बुधवार, 21 दिसंबर 2011

जूतेबाज़ी से आगे जहां और भी है~~~~~!!

इराकी पत्रकार मुन्तज़र अल जैदी के बुश पर फेंके गए जूते के बाद तो जैसे भारत में जूतेबाज़ी करने कि होड़ से लगी है, जो कि अब जूतेबाज़ी से आगे बढ़ कर थप्पड़बाज़ी तक आ पहुंची है, जबकि अमरीका के तत्कालीन राष्ट्रपति जार्ज डब्ल्यू बुश पर ईराक की राजधानी बगदाद में एक संवाददाता मुंतजिर-अल-जैदी ने अपना जूता फेंका और उसे बुश की विदाई के चुम्बन का नाम दिया । दूसरा जूता उसने ईराक की विधवाओं और अनाथों की ओर से फेंका।उस समय और स्थान पर बुश जूते का शिकार हुए, उस पत्रकार द्वारा जूते मारने के बाद वो पत्रकार तो रातों-रात एक मशहूर हस्ती बन गया |  यह बात इसलिए भी सत्य है कि साउदी अरब के एक व्यापारी ने फेंके गए जूते ५० करोड़ रुपए में खरीदने की पेशकश की है। बहुत से लोगों का मत है कि जूतों की इस जोड़ी को किसी संग्रहालय में सजा दिया जाए ताकि आने वाली पीढ़ियाँ उन्हें देख-देख कर प्रेरणा ग्रहण करती रहें।
बुश के बाद  चीन के प्रधान मंत्री विन जिआवो को ब्रिटेन में जूता फेंकने की घटना का सामना करना पड़ा था । सोवियत संघ के तत्कालीन प्रधान मंत्री निकेता ख्रुशचेव ने तो १९६० में अपना जूता संयुक्त राष्ट्र संघ की जनरल एसेम्बली में दिखाया था। बुश, वेन जियाबाओ अरुंधती रॉय, चिदंबरम, राजेश तलवार आदि के बाद इस बार प्रशांत भूषण। सारी घटनाओं को करीब से देख कर आसानी से समझ में आता है कि गुस्सा अपने चरम पर है।

गुस्सा उन सभी को आया था जो इस देश पर अंग्रेजों की गुलामी से आजिज़ आ चुके थे। आज़ादी मिली तब भी गुस्से का बने रहना जारी रहा। इमरजेंसी लागू हुई तो गुस्सा अंदर ही अंदर भरने लगा। सरकारें बदलती रही और जनता को अलग-अलग तरीकों से गाँधी टोपी पहनाती रही तो भी गुस्सा आया। बाबरी मस्जिद से लेकर गोधरा, इंदिरा गाँधी और राजीव गाँधी की हत्या, पंजाब का आतंकवाद, नक्सलवाद, कभी न ख़त्म होता भ्रष्टाचार, सबकी खबर लेकर सबको खबर देने वाले का खुद पैड न्यूज़ में रंगे हाथों पकडा जाना भी गुस्से की वजह बना।मीडिया के लिए ऐसी खबरें रोमांच लेकर आती हैं। इलेक्ट्रानिक मीडिया के लिए तो खास तौर पर क्योंकि इसी बहाने उन्हें अपने चौबीस घंटे के चैनल की खुराक मिल जाती है, नियम को तोड़ने वाले को कई बात हीरो के रूप में पेश करते  है। दूसरे के मूल्य पर खुशी की दावत करने वाले मीडिया को यह जो स्वाद लगा है, वह बेशक खतरनाक है।
गुस्सा  किसी समस्या का निदान नहीं। गुस्सा किसी नतीजे पर भी नहीं ले जाता। पर गुस्सा यह ज़रूर दिखाता है कि कोई आक्रोश कही बहुत दिनों से पनप रहा है। यह संकेत इस बात का भी है कि व्यवस्था चरमरा रही है।पिछले एक अरसे से जनता टीवी के स्टूडियो में तो कभी अखबारों के पन्ने और ख़ास तौर से फसबूक और सोशल नेट्वोर्किंग साएट्स पर ही अपना गुबार निकाल रही है। उसे हुकमरानों से सीधे मिलने का मौका नहीं मिलता। वह इनके घर जाकर पूछ नहीं सकती कि वेह 32 रुपैये में कितने मिनट का गुज़ारा कर लेते हैं। जनता तो सिर्फ हुकम को सुन सकती है और पेट्रोल और डीज़ल की कीमत के बढ़ने का इंतज़ार कर सकती है।

मगर देखा जाए तो इस  क्रोध  और  प्रतिरोध के और भी तरीके हैं...जैसे स्व. निगमानंद  ने गंगा के अवैध खनन के लिए प्रतिरोध करते हुए अपने प्राण निछावर कर दिए ..व्यवस्था के खिलाफ प्रतिरोध तो अन्ना हजारे भी कर रहे हैं..और इरोम शर्मीला भी कर रही है, मगर जूतेबाज़ी और  थप्पड़ बाज़ी से अधिक यह आन्दोलन सार्थक रूप से सफल होते हैं...जूतेबाज़ी को हम कह सकते हैं की प्रतिरोध और क्रोध का एक short cut उपाय है, और इसमें एक पंथ दो काज वाली बात भी शामिल होती नज़र आती है, जूतेबाज़ तुरंत ही एक राष्ट्रीय बहस और एक हीरो के रूप में नज़र आता है, और उतनी जल्दी ही धूमिल हो जाता है, IPS राठौड़, और राजेश तलवार  पर अदालत मैं हमला करने वाले उत्सव शर्मा  अब कहाँ हैं ?  हमले के तुरंत बाद फेसबुक पर उत्सव के समर्थन में  एक ग्रुप बन गया था, जो अब न जाने कहाँ है, ..यह जूतेबाज़ी और थप्पड़ बाज़ी का चलन अगर चल पड़ा तो हो सकता है किसी दिन कोई सिरफिरा अन्ना हजारे के थप्पड़ मार दे, या किरण बेदी पर जूता उछाल दे, या इरोम शर्मीला कि पिटाई कर दे.... कहने का अर्थ यही है कि क्रोध और प्रतिरोध का तरीका जितना सार्थक और सटीक होगा, उसका impact भी उतना ही गहरा और निर्णायक होगा...मीडिया को भी चाहिए कि ऐसी घटनाओं को बढ़ा चढ़ा कर नहीं पेश करे, क्योंकि इससे एक गलत परंपरा को बल मिलता है, और एक गलत  सन्देश लोगों को जाता है...!! 

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