बुधवार, 15 फ़रवरी 2012

जनलोकपाल आन्दोलन को तहरीर चौक का पायजामा मत पहनाइये ~~~!!

अन्ना के अनशन को जनक्रांति बताने वाले चपल रिपोर्टरों की यह मजबूरी समझिए कि उन्हें टीआरपी रेस में टिके रहने के लिए घटना का चरम प्रस्तुत करना ही होगा. वे जनक्रांति से आगे का कोई शब्द जानते होते तो अन्ना के अनशन के लिए वह प्रयोग करते. यह तो भला हो कि जनक्रांति के ऊपर का कोई शब्द उनके पल्ले नहीं पड़ा नहीं तो टेलीवीजन मीडिया इसे वह भी बना देता. लेकिन जिस जन की उपस्थिति को क्रांति बताई जा रही थी वह जन शहरी मध्य वर्ग या फिर उस मध्य वर्ग का पिछलग्गू जमातें थी. उनका वहां होना जहां अन्ना हजारे का अनशन चल रहा था यह सिर्फ और सिर्फ टेलीवीजन मीडिया की मौजूदगी की वजह से था. मसलन, अन्ना की जीत के जश्न में जिस इंडिया गेट पर जश्न मनाया जा रहा था वहां न तो उतने लोग थे जितना दावा किया जा रहा था और न ही सेलिब्रेशन जैसा कोई माहौल. हुड़दंग का आलम था और उस हुड़दंग में टेलीवीजन पर दिख जाने की होड़. टेलीवीजन पर दिखते ही फोन किसी परिचित को लग जाता और इधर से पूछा जाता कि "आज तक पर अभी थोड़ी देर पहले मैं आ रहा था. तुमने देखा क्या?" रात सवा नौ बजे तक इसी तरह सेलिब्रेशन चलता रहा. सवा नौ बजे के करीब पुलिस ने कहा टेलीवीजन चैनल्स को कहा लाइट्स आफ. और कमाल देखिए सवा दस बजे वहां से सारा सेलिब्रेशन गायब हो चुका था. कारण साफ़ है....बिना टीवी के अन्ना की जीत का जश्न घण्टे भर भी नहीं टिक सका. आन्दोलन के नाम पर टी वी कैमरों की चमक की चाशनी छलका कर..जनता को एक बार घेरा जा सकता है...दो बार घेरा जा सकता है...मगर बार बार जनता को आवाज़ लगा कर आन्दोलन का मजमा नहीं लगा सकते...यह बात अन्ना के मुंबई अनशन से एक दम साफ़ हो गयी है...और टीम अन्ना के भी होश इस विफलता से उड़े हुए हैं...यहाँ मीडिया के कैमरे...और लाईट के साथ एनजीओवादी मेनेजमेंट की भी सारी तिकड़में धरी की धरी रह गयी थी.... रही सही कसर मुंबई हाई कोर्ट ने पूरी कर डाली थी...!


जो लोग यह समझते हैं कि यह अन्ना का अनशन था और उसे मीडिया  ने रिपोर्ट किया, उन्हें अपने वाक्य को अब शायद दुरुस्त कर लेना चाहिए. यह मीडिया का अनशन था जिसमें नायक की भूमिका अन्ना हजारे ने निभाई. स्टेड लगाने से लेकर जनक्रांति घोषित कर देने तक सारा आयोजन टेलीवीजन मीडिया और कुछ एनजीओवादी कर्मठ कार्यकर्ताओं की देन थी. जैसे एक दशक पहले कुछ आतंकवादियों ने गन की नोक पर भारतीय संसद को गिरवी बनाने की कोशिश की थी, कुछ कुछ वैसी ही कोशिश इस बार न्यूज मीडिया ने अपने गनमाइक से की. अन्ना को आगे करके भारतीय मीडिया ने पंद्रह दिनों तक अपनी टीआरपी को संभाले रखा. फायदे के इस अर्थशास्त्र में रास्ते में जो कोई आया टेलीवीजन ने उसके सिर कलम कर दिये. टेलीवीजन ने राजघाट से कत्लेआम का जो यह सिलसिला शुरू किया था वह इंडिया गेट पर आकर खत्म हुआ...यह  मीडिया और अन्ना कि जुगलबंदी और एनजीओवादी मेनेजमेंट का एक  उदाहरण है...जिसको तहरीर चौक जैसी आलीशान क्रान्ति का पायजामा पहनने की विफल कोशिश भी इस बाजारवादी और टीआरपी मोहित मीडिया ने की थी...!!

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