्जत बरी कर दिया.
ऐसे बेगुनाह युवक जब घर लौटते हैं तब तक उनकी दुनिया उजड़ चुकी होती है और समाज उन्हें शक की निगाह से देखता है, जबकि वही पुलिसवाला कभी पदोन्नति तो कभी बहादुरी का मैडल अपने सीने पर लगाए फूला नहीं समाता. लेकिन उन बेगुनाहों की जेल की सलाखों के पीछे गुजरी जिंदगी को कोई लौटा नहीं सकता.
दिल्ली-गाजियाबाद बम ब्लास्ट के मामले में 1996 में गिरफ्तार मोहम्मद आमिर खान को 14 साल बाद कोर्ट ने बरी कर दिया. उसकी दुनिया अब बदल चुकी है. आमिर अपनी कहानी कुछ यूं सुनाते हैं. ‘‘जब मैं बच्चा था तो पिंजरे वाली गाड़ी (कैदियों को लाने वाली गाडिय़ां) देखकर चिल्लाता था...चोर...चोर...मुझे उसमें बंद सभी कैदी चोर नजर आते थे, लेकिन जब खुद उसमें बंद हुआ तो महसूस हुआ, नहीं, पिंजरे में निर्दोष भी होते हैं.’’ चेहरे पर फीकी मुस्कान के साथ इस वाक्य को कहते हुए 32 वर्षीय आमिर खान की आंखें अचानक बेडिय़ों के भीतर बीती जिंदगी की कहानी बयान करने लग जाती हैं. कैसे महज 18 साल की उम्र में दिल्ली पुलिस ने उसे सीरियल बम धमाकों के आरोप में गिरफ्तार कर लिया था. कैसे उसने भविष्य संवारने वाली अपनी उम्र के 14 साल जेल की सलाखों के पीछे काटे और आखिर में कोर्ट ने उसे निर्दोष मानते हुए बरी कर दिया. कैसे बच्चे-बच्चे के हाथ में होने वाला मोबाइल फोन आमिर के लिए अजूबा है, जिसे उसने जेल से रिहा होने के बाद अपने भांजे-भांजियों से चलाना सीखा है.
इन 14 साल में उसकी दुनिया उजड़ चुकी है, पिता हाशिम खान बेटे की गिरफ्तारी के तीन साल बाद समाज के बहिष्कार और न्याय की आस छोड़कर दुनिया से चल बसे, तो दशक भर की लड़ाई के बाद 2008-09 में आखिर आमिर की मां की हिम्मत भी जवाब दे गई और वे सदमे से लकवाग्रस्त हो गईं. आमिर कहते हैं, ‘‘आज भी अपनी वालिदा के मुंह से बेटा शब्द सुनने को तरसता हूं.’’ कानून की चक्की में पिसा आमिर अब एलएलबी की पढ़ाई कर वकील बनना चाहता है ताकि जेल में बंद निर्दोष लोगों के लिए इंसाफ की लड़ाई लड़ सके.
ऐसा सिर्फ छत्तीसगढ़ में नहीं हो रहा है, बल्कि खुद को सेकुलर और मुस्लिम हितैषी कहलाने वाली उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, महाराष्ट्र जैसे राज्यों में भी है. निश्चित तौर से इस तरह की घटनाओं से समुदाय में मजलूम होने की भावना बढ़ती है. मुस्लिम बुद्धिजीवी कमाल फारूकी कहते हैं, ‘‘यह किसी समुदाय की बात नहीं है, लेकिन पुलिस की ज्यादती का शिकार एक विशेष समुदाय होता है तो उस पर खराब असर जरूर पड़ता है.’’ वे कहते हैं, ‘‘यूएपीए में पुलिस को काफी छूट है और आरोपियों को जमानत भी पुलिस की डायरी के आधार पर ही मिलती है, ऐसे में क्या उम्मीद की जा सकती है जबकि कई मामले ऐसे आए हैं जब पीड़ित व्यक्ति 14-14 साल बाद हाइकोर्ट से बरी होता है, लेकिन उन पुलिस वालों पर कार्रवाई नहीं होती जिन्होंने गलत केस बनाया था. आखिर हम किस तरह की पुलिस फोर्स बना रहे हैं.’’
जमीयत उलेमा-ए-हिंद के जनरल सेक्रेटरी महमूद मदनी कहते हैं, ‘‘जब कोई वारदात होती है तो पुलिस पर दबाव होता है और उस दबाव को कम करने के लिए वह गर्दन के नाप का फंदा तलाशती है. उसे इस तरह पेश किया जाता है कि मुलजिम को मुजरिम बताया जाता है, इतना ही नहीं, बार काउंसिलें प्रस्ताव पारित कर केस लडऩे से इनकार कर देती हैं, सामाजिक बहिष्कार हो जाता है. पुलिस के निकम्मेपन और कथित सभ्य समाज का जुल्म एक मासूम का जीवन बरबाद कर देता है.’’ कई बार संदिग्धों का केस लडऩे वाले वकीलों को धमकी मिलती है.
मुंबई के वकील शाहिद आजमी की हत्या इसकी मिसाल है. दिल्ली में आतंक के फर्जी मामले में जेल की सजा काट चुके शाहिद ने मुंबई में बेगुनाहों की पैरवी का प्रण किया था. हाल ही में वरिष्ठ वकील महमूद प्राचा को धमकी मिल चुकी है, जो इज्राएली दूतावास के सामने हुए कार धमाके समेत दर्जनों आतंक से जुड़े मामलों की पैरवी कर रहे हैं. मदनी मांग करते हैं, ‘‘पुलिस अधिकारी किसी को पकड़ता है तो जिस तरह उसे शाबासी मिलती है, उसी तरह जवाबदेही भी तय होनी चाहिए क्योंकि पुलिस के निकम्मेपन की वजह से गलत व्यक्ति जेल में पिसता है और असली मुजरिम बच निकलता है.’’
सबसे बड़ी परेशानी यह है कि पुलिस संदिग्धों को आतंकी बताकर मानो अदालत का काम भी खुद ही कर देती है. मीडिया भी पुलिस की बात को अंतिम सत्य की तरह प्रचारित करता है, लेकिन अदालत से बरी हुए पीड़ित के बारे में कुछ नहीं बताता. कुछ समय पहले सीपीएम के महासचिव प्रकाश करात ने राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी को ऐसे 22 बेगुनाहों की सूची वाला ज्ञापन सौंपा था.
ऐसे मामलों के लिए काम करने वाली संस्था रिहाई मंच के प्रवक्ता राजीव यादव कहते हैं, ‘‘जयपुर-सीकर में हाल में हुई गिरफ्तारी के बाद एक माहौल बनाया गया कि ये लोग मोदी की हत्या करने वाले थे. जबकि कहीं से आधिकारिक टिप्पणी नहीं आई.’’ उनके मुताबिक, ‘‘हौवा बनाने के पीछे इंटेलिजेंस एजेंसी होती है, जिसकी संसद के प्रति कोई जवाबदेही नहीं है. अगर इसे संसद के प्रति जवाबदेह बनाया जाए तो आतंकवाद पर होने वाली राजनीति खत्म हो सकती है.’’
यादव का मानना है कि ऐसे मामलों में गलत साबित होने वाले पुलिस वालों पर भी कार्रवाई होनी चाहिए. हालांकि इस मामले में अल्पसंख्यक आयोग के चेयरमैन वजाहत हबीबुल्ला बताते हैं कि हैदराबाद की अदालत में 22 बेगुनाहों के बरी होने के बाद जब उन्होंने तत्कालीन सीएम किरण रेड्डी से पुलिस पर कार्रवाई की मांग की, तो उन्होंने इससे पुलिस के अनुशासन पर खराब असर पडऩे की बात कहकर किनारा कर लिया.
आमिर ही नहीं, पेशे से डॉक्टर महाराष्ट्र के 35 वर्षीय रईस अहमद को मालेगांव मस्जिद धमाके में 2006 में एटीएस ने गिरफ्तार किया. साथ में शहर के अन्य आठ लोगों को साजिश रचने के मामले में गिरफ्तार किया गया. लेकिन जब एनआइए ने इन लोगों की रिहाई का विरोध नहीं करने का फैसला किया तो पांच साल बाद मकोका अदालत ने छोड़ दिया. लेकिन जब 16 नवंबर, 2011 को वे रिहा हुए तो उन्हें मालूम पड़ा कि उन लोगों ने क्या खो दिया है. मतदाता सूची से उनके नाम काट दिए गए थे, परिवार को मानसिक यातनाओं से गुजरना पड़ा. परिवार में कोई रोजगार नहीं था. यूपी के रामपुर के रहने वाले 35 वर्षीय जावेद अहमद 11 साल तो कानपुर के वासिफ हैदर को बेगुनाह होने के बावजूद 9 साल जेल में बिताने पड़े.
बिजनौर के 32 वर्षीय नासिर हुसैन को 22 धमाकों का मास्टरमाइंड बताया गया लेकिन 14 साल के बाद वह निर्दोष साबित हुआ. युवा मकबूल शाह को अपनी जिंदगी के 14 साल तिहाड़ जेल में बिताने पड़े. उस पर दिल्ली के लाजपत नगर धमाके का आरोप था लेकिन दिल्ली हाइकोर्ट ने उसे बरी कर दिया. इसी तरह अब्दुल मजीद भट जो पहले श्रीनगर में आतंकियों के आत्मसमर्पण कराने में आर्मी की मदद करते थे, लेकिन किसी बात पर आर्मी इंटेलिजेंस में तैनात मेजर शर्मा से अनबन हो गई, उसके बाद मजीद पर मानो आफत आ पड़ी.
श्रीनगर में उसे पकड़वाने में नाकाम शर्मा ने दिल्ली पुलिस की मदद ली. दिल्ली पुलिस की टीम ने मजीद को श्रीनगर से उठाया, लेकिन उसे दिल्ली से गिरफ्तार बताया. लेकिन मजीद ने आरटीआइ के जरिए गाडिय़ों की लॉग बुक आदि मंगाई, जिससे पुलिस की थ्योरी गलत साबित हुई. मजीद इंडिया टुडे से कहते हैं, ‘‘देश और यहां की व्यवस्था खराब नहीं है, बल्कि पुलिस में कुछ लोग खराब हैं, जिनकी वजह से पूरा सिस्टम बदनाम होता है. हम पहले भी देश के लिए ही काम करते थे और आज भी कर रहे हैं.’’ साफ है कि पुलिस की ज्यादती का शिकार मुस्लिम समाज सबसे ज्यादा है.
इन मुसलमानों पर लगे कैसे-कैसे आरोप, लेकिन पुलिस आरोपपत्र नहीं पेश कर सकी :-
उमेर सिद्दीकी, 36 वर्ष
सिमी का मुख्य व्यक्ति. इसने अब्दुल्ला उर्फ हैदर और मुजीब के साथ मिलकर बोधगया और पटना धमाके की योजना बनाई. सिमी के बड़े आतंकियों आमिल परवेज, सफदर नागौरी, करीमुद्दीन नागौरी, अब्दुल शोभान तौकीर और खंडवा जेल से फरार आतंकी अबु फैजल के साथ लगातार संपर्क रखना. इसके अलावा रायपुर में सिमी का कैंप लगाने, प्रशिक्षण देने और कश्मीर को भारत से अलग कराने, मुसलमानों पर अत्याचार का बदला लेने, लादेन के तौर-तरीकों को जिहाद के लिए अपनाने जैसे गंभीर आरोप में सीधी भूमिका होने के आरोप हैं.
अजहरुद्दीन कुरैशी, 19 वर्ष
हैदर समेत कई आतंकियों को मकान दिलवाना, उमेर के पकड़े जाने पर उसे भगाना, शेर अली के साथ साझा बैंक खाता होना, बारूद/बंदूक की व्यवस्था करना. 18-19 साल के युवाओं का ग्रुप बना उसका लीडर बनने की कोशिश.
अब्दुल वाहिद, 55 वर्ष
उमेर के साथ सिमी आतंकियों को शरण देने, सिमी के कैंप में शिरकत करने, खंडवा के आतंकी ईनाम के संबंधियों के साथ आतंकियों के बड़े कैंप में जाना और छत्तीसगढ़ आने वाले आतंकियों को अपने घर में ठहराने का आरोप.
रोशन उर्फ जावेद, 32 वर्ष
अब्दुल वाहिद का दामाद. आतंकियों को शरण देने से लेकर सिमी के कैंप में जाने, सिमी के लिए मासिक चंदा उगाही करने जैसे आरोप हैं.
अब्दुल अजीज, 45 वर्ष
बोधगया-पटना धमाके के आरोपी हैदर, नुमान, तौफीक, मुजीब को घर में शरण देने का आरोप है.
अजीजुल्लाह, 38 वर्ष
गुजरात के सूरत से 2002 में सिमी के कैंप से गिरफ्तार किया गया था, जिस पर रिहा होने के बाद उमेर के साथ सिमी के कैंपों में जाने और आतंकियों को शरण देने का आरोप है.
हयात खान, 45 वर्ष
राजू मिस्त्री के नाम से मशहूर है और रायपुर स्थित पंडरी में दो गैराज हैं. इसी गैराज में सिमी की बैठकें लेना, उमेर के साथ मिलकर कैंप में जाना. हयात खान के गैराज में ही उमेर की ओर से नरेंद्र मोदी को मारने के लिए किसी को खुद से सामने आने की अपील की गई थी.
मोइनुद्दीन, 37 वर्ष; शेख हबीबुल्लाह, 33 वर्ष; मो. दाऊद, 40 वर्ष; शेख शुभान, 50 वर्ष; असलम, 38 वर्ष; सईद, 54 वर्ष; अम्मार बिन वाहिद, 19 वर्ष; सलीम, 43 वर्ष और शेर अली, 20 वर्षः इन सभी पर लगभग एक जैसे आरोप हैं. जिनमें सिमी की बैठकों में जाना, आतंकियों को पनाह देना शामिल हैं. दाऊद पर छत्तीसगढ़ की अंबिकापुर रैली में बीजेपी के पीएम पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी को मारने के लिए तैयार होने का आरोप है. कुछ ने संदिग्धों को पटना-बोधगया ब्लास्ट के मुख्य आरोपी हैदर को विस्फोटक उपलब्ध कराया तो पेशे से सिविल इंजीनियर शेर अली का अजहरुद्दीन के साथ बैंक में संयुक्त खाता है. इस खाते के पैसे का इस्तेमाल आतंकियों के लिए बंदूक, बारूद आदि के इंतजाम के लिए हुआ.
कोई लौटा दे इनके बीते दिन :-
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करीब दो दर्जन से ज्यादा ऐसे मामले सामने आ चुके हैं जिनमें मुस्लिम युवाओं को पुलिस ने फंसाया, लेकिन अदालत से बाइज्जत बरी :-
मजीद भट, 55 वर्ष
जगह: श्रीनगर
मामलाः 6 साल जेल में बिताए. मेजर शर्मा से अनबन हुई. दिल्ली पुलिस ने श्रीनगर में उठाया, लेकिन गिरफ्तारी दिल्ली के पहाडग़ंज से दिखाई. आरटीआइ से सच सामने आया और बरी हो गए.
जावेद अहमद, 35 वर्ष
जगहः यूपी में रामपुर
मामलाः 11 साल जेल में बिताए. देशद्रोह का आरोप. पाक की मोबीना से प्यार हुआ. दोनों लेटर लिखते थे, नाम के पहले अक्षर को कोड बना रखा था. यूपी एसटीएफ ने जे और एम बनाकर जावेद को आतंकी बताया.
वासिफ हैदर,
जगहः कानपुर निवासी
मामलाः करीब 9 साल जेल में बिताए. देशद्रोह, दंगों के आरोप. दिल्ली पुलिस की स्पेशल सेल ने काम से घर लौटे वासिफ को उठाया. तीन दिन की यातना के बाद पुलिस उसे खूंखार आतंकी बना चुकी थी.
नासिर हुसैन, 32 वर्ष
जगहः बिजनौर
मामलाः 7 साल जेल में गुजरे. हूजी का आतंकी और ट्रेन में विस्फोट का आरोप. यूपी एसटीएफ ने तब उठाया जब वह देहरादून में कन्स्ट्रक्शन सुपरवाइजर का काम कर रहा था.
मकबूल शाह,
जगहः श्रीनगर
मामलाः 14 साल जेल में बिताए. दिल्ली के 1996 के लाजपत नगर धमाके में पुलिस ने पकड़ा. मगर आरोप साबित न होने के बाद दिल्ली हाइकोर्ट ने मकबूल को बाइज्जत बरी कर दिया.
आमिर खान, 32 वर्ष
जगहः दिल्ली
मामलाः 14 साल बाद अदालत ने बाइज्जत बरी किया. 22 धमाकों का मास्टरमाइंड बता पुलिस ने गिरफ्तार किया. आमिर की बहन की शादी पाकिस्तान में हुई थी, उससे फोन पर बात करता था. यहीं से वह पुलिस के हत्थे चढ़ गया. महज 18 साल की उम्र में जेल पहुंचा. आमिर का पूरा परिवार बिखर गया, पिता चल बसे, मां लकवाग्रस्त हो गई !
यह ट्रेंड लगातार जारी है, ऐसे में मुस्लिम तंज़ीमों को आगे आकर इस ट्रेंड के खिलाफ पुरज़ोर विरोध की आवाज़ बुलंद करना होगी, ताकि मुसलमानो के प्रति चल रहे इस तरह के ट्रेंड पर रोक लगे, और साथ ही अदालतों में ऐसे बेगुनाहों की को पारिवारिक, शैक्षणिक, अार्थिक और सामाजिक तौर पर ख़त्म करने वालों के खिलाफ कार्रवाही तथा मुआवज़े के लिए पहल करना चाहिए !
Source : -
http://aajtak.intoday.in/story/-innocent-muslim-youth-on-the-radar-of-police-1-761066.html