शुक्रवार, 5 दिसंबर 2014

विवाहित नारी : अर्धांगिनी या दासी ??

विवाहित नारी को झाड़ू पोंछा बर्तन रोटी करने वाली बाई, बच्चे पैदा करने वाली .. और पाँव दबाने वाली गुलाम समझने की कुप्रथा अब भी कई समाजों में चहल क़दमी कर रही है, और दुःख इस बात का है की इस कुप्रथा की सबसे बड़ी संवाहक खुद औरत ही है, आज भी कई जगह शादी योग्य लड़कों की माँओं को औरतों द्वारा यह कहते सुन सकते हैं कि अब और कितने दिन भर के काम कर कर के शरीर को कष्ट दोगी ? बहू क्यों नहीं ले आतीं ? यानी उनके लिए बहू एक बिना वेतन के घर के काम करने वाली महरी हो गयी, और साथ में बच्चे पैदा करने का काम भी बिलकुल फ्री ! कहीं न कहीं इस कुप्रथा के पीछे अशिक्षा भी बड़ा कारण रहा है, गाॉंवों और क़स्बों में अभी भी यह कोढ़ बहुलता से देखा जा सकता है ! इस नज़रिये से तो औरत की शादी होना .....अप्रत्यक्ष रूप से उसे दासता की बेड़ियों में जकड़ना ही हुआ ! 

यही कुछ हम कई फिल्मों और टी.वी. धारावाहिकों में भी देख सुन सकते हैं, जहाँ यह सब कुप्रथाएँ धड़ल्ले से जारी हैं, सरकार ने शराब, सिगरेट जैसी चीज़ों के प्रदर्शन पर तो रोक लगा दी है, मगर समाज में एक कोढ़ की तरह रची बसी इस कुप्रथा को कई रूपों में दिखाने से रोकने के लिए किसी प्रकार का कोई क़ानून नहीं है, क्या दहेज़, क्या अत्याचार और दमन, हर धारावाहिकों में परिवारों में बहुओं पर अत्याचार के अनेक रूप आप देख सकते हैं ! अधिकांश धारावाहिकों में बहू को एक काम करने वाली महरी की तरह ही पेश किया जाता रहा है, जो घर में सिर्फ खानदान का चिराग देने, झाड़ू-पोंछा-बर्तन करने और सब के पाँव दबाने के लिए ही ब्याह कर लाई जाती है ! क्या माँ बाप अपनी बच्चियों को इस दिन के लिए पैदा करते, पढ़ाते लिखाते हैं कि कल को वो दहेज़ के साथ किसी घर में एक अवैतनिक महरी बन कर जाए ? 

जो लोग दहेज़ के बिना बहु घर नहीं लाते, और जिन लोगों के घरों में औरतों के साथ गुलामों जैसा व्यवहार होता है, उनकी बेटियों के साथ अगर कोई वैसा ही व्यवहार करे तो चीख पुकार मच जाती है, ऐसा दोहरा रवैया आखिर क्यों ? किसी की बेटी को लोग अगर ब्याह कर घर लाते हैं, और उसे बेटी का दर्जा देने से परहेज़ करते हैं तो उन्हें कोई हक़ नहीं कि अपनी बेटियों के लिए ऐसा ही दर्जा चाहें ! वो क्यों इस बात की आशा करते हैं कि उनकी बेटी ससुराल में रानी बन कर रहे, नौकर चाकर चारों तरफ रहें ? सामाजिक और पारिवारिक परम्पराएँ निभाना अलग बात है और सामाजिक कुरीतियों की भेंट चढ़ना अलग बात !  

पति पत्नी जीवन रुपी गाडी के दो पहिये होते हैं, अगर एक कमज़ोर या एक अधिक भरी पड़ जाए तो फिर यह गाडी चलती नहीं ...घिसटती है, आज जहाँ लड़कियां पढ़ लिख कर ऊंचाइयों को छू रही हैं, हर क्षेत्र में अपना नाम रोशन कर रही हैं, चाहे वो सेना हो या पुलिस, बैंकिंग हो या मेडिकल, राजनीति हो खेल, हर कहीं परचम बुलंद किये हुए है, पुरुषों के कंधे से कन्धा मिला कर चल रही हैं, ऐसे में इस तरह की पिछड़ी हुई सोच, और कुरीतियों के ख़त्म नहीं हो पाने के पीछे के कारणों को खत्म करने के लिए नयी पीढ़ी को बीड़ा उठाना ही होगा, ख़ास कर युवकों को आगे आकर इस अंतर को ख़त्म करना होगा, और इसकी शुरुआत अपने अपने घरों से ही करने की सोच लें तो इस कुप्रथा को खाद पानी मिलना धीरे धीर कम हो जाएगा...और आशा है कि यदि ऐसे प्रयास बड़े स्तर पर होने लगें तो आने वाले समय में यह कुप्रथा केवल क़िस्से कहानियों में ही सुनने को मिले !!

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें