सोमवार, 20 जनवरी 2014

काम वाली बाइयों बनाम हमारा संसार !!


ऐ अँधेरे देख ले मुँह तेरा काला हो गया ,

माँ ने आँखें खोल दीं घर में उजाला हो गया !


मशहूर और हरदिल अज़ीज़ शायर जनाब मुनव्वर राना साहब का यह शेर बहुत ही प्रसिद्द है...और इसकी गहराई और मंतव्य को सब मानते हैं, मगर वर्त्तमान दौर में मेट्रो सिटीज़ में उच्च वर्ग...और उच्च माध्यम वर्ग के उन घरों में जहाँ पति पत्नी दोनों नौकरी पेशा हैं...घर में बच्चे हों,  घरों का पूरा काम काज काम वाली बाइयों (Maid) के ही भरोसे रहता हो, जिन घरों में काम वाली बाइयाँ सुबह सवेरे आकर नाश्ते से लेकर बच्चों को स्कूल भेजने तक का काम अपने हाथ में लेती हों, हाँ इस मुनव्वर राना साहब के शेर का वजूद और मायने ही ख़त्म हो जाते हैं !

कई लोगों के लिए यह काम वाली बाइयाँ बहुत बड़ी मजबूरी हैं, तो कहीं यह कुछ लोगों के लिए स्टेटस सिम्बल भी हैं, सुना तो यह भी है कि मुम्बई और दिल्ली जैसे शहरों में तो लोगों ने विदेशी काम वाली बाइयों को भी लोगों पर रौब डालने के लिए नौकरी पर रखा हुआ है ! बड़े शहरों में काम वाली बाइयों की बढ़ती मांग और उनकी अहमियत किसी से छिपी नहीं हैं, नौकरी पेशा पति पत्नी ...जिनके बच्चे भी हों, पूरी तरह से इन बाइयों के भरोसे रहते हैं, सुबह सवेरे यही आकर घर के काम काज को शुरू करती हैं, यदि पति पत्नी अपनी नौकरी पर जल्दी निकलते हैं तो उनके बच्चों को तैयार कर स्कूल बस तक पहुँचाना, उसके बाद घर के बाक़ी काम यही संभालती हैं ! बड़े शहरों की कालोनियों में सुबह सवेरे ही इनकी गतिविधियां शुरू हो जाती हैं, लोग बेसब्री से इनकी आमद का इंतज़ार करते हैं, घडी की सुइयों की तरह हर घर में इनका नियत समय होता है, दस पंद्रह मिनट की देरी से ही घर के सदस्यों का टाइम टेबल अस्त व्यस्त हो जाता है, कई बाइयां तो लम्बी दूरी, सिटी बसों, टैम्पो या लोकल ट्रेनो से तय करके अपनी ड्यूटी चढ़ती हैं !

जिस दिन भी काम वाली बाई पंद्रह मिनट या आधे घंटे किसी कारण वश देरी से आये तो हज़ार सवाल...उसके लिए तैयार रहते हैं, घडी देख .क्या टाइम हुआ है, कहाँ थी अब तक, इतनी देरी कैसे लगी ? आदि इत्यादि ! और जिस दिन अगर किसी घर में अगर काम वाली बाई नहीं आती है, वो दिन सदमे का दिन होता है, सब कुछ ठहर जाता है, घर के सारे काम कौन करे ? कैसे करे ? यह समस्या मुंह बाये खड़ी हो जाती है, पति पत्नी अपनी नौकरी पर जाएँ, या फिर इस घर के लिए रुकें ? पड़ौसी की बाई ऐसे समय और नखरे दिखाती है, उनका सारा गुस्सा काम वाली बाई के प्रति इक्ठ्ठा होता जाता है, और अगले दिन उसके आने पर जमकर फूटता है ! भले ही काम वाली बाई के खुद के घर में कितना ही बड़ा काम या संकट क्यों ना हो, लोगों को उससे कोई मतलब नहीं होता, उनको समय पर बाई चाहिए ही चाहिए !

इन काम वाली बाइयों की भी अपनी निजी ज़िन्दगी होती है, इनके परिवार होते हैं, पति, सास ससुर, बच्चे, ..बीमारी, ख़ुशी गम..... हमारी ज़िन्दगी की तरह सभी कुछ होता है, भले ही रात भर शराबी पति की लड़ाई से जगी हो, मगर सुबह काम पर मुस्तैद नज़र आती है, भले ही उसका बच्चा बीमार हो, भले ही तुरत फुरत काम निबटा कर बाद में उसे अस्पताल ले जाए, काम की खोटी नहीं करती, भले ही उसकी तबियत निढाल हो, काम पर आना ही होता है .पगार काटने का डर जो होता है, और पगार ऐसा माध्यम है, जो उसे कहीं न कहीं एक सम्बल देता है, आंशिक स्वतंत्रता देता है, कुछ अपनी ..कुछ अपने परिवार के लिए मन मर्ज़ी का करने की ..अपने किसी की इच्छा पूरी करने की, थोड़ी ही सही ...मगर अपनी खुद की ज़िन्दगी जीने की ! इस पगार के दम पर यह ऐसे सपनो का संसार बुनती है जहाँ ..पैसा जोड़ कर अपने लिए एक छोटा सा खुद का घर बनाये...आगे जाकर इसकी बेटी पढ़ लिख कर इस लायक़ हो जाए कि उसे अपनी माँ की तरह घर घर जाकर काम न करना पड़े, उसका बेटा खूब पढ़े और आगे जा कर बड़ा अफसर बने ..और इन्ही सपनो का पीछा करते करते वो घर घर दौड़ दौड़ कर काम पूरे करने रोज़ निकल पड़ती है ! जहाँ हम इसका इंतज़ार करते रहते हैं कि कब यह बाई काम पर आये...और हम अपने सपनो को पूरा करने के लिए दिन की शुरुआत करें !!

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें