इस लेख में ताज़ा फैसला मालेगांव विस्फोट का भी शामिल कर लेते हैं, जिसमें मालेगांव विस्फोट में महाराष्ट्र ATS द्वारा पकडे गए बेगुनाह सभी 9 लोगों को 10 साल बाद मुंबई की एक स्पेशल कोर्ट ने सबूत के अभाव में बरी कर दिया, जबकि एक आरोपी शब्बीर अहमद की पिछले साल मौत हो गई थी।
अक्षरधाम मंदिर हमले में पकडे गए और 11 साल बाद बा इज़्ज़त बरी हुए मुफ़्ती अब्दुल क़य्यूम के अलावा भी देश में सैंकड़ों ऐसे उदाहरण हैं जिसमें मुसलमानो को संदेह के आधार पर ही उठाकर जेलों में ठूंस दिया गया है, और जिन्हे अपनी बेगुनाही साबित करने में दशकों लग गए हैं !
अस्सी के दशक में गुजरात के बंदरगाह मंत्री रहे 78 वर्षीय मोहम्मद सूरती के चेहरे पर अपने ऊपर हुए जुल्म की कड़वी कहानी सुनाते वक्त दर्द और अफ सोस उतर आया है. अपने दो मंजिला घर में मक्का की तस्वीर के सामने बैठे सूरती कभी कांग्रेस के कद्दावर नेता थे.
उन्हें बाबरी मस्जिद ढहाए जाने के बाद भड़के दंगों के बाद 1993 में सूरत में हुए दो बम विस्फोटों की साजिश रचने वाले 11 आरोपियों में शामिल किया गया. 2008 में टाडा अदालत ने इन्हें जेल की सजा सुनाई थी. 1995 में उन्हें उस अपराध का आरोपी ठहराया गया था. 19 साल की अदालती कार्रवाई और 12 साल तक जेल में रहने के बाद सुप्रीम कोर्ट ने 18 जुलाई को उन्हें बरी कर दिया.
बेशक उन्हें चैन है कि वे निर्दोष साबित हुए, लेकिन कुछ सवाल उनके मन को मथ रहे हैं ''हमारे वे 12 साल कौन लौटाएगा? पिछले दो दशक से हम और हमारा परिवार आतंकवादी होने का कलंक झेल रहा था, अब उसके निशान कौन मिटाएगा?” क्या कानून-व्यवस्था यह आश्वासन दे सकती है कि कम-से-कम इस तरह के गंभीर मामलों से जुड़ी अदालती कार्रवाई को लंबे समय तक न खींचा जाए?
दो बम विस्फोट, अरसे बाद आरोपी को सजा सुनाना और लंबे अर्से बाद उसका बरी होना, यह एक दिल दुखाने वाली कहानी है. इसकी भूमिका 1993 में ही बन गई थी, जब 28 जनवरी की सुबह वारछा रोड इलाके में एक बम विस्फोट हुआ. आठ साल की छात्रा की मौत हो गई और 11 लोग घायल हो गए. 22 अप्रैल को सूरत रेलवे स्टेशन पर एक और धमाका हुआ.
इसमें 38 लोग घायल हुए. ये विस्फोट बाबरी मस्जिद ढहाए जाने के बाद मुंबई और सूरत में भड़के उन दंगों के जवाब में थे जिनमें शहर के वारछा रोड और वेद रोड इलाकों में दंगाइयों ने करीब 200 मुसलमानों की हत्या कर दी थी. इन दंगों ने मुसलमानों को पहले से कहीं अधिक सहमा दिया था.
वारछा रोड विस्फोट मामले में पुलिस ने घटना के कुछ ही दिन के भीतर 27 लोगों को गिरफ्तार किया था, लेकिन साक्ष्य के अभाव में उन सभी को टाडा अदालत ने दो साल बाद बरी कर दिया. पुलिस ने उसी साल रेलवे स्टेशन विस्फोट मामले के संबंध में 11 अन्य लोगों को गिरफ्तार किया और उन्ह़़ें वारछा रोड मामले में आरोपी भी बनाया. गौर तलब है कि इनमें से कोई भी आरोपी करीब दो साल पहले हुए धमाकों की जगह पर नहीं पकड़ा गया था.
दोनों ही मामलों पर बाद में टाडा लगा दिया गया और सभी 11 आरोपियों के इकबालिया बयान पेश किए गए, जो पुलिस ने कथित तौर पर थर्ड डिग्री यातना देकर लिए थे. 2001 में सुप्रीम कोर्ट ने सभी आरोपियों को जमानत दे दी थी, लेकिन गुजरात की टाडा अदालत ने 2008 में उन्हें दोषी ठहराते हुए 10 से 20 साल की जेल की सजा सुनाई. 18 जुलाई को बरी होने तक उनमें से प्रत्येक जेल में कम-से-कम 12 साल गुजार चुका था.
52 वर्षीय मुश्ताक पटेल को रेलवे स्टेशन विस्फोट मामले में सबसे पहले गिरफ्तार किया गया था. वे पूछते हैं, ''पुलिस को हमें गिरफ्तार करने में दो साल क्यों लग गए, जबकि हम स्थानीय निवासी ही थे, कोई बाहरी नहीं? हममें से कई कांग्रेस के नेता और कार्यकर्ता थे. जाहिर है, पुलिस अपने नए बीजेपी आकाओं को खुश करने की कवायद में लगी थी. 14 मार्च, 1995 को केशुभाई पटेल के मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने के तुरंत बाद मेरे अलावा सभी को गिरफ्तार कर लिया गया था.”
बरी व्यक्तियों में से एक का कहना है कि असली अपराधियों को पुलिस नहीं पकड़ सकी और भुगतना उन्हें पड़ा. वे कहते हैं, ''पुलिस ने इस मामले में जितने लोगों को गिरफ्तार किया था, वे सभी निर्दोष थे और असली अपराधियों को पकडऩे में पुलिस नाकाम रही. हमारे खिलाफ दायर वारछा रोड मामला भी पूरी तरह से गलत था.” दूसरे व्यक्ति का कहना है कि 90 फीसदी मामले गलत थे. हालांकि जब उससे पूछा गया कि बाकी 10 फीसदी सही मामलों का क्या तो वह खामोश रहा.
64 वर्षीय कारोबारी और किसान हुसैन घडियाली सूरत में अपने सादे-से आठ मंजिला अपार्टमेंट में पोते-पोतियों के साथ बैठे हैं और बता रहे हैं, ''इकबालिया बयान देने के लिए मजबूर करने को हमें अमानवीय थर्ड डिग्री यातना दी जा रही थी. मेरे दोनों पैरों के तलवे लाठी की लगातार मार से काले पड़ गए थे. ऐसी परिस्थितियों में हमें कबूल करना ही पड़ा.” बरी किए गए सभी 11 आरोपियों के बचाव पक्ष के वकील मुश्ताक शेख कहते हैं कि शुरू से ही इस मामले को राजनैतिक रंग दिया जा रहा था.
''राष्ट्रीय सुरक्षा और सांप्रदायिक शांति से जुड़े किसी भी मामले की कार्रवाई को पुलिस तब तक गुप्त रखती है, जब तक कि उसके संबंध में अंतिम निष्कर्ष सामने न आए. इस तरह की जांच राष्ट्रीय कर्तव्य की भावना के साथ की जानी चाहिए. लेकिन इस मामले में जांच चलने के दौरान पुलिस हर दिन सांप्रदायिक भावनाएं उकसाने वाला कोई न कोई प्रेस नोट जारी करती रही.”
सूरती कहते हैं, ''पुलिस की ओर से मामले के बारे में जारी की गई मनगढ़ंत जानकारियों को स्थानीय भाषा के दैनिक अखबार और भी सनसनीखेज बनाकर परोसते रहे और हमें मीडिया ट्रायल का भी शिकार होना पड़ा.” पटेल को जब अवैध रूप से रिवॉल्वर रखने के आरोप में गिरफ्तार किया गया था, तब वे सूरत के नजदीक एक समुद्र तट पर अपने परिवार के साथ छुट्टियां मना रहे थे.
यह 12 मार्च, 1995 की घटना है. उसके ठीक एक दिन बाद गांधीनगर में बीजेपी की सरकार ने सत्ता संभाली थी. कुछ दिनों बाद, उन्हें रेलवे विस्फोट मामले में आरोपी बना दिया गया था. उनके बाद अगली गिरफ्तारी सूरती और घडियाल की हुई.
पुलिस के हिसाब से घटनाओं का क्रम इस प्रकार रहा- बाबरी मस्जिद के ढहने के बाद सूरत समेत कई जगहों पर हुए दंगों में मुसलमान खुद को काफी असुरक्षित महसूस कर रहे थे. इसलिए आरोपियों ने आत्म सुरक्षा और बहुसंख्यक समुदाय से बदला लेने के लिए हथियार इकट्ठा करने की योजना बनाई. पुलिस ने कहा कि आरोपियों में से एक इकबाल वाडीवाला—घडियाली और उनकी पत्नी शमीमा सूरती से मिलने गए, जो उस समय गुजरात राज्य मत्स्य विकास बोर्ड के अध्यक्ष थे.
पुलिस के अनुसार उन्होंने वहां से छह विदेशी हथगोले, दो एके-47 राइफल और अहमदाबाद में अब्दुल लतीफ से 199 जिंदा कारतूस हासिल करने का इंतजाम किया. उन्हीं हथगोलों का इस्तेमाल दोनों विस्फोटों में किया गया. पुलिस के अनुसार, सूरती अपनी सरकारी कार में अहमदाबाद से सूरत आए और उनके पीछे वाडीवाला भी मारुति वैन में बारूदी माल के साथ पहुंचे.
एक कांग्रेस कार्यकर्ता और छोटे भूमि-दलाल रहे मुश्ताक को जेल में अच्छे आचरण के लिए प्रमाणपत्र दिया गया है. जेल अधीक्षक ने गौर किया था कि कैदियों के लिए आयोजित धार्मिक समारोहों की तैयारी में मुश्ताक कितनी मुस्तैदी से जुट जाते थे. 2008 में जब टाडा अदालत ने उन्हें दोषी ठहराया तो अदालत में सिर्फ उनके मुस्लिम दोस्त नहीं, बल्कि सभी रो पड़े थे. मुश्ताक कहते हैं, ''1995 में जब मुझे गिरफ्तार किया गया था तब मेरा बेटा मिन्हाज जो अभी एलएलबी कर रहा है, सिर्फ दो साल का था.
मेरे दोस्त और रिश्तेदार मदद के लिए खड़े रहे, तभी वह अपनी शिक्षा हासिल कर रहा है. लेकिन अपनी व्यक्तिगत पारिवारिक पीड़ा से ज्यादा मैं अपने हिंदू भाइयों की आंखों में मेरे लिए छलकते धिक्कार को देखकर आहत हूं. बस थोड़ा सा यही सुकून है कि उनके बीच कई लोग ऐसे भी हैं, जो जानते हैं कि मैं निर्दोष हूं.”
कांग्रेस नेता और सूरत नगर निगम शिक्षा समिति के सदस्य वाडीवाला को दो बार जेल जाना पड़ा. इसी बीच उनके परिवार का मिट्टी के तेल और होटल का कारोबार पूरी तरह बर्बाद हो गया. 2013 में लीवर की बीमारी के कारण वे भी चल बसे. उनकी पत्नी जुबेदा और 39 और 36 वर्षीय बेटे आबिद और वसीम सूरत के नजदीक एक छोटा-सा रेस्तरां चलाते हैं. उनके चेहरे पर हताशा है.
आबिद कहते हैं, ''जेल में उचित इलाज नहीं होने की वजह से मेरे वालिद की मौत हो गई.” सूरती के 40 वर्षीय पुत्र अमीन का आरोप है कि उनके मछली पालन के कारोबार को 1995 में उनके वालिद की गिरफ्तारी के बाद बीजेपी सरकार के शक्तिशाली लोगों ने बर्बाद कर दिया.
उनके साथ हुआ अन्याय सिर्फ अभियुक्त के तौर पर उनके जेल जाने तक ही सीमित नहीं रहा, बल्कि इसमें उनके परिवारों को भी पिसना पड़ा जिन्हें साल दर साल आर्थिक अभावों और सामाजिक उपेक्षा, जलालत और दूसरी तकलीफों का सामना करना पड़ा.
फैसला गलतियों का मुकदमा :-
सुप्रीम कोर्ट ने टाडा के तहत दर्ज इकबालिया बयान को तकनीकी कारणों से अमान्य कर दिया.
जस्टिस टी.एस. ठाकुर और जस्टिस सी. नागप्पन की अध्यक्षता वाली सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने 18 जुलाई, 2014 को 1993 में सूरत बम विस्फोट मामले में सभी 11 आरोपियों को बरी कर दिया. उस बम विस्फोट में एक स्कूली लड़की की मौत हो गई थी और कई लोग घायल हो गए थे.
सर्वोच्च अदालत ने 2008 में गुजरात आतंकवादी और विध्वंसक गतिविधि (निरोधक) कानून (टाडा) अदालत के फैसले को उलट दिया. उस फैसले में आरोपियों को 10 से 20 साल कैद की सजा सुनाई गई थी. आतंकवाद विरोधी कानूनों के तहत दाखिल कई दूसरे मामलों की तरह ही गुजरात पुलिस कानून में निर्धारित सही प्रक्रिया का पालन करने में असफल रही. इस मामले के कुछ मुख्य बिंदु:
अपीलकर्ताओं की दलील थी कि उनका मुकदमा टाडा के तहत नहीं चलाया जा सकता क्योंकि वह धारा 20-ए का उल्लंघन है. इस प्रावधान में टाडा के तहत दंडनीय अपराध के बारे में किसी भी जानकारी की रिकॉर्डिंग के लिए जिला पुलिस अधीक्षक की मंजूरी होनी चाहिए. लेकिन आरोपियों द्वारा अपराध स्वीकार करने वाले बयानों की रिकॉर्डिंग के लिए गुजरात पुलिस ने राज्य के गृह विभाग के अतिरिक्त मुख्य सचिव की मंजूरी ली.
अदालत के सामने सवाल यह था कि क्या जिला पुलिस अधीक्षक को प्राप्त मंजूरी का अधिकार राज्य के किसी अन्य अधिकारी को भी हासिल है. इस मामले में मुख्य सचिव ऊपर के स्तर का अधिकारी है.
अदालत ने नहीं में जवाब दिया. उसने फैसला दिया कि अगर कोई नियम बनाया गया है तो उसका पालन उसी रूप में किया जाना चाहिए. ''उस काम को किसी भी दूसरी तरह से करने की मनाही होनी चाहिए.”
हालांकि मंजूरी लेने के लिए सीनियर अधिकारी के पास जाना सही मालूम हो सकता है, लेकिन अदालत ने पहले के कुछ मामलों का उल्लेख करते हुए कहा कि कानून अगर किसी अधिकारी को कुछ विवेकाधीन अधिकार देता है तो किसी अन्य अधिकारी द्वारा उस अधिकार का इस्तेमाल करना गलत है.
“इस मामले में कानून कहता है, ''अदालतें इस सिद्धांत को लागू करने के प्रति इतनी सख्त हैं कि वे उन प्रशासनिक दलीलों की भत्र्सना करती है, जो उन्हें बनाने वालों को स्वाभाविक और उचित मालूम होती हैं.”
टाडा के तहत रिकॉर्ड किया गया इकबालिया बयान अमान्य हो जाने के बाद गुजरात सरकार के मामले में कोई दम नहीं रह गया. इकबालिया बयान के सिवा उसके पास कोई अन्य ठोस सबूत नहीं था.
विशेष सरकारी वकील हंसमुख लालवाला ने आरोपियों के खिलाफ टाडा अदालत में दलीलें पेश की थीं. लालवाला कहते हैं, ''सुप्रीम कोर्ट पर कौन उंगली उठा सकता है. कोर्ट ने उन्हें तकनीकी आधार पर बरी कर दिया है.” उनका मानना है कि इस मामले में पेश किए गए सबूत आरोपियों को दोषी करार देने के लिए काफी मजबूत थे.
घटनाक्रम :-
28 जनवरी, 1993: वारछा रोड पर हुए विस्फोट में एक स्कूली लड़की की मौत और 11 लोग घायल. पुलिस ने इस मामले में 27 लोगों को गिरफ्तार किया.
22 अप्रैल, 1993: सूरत रेलवे स्टेशन पर विस्फोट, 38 लोग घायल.
21 मार्च, 1995: रेलवे स्टेशन पर विस्फोट के मामले में गांधीनगर में बीजेपी सरकार आने से एक दिन पहले मुश्ताक पटेल नाम के एक व्यक्ति को गिरफ्तार किया गया.
19 मार्च, 1995: कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और गुजरात के पूर्व मंत्री मोहम्मद सूरती को रेलवे स्टेशन पर बम विस्फोट मामले में गिरफ्तार किया गया. सभी आरोपियों पर टाडा के तहत आरोप दर्ज.
2001: आरोपियों को सुप्रीम कोर्ट से जमानत.
4 अक्तूबर, 2008: टाडा अदालत ने 11 आरोपियों को दोषी करार दिया और उन्हें 10 से 20 साल कैद की सजा सुनाई.
18 जुलाई, 2014: सुप्रीम कोर्ट ने सभी 11 आरोपियों को यह कहते हुए बरी कर दिया कि पुलिस ने टाडा के तहत कार्रवाई करते समय सही प्रक्रिया का पालन नहीं किया !!
Source : http://aajtak.intoday.in/story/%E2%80%98who-will-give-us-back-these--12-years-1-773734.html
अक्षरधाम मंदिर हमले में पकडे गए और 11 साल बाद बा इज़्ज़त बरी हुए मुफ़्ती अब्दुल क़य्यूम के अलावा भी देश में सैंकड़ों ऐसे उदाहरण हैं जिसमें मुसलमानो को संदेह के आधार पर ही उठाकर जेलों में ठूंस दिया गया है, और जिन्हे अपनी बेगुनाही साबित करने में दशकों लग गए हैं !
अस्सी के दशक में गुजरात के बंदरगाह मंत्री रहे 78 वर्षीय मोहम्मद सूरती के चेहरे पर अपने ऊपर हुए जुल्म की कड़वी कहानी सुनाते वक्त दर्द और अफ सोस उतर आया है. अपने दो मंजिला घर में मक्का की तस्वीर के सामने बैठे सूरती कभी कांग्रेस के कद्दावर नेता थे.
उन्हें बाबरी मस्जिद ढहाए जाने के बाद भड़के दंगों के बाद 1993 में सूरत में हुए दो बम विस्फोटों की साजिश रचने वाले 11 आरोपियों में शामिल किया गया. 2008 में टाडा अदालत ने इन्हें जेल की सजा सुनाई थी. 1995 में उन्हें उस अपराध का आरोपी ठहराया गया था. 19 साल की अदालती कार्रवाई और 12 साल तक जेल में रहने के बाद सुप्रीम कोर्ट ने 18 जुलाई को उन्हें बरी कर दिया.
बेशक उन्हें चैन है कि वे निर्दोष साबित हुए, लेकिन कुछ सवाल उनके मन को मथ रहे हैं ''हमारे वे 12 साल कौन लौटाएगा? पिछले दो दशक से हम और हमारा परिवार आतंकवादी होने का कलंक झेल रहा था, अब उसके निशान कौन मिटाएगा?” क्या कानून-व्यवस्था यह आश्वासन दे सकती है कि कम-से-कम इस तरह के गंभीर मामलों से जुड़ी अदालती कार्रवाई को लंबे समय तक न खींचा जाए?
दो बम विस्फोट, अरसे बाद आरोपी को सजा सुनाना और लंबे अर्से बाद उसका बरी होना, यह एक दिल दुखाने वाली कहानी है. इसकी भूमिका 1993 में ही बन गई थी, जब 28 जनवरी की सुबह वारछा रोड इलाके में एक बम विस्फोट हुआ. आठ साल की छात्रा की मौत हो गई और 11 लोग घायल हो गए. 22 अप्रैल को सूरत रेलवे स्टेशन पर एक और धमाका हुआ.
इसमें 38 लोग घायल हुए. ये विस्फोट बाबरी मस्जिद ढहाए जाने के बाद मुंबई और सूरत में भड़के उन दंगों के जवाब में थे जिनमें शहर के वारछा रोड और वेद रोड इलाकों में दंगाइयों ने करीब 200 मुसलमानों की हत्या कर दी थी. इन दंगों ने मुसलमानों को पहले से कहीं अधिक सहमा दिया था.
वारछा रोड विस्फोट मामले में पुलिस ने घटना के कुछ ही दिन के भीतर 27 लोगों को गिरफ्तार किया था, लेकिन साक्ष्य के अभाव में उन सभी को टाडा अदालत ने दो साल बाद बरी कर दिया. पुलिस ने उसी साल रेलवे स्टेशन विस्फोट मामले के संबंध में 11 अन्य लोगों को गिरफ्तार किया और उन्ह़़ें वारछा रोड मामले में आरोपी भी बनाया. गौर तलब है कि इनमें से कोई भी आरोपी करीब दो साल पहले हुए धमाकों की जगह पर नहीं पकड़ा गया था.
दोनों ही मामलों पर बाद में टाडा लगा दिया गया और सभी 11 आरोपियों के इकबालिया बयान पेश किए गए, जो पुलिस ने कथित तौर पर थर्ड डिग्री यातना देकर लिए थे. 2001 में सुप्रीम कोर्ट ने सभी आरोपियों को जमानत दे दी थी, लेकिन गुजरात की टाडा अदालत ने 2008 में उन्हें दोषी ठहराते हुए 10 से 20 साल की जेल की सजा सुनाई. 18 जुलाई को बरी होने तक उनमें से प्रत्येक जेल में कम-से-कम 12 साल गुजार चुका था.
52 वर्षीय मुश्ताक पटेल को रेलवे स्टेशन विस्फोट मामले में सबसे पहले गिरफ्तार किया गया था. वे पूछते हैं, ''पुलिस को हमें गिरफ्तार करने में दो साल क्यों लग गए, जबकि हम स्थानीय निवासी ही थे, कोई बाहरी नहीं? हममें से कई कांग्रेस के नेता और कार्यकर्ता थे. जाहिर है, पुलिस अपने नए बीजेपी आकाओं को खुश करने की कवायद में लगी थी. 14 मार्च, 1995 को केशुभाई पटेल के मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने के तुरंत बाद मेरे अलावा सभी को गिरफ्तार कर लिया गया था.”
बरी व्यक्तियों में से एक का कहना है कि असली अपराधियों को पुलिस नहीं पकड़ सकी और भुगतना उन्हें पड़ा. वे कहते हैं, ''पुलिस ने इस मामले में जितने लोगों को गिरफ्तार किया था, वे सभी निर्दोष थे और असली अपराधियों को पकडऩे में पुलिस नाकाम रही. हमारे खिलाफ दायर वारछा रोड मामला भी पूरी तरह से गलत था.” दूसरे व्यक्ति का कहना है कि 90 फीसदी मामले गलत थे. हालांकि जब उससे पूछा गया कि बाकी 10 फीसदी सही मामलों का क्या तो वह खामोश रहा.
64 वर्षीय कारोबारी और किसान हुसैन घडियाली सूरत में अपने सादे-से आठ मंजिला अपार्टमेंट में पोते-पोतियों के साथ बैठे हैं और बता रहे हैं, ''इकबालिया बयान देने के लिए मजबूर करने को हमें अमानवीय थर्ड डिग्री यातना दी जा रही थी. मेरे दोनों पैरों के तलवे लाठी की लगातार मार से काले पड़ गए थे. ऐसी परिस्थितियों में हमें कबूल करना ही पड़ा.” बरी किए गए सभी 11 आरोपियों के बचाव पक्ष के वकील मुश्ताक शेख कहते हैं कि शुरू से ही इस मामले को राजनैतिक रंग दिया जा रहा था.
''राष्ट्रीय सुरक्षा और सांप्रदायिक शांति से जुड़े किसी भी मामले की कार्रवाई को पुलिस तब तक गुप्त रखती है, जब तक कि उसके संबंध में अंतिम निष्कर्ष सामने न आए. इस तरह की जांच राष्ट्रीय कर्तव्य की भावना के साथ की जानी चाहिए. लेकिन इस मामले में जांच चलने के दौरान पुलिस हर दिन सांप्रदायिक भावनाएं उकसाने वाला कोई न कोई प्रेस नोट जारी करती रही.”
सूरती कहते हैं, ''पुलिस की ओर से मामले के बारे में जारी की गई मनगढ़ंत जानकारियों को स्थानीय भाषा के दैनिक अखबार और भी सनसनीखेज बनाकर परोसते रहे और हमें मीडिया ट्रायल का भी शिकार होना पड़ा.” पटेल को जब अवैध रूप से रिवॉल्वर रखने के आरोप में गिरफ्तार किया गया था, तब वे सूरत के नजदीक एक समुद्र तट पर अपने परिवार के साथ छुट्टियां मना रहे थे.
यह 12 मार्च, 1995 की घटना है. उसके ठीक एक दिन बाद गांधीनगर में बीजेपी की सरकार ने सत्ता संभाली थी. कुछ दिनों बाद, उन्हें रेलवे विस्फोट मामले में आरोपी बना दिया गया था. उनके बाद अगली गिरफ्तारी सूरती और घडियाल की हुई.
पुलिस के हिसाब से घटनाओं का क्रम इस प्रकार रहा- बाबरी मस्जिद के ढहने के बाद सूरत समेत कई जगहों पर हुए दंगों में मुसलमान खुद को काफी असुरक्षित महसूस कर रहे थे. इसलिए आरोपियों ने आत्म सुरक्षा और बहुसंख्यक समुदाय से बदला लेने के लिए हथियार इकट्ठा करने की योजना बनाई. पुलिस ने कहा कि आरोपियों में से एक इकबाल वाडीवाला—घडियाली और उनकी पत्नी शमीमा सूरती से मिलने गए, जो उस समय गुजरात राज्य मत्स्य विकास बोर्ड के अध्यक्ष थे.
पुलिस के अनुसार उन्होंने वहां से छह विदेशी हथगोले, दो एके-47 राइफल और अहमदाबाद में अब्दुल लतीफ से 199 जिंदा कारतूस हासिल करने का इंतजाम किया. उन्हीं हथगोलों का इस्तेमाल दोनों विस्फोटों में किया गया. पुलिस के अनुसार, सूरती अपनी सरकारी कार में अहमदाबाद से सूरत आए और उनके पीछे वाडीवाला भी मारुति वैन में बारूदी माल के साथ पहुंचे.
एक कांग्रेस कार्यकर्ता और छोटे भूमि-दलाल रहे मुश्ताक को जेल में अच्छे आचरण के लिए प्रमाणपत्र दिया गया है. जेल अधीक्षक ने गौर किया था कि कैदियों के लिए आयोजित धार्मिक समारोहों की तैयारी में मुश्ताक कितनी मुस्तैदी से जुट जाते थे. 2008 में जब टाडा अदालत ने उन्हें दोषी ठहराया तो अदालत में सिर्फ उनके मुस्लिम दोस्त नहीं, बल्कि सभी रो पड़े थे. मुश्ताक कहते हैं, ''1995 में जब मुझे गिरफ्तार किया गया था तब मेरा बेटा मिन्हाज जो अभी एलएलबी कर रहा है, सिर्फ दो साल का था.
मेरे दोस्त और रिश्तेदार मदद के लिए खड़े रहे, तभी वह अपनी शिक्षा हासिल कर रहा है. लेकिन अपनी व्यक्तिगत पारिवारिक पीड़ा से ज्यादा मैं अपने हिंदू भाइयों की आंखों में मेरे लिए छलकते धिक्कार को देखकर आहत हूं. बस थोड़ा सा यही सुकून है कि उनके बीच कई लोग ऐसे भी हैं, जो जानते हैं कि मैं निर्दोष हूं.”
कांग्रेस नेता और सूरत नगर निगम शिक्षा समिति के सदस्य वाडीवाला को दो बार जेल जाना पड़ा. इसी बीच उनके परिवार का मिट्टी के तेल और होटल का कारोबार पूरी तरह बर्बाद हो गया. 2013 में लीवर की बीमारी के कारण वे भी चल बसे. उनकी पत्नी जुबेदा और 39 और 36 वर्षीय बेटे आबिद और वसीम सूरत के नजदीक एक छोटा-सा रेस्तरां चलाते हैं. उनके चेहरे पर हताशा है.
आबिद कहते हैं, ''जेल में उचित इलाज नहीं होने की वजह से मेरे वालिद की मौत हो गई.” सूरती के 40 वर्षीय पुत्र अमीन का आरोप है कि उनके मछली पालन के कारोबार को 1995 में उनके वालिद की गिरफ्तारी के बाद बीजेपी सरकार के शक्तिशाली लोगों ने बर्बाद कर दिया.
उनके साथ हुआ अन्याय सिर्फ अभियुक्त के तौर पर उनके जेल जाने तक ही सीमित नहीं रहा, बल्कि इसमें उनके परिवारों को भी पिसना पड़ा जिन्हें साल दर साल आर्थिक अभावों और सामाजिक उपेक्षा, जलालत और दूसरी तकलीफों का सामना करना पड़ा.
फैसला गलतियों का मुकदमा :-
सुप्रीम कोर्ट ने टाडा के तहत दर्ज इकबालिया बयान को तकनीकी कारणों से अमान्य कर दिया.
जस्टिस टी.एस. ठाकुर और जस्टिस सी. नागप्पन की अध्यक्षता वाली सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने 18 जुलाई, 2014 को 1993 में सूरत बम विस्फोट मामले में सभी 11 आरोपियों को बरी कर दिया. उस बम विस्फोट में एक स्कूली लड़की की मौत हो गई थी और कई लोग घायल हो गए थे.
सर्वोच्च अदालत ने 2008 में गुजरात आतंकवादी और विध्वंसक गतिविधि (निरोधक) कानून (टाडा) अदालत के फैसले को उलट दिया. उस फैसले में आरोपियों को 10 से 20 साल कैद की सजा सुनाई गई थी. आतंकवाद विरोधी कानूनों के तहत दाखिल कई दूसरे मामलों की तरह ही गुजरात पुलिस कानून में निर्धारित सही प्रक्रिया का पालन करने में असफल रही. इस मामले के कुछ मुख्य बिंदु:
अपीलकर्ताओं की दलील थी कि उनका मुकदमा टाडा के तहत नहीं चलाया जा सकता क्योंकि वह धारा 20-ए का उल्लंघन है. इस प्रावधान में टाडा के तहत दंडनीय अपराध के बारे में किसी भी जानकारी की रिकॉर्डिंग के लिए जिला पुलिस अधीक्षक की मंजूरी होनी चाहिए. लेकिन आरोपियों द्वारा अपराध स्वीकार करने वाले बयानों की रिकॉर्डिंग के लिए गुजरात पुलिस ने राज्य के गृह विभाग के अतिरिक्त मुख्य सचिव की मंजूरी ली.
अदालत के सामने सवाल यह था कि क्या जिला पुलिस अधीक्षक को प्राप्त मंजूरी का अधिकार राज्य के किसी अन्य अधिकारी को भी हासिल है. इस मामले में मुख्य सचिव ऊपर के स्तर का अधिकारी है.
अदालत ने नहीं में जवाब दिया. उसने फैसला दिया कि अगर कोई नियम बनाया गया है तो उसका पालन उसी रूप में किया जाना चाहिए. ''उस काम को किसी भी दूसरी तरह से करने की मनाही होनी चाहिए.”
हालांकि मंजूरी लेने के लिए सीनियर अधिकारी के पास जाना सही मालूम हो सकता है, लेकिन अदालत ने पहले के कुछ मामलों का उल्लेख करते हुए कहा कि कानून अगर किसी अधिकारी को कुछ विवेकाधीन अधिकार देता है तो किसी अन्य अधिकारी द्वारा उस अधिकार का इस्तेमाल करना गलत है.
“इस मामले में कानून कहता है, ''अदालतें इस सिद्धांत को लागू करने के प्रति इतनी सख्त हैं कि वे उन प्रशासनिक दलीलों की भत्र्सना करती है, जो उन्हें बनाने वालों को स्वाभाविक और उचित मालूम होती हैं.”
टाडा के तहत रिकॉर्ड किया गया इकबालिया बयान अमान्य हो जाने के बाद गुजरात सरकार के मामले में कोई दम नहीं रह गया. इकबालिया बयान के सिवा उसके पास कोई अन्य ठोस सबूत नहीं था.
विशेष सरकारी वकील हंसमुख लालवाला ने आरोपियों के खिलाफ टाडा अदालत में दलीलें पेश की थीं. लालवाला कहते हैं, ''सुप्रीम कोर्ट पर कौन उंगली उठा सकता है. कोर्ट ने उन्हें तकनीकी आधार पर बरी कर दिया है.” उनका मानना है कि इस मामले में पेश किए गए सबूत आरोपियों को दोषी करार देने के लिए काफी मजबूत थे.
घटनाक्रम :-
28 जनवरी, 1993: वारछा रोड पर हुए विस्फोट में एक स्कूली लड़की की मौत और 11 लोग घायल. पुलिस ने इस मामले में 27 लोगों को गिरफ्तार किया.
22 अप्रैल, 1993: सूरत रेलवे स्टेशन पर विस्फोट, 38 लोग घायल.
21 मार्च, 1995: रेलवे स्टेशन पर विस्फोट के मामले में गांधीनगर में बीजेपी सरकार आने से एक दिन पहले मुश्ताक पटेल नाम के एक व्यक्ति को गिरफ्तार किया गया.
19 मार्च, 1995: कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और गुजरात के पूर्व मंत्री मोहम्मद सूरती को रेलवे स्टेशन पर बम विस्फोट मामले में गिरफ्तार किया गया. सभी आरोपियों पर टाडा के तहत आरोप दर्ज.
2001: आरोपियों को सुप्रीम कोर्ट से जमानत.
4 अक्तूबर, 2008: टाडा अदालत ने 11 आरोपियों को दोषी करार दिया और उन्हें 10 से 20 साल कैद की सजा सुनाई.
18 जुलाई, 2014: सुप्रीम कोर्ट ने सभी 11 आरोपियों को यह कहते हुए बरी कर दिया कि पुलिस ने टाडा के तहत कार्रवाई करते समय सही प्रक्रिया का पालन नहीं किया !!
Source : http://aajtak.intoday.in/story/%E2%80%98who-will-give-us-back-these--12-years-1-773734.html
Even so called secular parties like Congress or Samajwadi Party didn't do anything to save Muslims from false cases. We need strong legal support services to counter police fabrications.
जवाब देंहटाएं